कश्मीर समस्या का एकमात्र हल लोगों का ‘सच्चा लोकतंत्र’ ही है

punjabkesari.in Friday, May 26, 2017 - 11:30 PM (IST)

यह सच है कि नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की छवि उनकी वास्तविक पात्रता से कहीं अधिक बड़ी बना दी थी लेकिन भाग्य की विडम्बना देखिए कि अपनी मृत्यु से पूर्व नेहरू ने शेख की कटु आलोचना की थी। 

बी.एन. मलिक (My Years with Nehru के लेखक) के अनुसार: ‘‘पंडित नेहरू ने कहा था कि कश्मीर की सारी समस्याएं शेख अब्दुल्ला के साम्प्रदायिक दृष्टिकोण की उपज हैं और शेख ही राज्य में शांति एवं स्थिरता स्थापित नहीं होने दे रहे।’’ शेख अब्दुल्ला की मृत्यु 1982 में हुई। अपनी मौत से पूर्व उन्होंने अपने बेटे डा. फारूक अब्दुल्ला को नैशनल कांफ्रैंस का अध्यक्ष बना दिया और कश्मीरियों को कहा कि वे फारूक पर भी उन्हीं की तरह भरोसा रखें क्योंकि उनका बेटा ही उस काम को पूरा करेगा जिसे वह स्वयं पूरा नहीं कर पाए। 

यह कौन सा सपना था जो शेख पूरा नहीं कर पाए थे? क्या यह कश्मीर की आजादी का सपना ही नहीं था? वह लंबे समय से अपने दिल में इस अवधारणा को संजोए हुए थे और इसी उद्देश्य से ही उन्होंने साम्प्रदायिकवाद एवं इस्लामी कट्टरवाद के पत्ते खेले थे। तो क्या हमें यह कहना चाहिए कि शेख लेशमात्र भी सैकुलरवादी नहीं थे? ऐसा कहने के लिए हमें उनका एवं उनके उत्तराधिकारियों का सही परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से आकलन करना होगा। यह आकलन करते हुए हमें क्या सैकुलरवाद है और क्या साम्प्रदायिकवाद, इस प्रकार के राजनीतिक खेलों के पचड़े में नहीं पडऩा चाहिए क्योंकि भारत के विभिन्न राजनीतिक नेताओं द्वारा यह खेल बहुत ही निर्लज्जतापूर्ण ढंग से खेला गया है। 

शेख रोम-रोम सुन्नी समर्थक थे। कश्मीरी लोगों की नस्लीय पहचान-जिसे आज कश्मीरियत का नाम दिया जाता है-को तराशने में शेख अब्दुल्ला का ही हाथ था। इस पहचान का कश्मीर की प्राचीन संस्कृति से कुछ लेना-देना नहीं। शेख अब्दुल्ला का उद्देश्य था कश्मीरी मुस्लिमों को अन्य मुस्लिमों से अलग करना। यह कहना असंगत नहीं होगा कि कश्मीरी पंडितों के प्रति शेख का रवैया सहिष्णु और दोस्ताना नहीं था। वह कश्मीरी मुस्लिम समाज के सैकुलरकरण का बहुत विरोध करते थे। शेख की साम्प्रदायिक मानसिकता का अवलोकन इसी तथ्य से हो जाता है कि वह केंद्रीय एशिया से आए हुए मुस्लिमों को तो कश्मीर घाटी में बसाने को तैयार थे लेकिन पाकिस्तानी पंजाब से उजड़ कर आए हुए हिंदू-सिखों को नहीं। यहां तक कि 1950 के दशक के प्रारंभ में शेख ने 5000 कजाख मुस्लिमों को घाटी में बसने का आमंत्रण भेजा था। 

1950 के दशक के अंत में जब दलाईलामा तिब्बत से भाग कर आए थे तो शेख ने तिब्बती मुस्लिमों को कश्मीर में आने और बसने का आह्वान किया लेकिन एक भी बौद्ध को घाटी में बसने की अनुमति नहीं दी। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र के किसी बौद्ध को भी नहीं। मैं अतीत की इन कड़वी सच्चाइयों का स्मरण इसलिए करवा रहा हूं कि हमारे नेता कश्मीर में दरपेश चुनौतियों को बेहतर परिप्रेक्ष्य में समझ सकें। कश्मीर के नेताओं की जटिल मानसिकता से निपटने के मामले में कोई भी ऐसी नीति कारगर नहीं होगी जो अतीत की भूलों-चूकों एवं भारी-भरकम गलतियों का संज्ञान नहीं लेगी। आतंकवाद और मिलीटैंसी की समस्याओं से कड़ाई से निपटना होगा। 

