विधवा या तलाकशुदा महिला के प्रति परिवार और समाज का नजरिया
punjabkesari.in Saturday, Jul 20, 2024 - 05:12 AM (IST)
जब समाज में घटी घटना यह सोचने को विवश करे कि क्या आधुनिक और टैक्नोलॉजी संपन्न परिवेश में ऐसी परंपरा का अभी भी अस्तित्व है जो हमें सदियों पीछे ले जाए? समझना चाहिए कि कहीं तो गड़बड़ है और ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ चरितार्थ हो रहा है। लकीर के फकीर की राह पर चलते हुए परिवर्तन का ढोंग हम और हमारा समाज कर रहा है। मजे की बात यह कि डंके की चोट पर हो रहा है।
विधवा की हैसियत : घटना यह है कि सन् 2023 में सियाचिन क्षेत्र में अपने साथी सैनिकों की रक्षा करने के प्रयास में 23 वर्षीय कैप्टन अंशुमन सिंह की शहादत हो जाती है। उनकी अदम्य वीरता के लिए उन्हें कीॢत चक्र से सम्मानित करने का निर्णय लिया जाता है। यह सम्मान जुलाई 2024 में राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है। इसे लेने के लिए पिता रवि प्रताप सिंह, मां मंजु सिंह और पत्नी स्मृति सिंह सम्मान स्थल पर उपस्थित होते हैं। विशेष बात यह है कि अंशुमन और स्मृति का विवाह 5 महीने पहले ही हुआ था। कह सकते हैं कि वे अभी अपनी गृहस्थी जमा ही रही थीं कि यह वज्रपात हो गया। इसी तरह माता-पिता भी अपने पुत्र की सफलताओं से गद्गद् हों और उसे तथा उसके परिवार को अपने सामने फलता-फूलता देखें कि यह अनहोनी हो गई। इस हृदय विदारक स्थिति की कल्पना करना कोई कठिन नहीं है क्योंकि किसी व्यक्ति के लिए यह अप्रत्याशित हो सकती है लेकिन जीवन यात्रा के लिए सामान्य है। खैर, कीर्ति चक्र मिलता है, परिवार को संवेदना युक्त शुभकामनाएं भी मिलती हैं। पत्नी का पति के लिए और मां-बाप का पुत्र के लिए गर्व का अनुभव स्वाभाविक है।
चिंता इस बात की है : अब स्थिति यह बनती है जो बहुत ही ङ्क्षचताजनक है। होता यह है कि पिता अपनी विधवा बहू पर आरोप लगाते हैं कि उसे जो सम्मान और धनराशि मिली, वह उसे नहीं मिलनी चाहिए। इसके लिए रक्षा मंत्री तक गुहार लगाते हैं कि निकटतम संबंधी की परिभाषा में सबसे पहले जो पत्नी आती है, उसे बदला जाए। माता-पिता का ही अधिकार हो। पुत्र को जो कुछ सम्मान और धन मिले, उस पर पहला अधिकार उनका हो, पत्नी का नहीं। सोशल मीडिया के कारण दोनों ओर से सफाई और अपना-अपना पक्ष भी रखा जा रहा है जिसका महत्व हो सकता है लेकिन इतना नहीं कि मुख्य मुद्दा गायब हो जाए और वह यह कि विधवा के क्या अधिकार हैं और उनकी सुरक्षा का क्या प्रबंध है ?
समाज से दूरी बनाया जाना, आरोप लगाना, तिरस्कार करना, शक और सुलभ वस्तु का नजरिया रखना जिसके साथ चाहे हिंसा करे, गाली-गलौच हो, कहीं बाहर जाए तो लांछन और किसी भी समारोह में जाने की मनाही, यहां तक कि अपने ही बच्चों से दूरी बनाए रखने की हिदायत मामूली और दैनिक क्रिया बन जाती है। यह सब शायद किसी व्यक्ति या वर्ग को अजब-गजब लगे लेकिन चाहे ग्रामीण हो या शहरी समाज, यही वास्तविकता है। दुख तथा अफसोस इस बात का है कि आज भी यह सब प्रचलन में है। यह महिला का सम्मान या उत्थान तो कतई नहीं है !
हालात क्यों नहीं बदलते? : ऐसा नहीं है कि इस स्थिति को बदलने के प्रयास नहीं हुए हैं, सदियों और दशकों से होते रहे हैं लेकिन उनका कुछ असर हुआ होता तो स्मृति सिंह जैसी घटना देखने को नहीं मिलती। अंग्रेजों द्वारा बनाए कानून, विधवा का फिर से विवाह कर सकने का आंदोलन और उसकी सफलता तथा स्त्री के प्रति केवल उपभोग की दृष्टि न रखकर उसे जीवन संगिनी का वास्तविक दर्जा देने की मुहिम, यह सब और भी बहुत कुछ इस संबंध में हुआ है लेकिन आज भी केवल ढाक के तीन पात का ही चलन दिख रहा है। अंग्रेजों के कानून बदले, विधवा पुर्नविवाह का रास्ता खुला और उसे अपना जीवन अपनी तरह से जीने की स्वतंत्रता की राह दिखी, पति और पारिवारिक संपत्ति में उसके अधिकार को मान्यता दी गई। आज जो नया कानून है वह बहुत ही स्पष्ट है कि अब विधवा का दोबारा शादी कर लेने के बाद भी पहले पति की विरासत में अधिकार है, वह अपनी सुविधा और मर्जी से जीवन जी सकती है लेकिन कानून की सुनता कौन है? वह तो हाथ का खिलौना है और उसे कठपुतली की तरह नचाया जा सकता है। स्त्री और पुरुष की बराबरी की हैसियत के दावे पर मर्द को अपनी मर्दानगी दिखाने की सोच या अहंकार हावी है। कानून को ठेंगा दिखाने में महारत रखने वाले अंधेर नगरी और चौपट राजा सिद्ध कर देते हैं।
हमारे देश में दुर्भाग्य से अधिकतर कानून सब पर लागू नहीं होते, वे अपने धर्म के अनुसार चलते हैं। विरासत का कानून भी उनमें से एक है जो धर्मों के अनुसार चलता है। हालांकि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई तथा अन्य धर्मों में यह कुछ न कुछ अलग है लेकिन एक बात सब में समान है कि औरत को उसका जायज हक न मिल सके, इसकी पूरी व्यवस्था है। ङ्क्षहदू स्त्री को गोद लेने का अधिकार है, उसे गुजारे की राशि मिलना तय है, स्वर्गीय पति की तरह अपना स्टेटस बना कर रहने और उसकी संपत्ति में हिस्सा लेने का कानून है, जितने भी दावेदार हैं, उनमें वह भी है और परिवार तथा विशेषकर ससुर पर यह जिम्मेदारी है कि वह अपनी विधवा बहू को अच्छी तरह रखे, अपनी बेटी मानकर व्यवहार करे और उसकी रजामंदी हो तो उसका दोबारा घर बसाने की पहल करे। इसका प्रावधान है कि उसे उसका हिस्सा मिले। कानून के अनुसार कार्रवाई हो। मुस्लिम स्त्रियां शरीयत की व्यवस्था पर निर्भर हैं। इसी तरह ईसाई, पारसी, सिख तथा अन्य धर्मों में है। उनमें भी स्त्री की दशा निर्भरता की ही है, बात चाहे उनकी रिवायतों की हो या परिवार के दबाव की।
जरूरत क्या है? : भारत में विधवा होने के अभिशाप से नारी को मुक्त किया जाए और जो उसे समाज और परिवार के बंधनों में जकड़ कर रखना चाहते हैं, उन्हें सजा मिलने का कानून हो। गांव देहात में अभी भी पति की किसी भी कारण से मृत्यु होने पर विधवा को घर से निकालना, उसे प्रताडि़त और बहिष्कृत करना सामान्य बात समझी जाती है। जबकि उसकी ऊर्जा, क्षमता, बुद्धि, शिक्षा और कार्य कुशलता का उपयोग घरेलू काम-धंधों से लेकर खेतीबाड़ी तक में किया जा सकता है।
इसी तरह शहरों में उन्हें घर की चारदीवारी से निकलकर अपने लिए कुछ नया करने तथा आत्मनिर्भर होने का आधार दिया जा सकता है। बहुत बड़ा समाज है जहां स्त्रियों को पति की मृत्यु पर बेसहारा नहीं समझा जाता और उन्हें नफरत से न देखकर प्यार से रखा जाता है। लेकिन यह सब अपवाद की श्रेणी में आते हैं। उस समाज का आकार चाहे छोटा हो लेकिन स्त्री को पैर की जूती या दहलीज की चौखट मानने की मानसिकता रखने वालों की कमी नहीं है। जहां तक कानून की ताकत की बात है तो जैसे ही रवि प्रताप सिंह रक्षा मंत्री के पास अपनी बहू के अधिकार छीन लिए जाने की बात लेकर गए थे, उन पर तुरंत कार्रवाई होनी चाहिए थी और हिरासत में लिया जाना चाहिए था। अगर ऐसा होता तो यह शहीद सैनिक का सम्मान होता और दकियानूसी सोच रखने वालों के मुंह पर तमाचा होता।-पूरन चंद सरीन