इन समस्याओं को प्रायोजकों को अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि वे ऐसे दौर में जी रहे हैं जिसमें लोगों की ‘नए मुक्तिदाताओं’ पर कोई आस्था नहीं, चाहे वे मजहबी हों या राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक क्षेत्र के। अब ऐसे मुक्तिदाताओं के विचार किसी भी तरह हमें कायल नहीं करते। इसलिए हमें मिलीटैंटों और आतंकियों के प्रति किसी भी प्रकार की नरमी न दिखाते हुए उन्हें झुकने को मजबूर करना होगा, चाहे यह प्रक्रिया कितनी भी मंद गति से क्यों न चले। कश्मीर से निपटने के मामले में असली समस्या पाकिस्तान, इसकी सेना के बेलगाम जनरल और आई.एस.आई. है। कश्मीर में उन्हीं की मर्जी चल रही है और वे भारत को अस्थिर करने एवं कश्मीर को हड़प करने के एजैंडे पर चल रहे हैं। उनके नापाक मंसूबों में चीन सहायता कर रहा है। पाकिस्तान और चीन के बीच बढ़ती नजदीकियों का प्रधानमंत्री मोदी के पास कौन सा प्रभावी उत्तर है? 

विडम्बना देखिए कि अपने घर के अंदर चीन के लिए मुस्लिम और मुस्लिम विचारधारा दोनों ही एक घटिया शब्द हैं। इसके बावजूद इस्लामाबाद को चीन से गलबहियां लेने में कोई बुराई दिखाई नहीं देती। चीन के साथ हाथ मिलाते हुए पाकिस्तान का कथित इस्लामी चेहरा पता नहीं कहां गायब हो जाता है? ये सभी कड़वी सच्चाइयां मोदी सरकार के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती हैं और इनका सामना किसी सीधी रेखा में चलने जैसी पहुंच से नहीं किया जा सकता। कश्मीर घाटी के अंदर और सीमा के पार जो जटिलताएं मौजूद हैं, उनके चलते प्रधानमंत्री मोदी जनता के समक्ष कटघरे में खड़े हैं। 

जनरल जिया उल हक द्वारा भारत विरोधी शुरू किया गया छद्म युद्ध दशकों से जारी है। अब समय आ गया है कि हम भी कुछ जोखिम उठाएं। युद्ध छेड़े बिना पाकिस्तान को दंडित करने के लिए तैयार-बर-तैयार रहना चाहिए और जम्मू-कश्मीर में पाक-प्रायोजित आतंकी कार्रवाइयों तथा मिलीटैंसी को रोकने के लिए बहुत दूरगामी और क्रांतिकारी बदलाव करने होंगे। इस मामले में जम्मू-कश्मीर का कश्मीर घाटी, जम्मू एवं लद्दाख में त्रिभाजन करना किसी प्रकार से सहायक होगा? इस पर केंद्र सरकार को सभी संभावनाएं तलाश करनी होंगी। घाटी में कई प्रकार के नस्लीय समूह हैं। इस नस्लीय विभिन्नता के माध्यम से स्थिति को बुरी तरह समझ कर ही कश्मीर के संकट का कोई संभव हल तलाश करना होगा। 

कश्मीर के मुस्लिमों में शिया और सुन्नी का भेद तो है ही, इसके अलावा कई ऐसे समूह भी हैं जो जातिगत व्यवस्था से मिलते-जुलते हैं। हालांकि मुस्लिमों की तुलना में हिंदुओं में यह जातिगत विभेद बहुत प्रचंड नहीं है। मेरा मानना है कि आतंकियों की बंदूकों को शांत करने के लिए शांतमय समाधान उपलब्ध हो जाएं तो बहुत अच्छा है। घाटी में मुद्दों, समस्याओं और व्यक्तियों के लिए एक-एक मामले में सटीक पहुंच अपनानी होगी। अंत में मैं कहना चाहूंगा कि कश्मीर की जटिल समस्या का एकमात्र समाधान लोगों का सच्चा लोकतंत्र ही है। ऐसी व्यवस्था ही शेष भारत के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से एकदम फिट बैठ सकेगी। 


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