पुरुषों के मानवाधिकार भी उतने जरूरी जितने महिलाओं के
punjabkesari.in Thursday, Nov 21, 2024 - 06:29 AM (IST)
19 नवम्बर को भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का जन्मदिवस मनाया गया, तो दूसरी तरफ यह अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस भी था। इसे सबसे पहले टोबैगो और त्रिनिदाद में 19 नवम्बर 1999 को मनाया गया था। इसकी संकल्पना डा. जेरोम तेलुस्के सिंह ने की थी जो वैस्टइंडीज में इतिहास के प्रोफैसर थे। उन्होंने इसे अपने पिता को समर्पित किया था। इस दिवस का मुख्य उद्देश्य, समाज में पुरुषों द्वारा किए गए कामों को सैलिब्रेट करना था। इसकी मुख्य प्रतिज्ञाएं थीं-
1.पॉजिटिव मेल रोल माडल्स का प्रचार करना।
2.परिवार, समाज, कम्युनिटी और पर्यावरण को बचाने में पुरुषों का योगदान।
3. पुरुषों के अच्छे स्वास्थ्य और खुशहाली पर ध्यान देना।
4.पुरुषों के प्रति हो रहे भेदभाव को सामने लाना।
5. लैंगिक भेदभाव का खात्मा तथा स्त्री-पुरुषों के बीच अच्छे संबंधों को बढ़ावा देना।
2023 में पुरुष दिवस की प्रतिज्ञा थी जीरो मेल सुसाइड। यानी कि पुरुषों की आत्महत्या को रोकना।
जेरोम का मानना था कि पुरुषों को भी सैलिब्रेट करने का एक दिन जरूर हो। पिछली बार जो प्रतिज्ञा थी कि पुरुष आत्महत्या न करें, तो अपने ही देश में एन.सी.आर.बी. के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के मुकाबले, 6 प्रतिशत पुरुष अधिक आत्महत्या करते हैं। वे बेरोजगार, बीमार और परिवार के झगड़ों से परेशान हैं। मां की बात सुनते हैं, तो पत्नी नाराज होती है और पत्नी की बात सुनते हैं, तो मां नाराज। वह घर जहां मनुष्य दफ्तर या अन्य कामकाज के बाद घर लौटता है कि कुछ शांति प्राप्त कर सके, वहां भी अब बहुत से घरों में रोज के मोर्चे खुले हुए हैं। स्त्री विमर्श और स्त्रियों को लाभ पहुंचाने वाले अपने देश में बहुत से कानून हैं। मगर इन कानूनों की एकपक्षीयता इतनी है कि अगर कोई स्त्री किसी पुरुष का नाम लगा दे और उसे आरोपी बना दे, तो आरोप साबित होने से पहले ही अपराधी बना दिया जाता है।
महिलाओं का तो नाम लेना तक कानूनी रूप से अपराध है, लेकिन जिस पुरुष को आरोपी बनाया गया है मीडिया में न केवल उसका नाम लिया जाता है, बल्कि बार-बार उसकी तस्वीर दिखाई जाती है। समाज में उसे शक की नजरों से देखा जाने लगता है। न उसे कानून की मदद मिलती है, न ही परिवार की, न समाज की। ऐसे में पुरुष आत्महत्या न करें तो क्या करें। इसके अलावा अगर जांच एजैंसीज की मानें तो दहेज निरोधी अधिनियम की धारा 498 ए, यौन प्रताडऩा, घरेलू ङ्क्षहसा आदि कानूनों का दुरुपयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है। दहेज अधिनियम को तो एक बार उच्चतम न्यायालय तक ने लीगल टैरारिज्म यानी कि कानूनी आतंकवाद कहा था। यदि पुरुष निर्दोष भी साबित होता है, तब भी उसकी गिरी साख वापस नहीं आती। जिस मीडिया ने रात-दिन उसका नाम लेकर खबरें छापी थीं, फोटो छापे थे, चैनलों पर दिखाए गए थे, वे कभी इन खबरों के फॉलोअप में नहीं दिखाते कि भाई इस पुरुष को हमने अपराधी के रूप में दिखाया था, लेकिन यह निर्दोष पाया गया।
वे स्त्रियां जो कानून का दुरुपयोग करती हैं, उन्हें शायद ही कोई सजा मिलती है। हालांकि अदालतें अनेक बार स्त्रियों को चेतावनी दे चुकी हैं कि वे कानूनों का दुरुपयोग न करें, लेकिन कौन सुनता है। बहुत बार तो कारण कोई और होता है। जैसे कि जमीन-जायदाद का मामला, पति के घर वालों के साथ न रहना, विवाहेत्तर संबंध , दहेज अधिनियम, घरेलू ङ्क्षहसा, यौन प्रताडऩा आदि का सहारा लेकर आदमी पर आरोप लगा दिए जाते हैं। इन दिनों अपने समाज में लिव इन का जोर भी बढ़ रहा है। यदि संबंध नहीं चले, तब भी दुष्कर्म का आरोप लगा देना मामूली बात है। अदालतें कहती रहती हैं कि सहमति से बालिगों के आपसी संबंध दुष्कर्म नहीं हैं। कहने का अर्थ यह कि सौ
में से सौ बार पुरुष को ही अपराधी साबित करने की कोशिश की जाती है।
अनेक ऐसे गिरोह भी बन चले हैं, जो महिला कानूनों का दुरुपयोग कर पैसे की वसूली करते हैं। बहुत बार दहेज संबंधी मामले समझौते से निपटाए जाते हैं, मगर इसमें पुरुषों को भारी मात्रा में रकम चुकानी पड़ती है। सोचने की बात यह है कि जिन कानूनों को महिलाओं की रक्षा के लिए बनाया गया है, उनका दुरुपयोग क्यों हो। लेकिन देखने में आता है कि जब भी कोई कानून किसी एक पक्ष को ही पूरे अधिकार दे देता है, तो दूसरे पक्ष की कभी नहीं सुनी जाती और लोगों को कानून के दुरुपयोग का मौका मिल जाता है।
इसीलिए मानवीयता से सोचते हुए बहुत से अन्य देशों की तरह अपने यहां भी जैंडर न्यूट्रल कानून होने चाहिएं। जो भी सताया गया हो, उसे न्याय मिले और अपराधी को सजा मिले। आखिर पुरुष भी इसी समाज में रहते हैं। वे भी न्याय पाने के उतने ही हकदार हैं, जितनी कि स्त्रियां। जब कानून न्याय देने के मुकाबले अन्याय का वाहक बन जाए तो उसे बदलना ही चाहिए। पुरुषों के भी योगदान को सैलिब्रेट किया जाना चाहिए क्योंकि जिस घर और समाज में स्त्रियां रहती हैं, उसी में पुरुष भी रहते हैं। पिछले कुछ सालों से बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी महिला कर्मचारियों से कहती हैं कि वे अपने पुरुष साथियों के साथ मिलकर 19 नवम्बर को सैलीब्रेट करें। उनके योगदान को सराहें। और क्यों नहीं। पुरुषों के मानव अधिकार भी उतने ही जरूरी हैं जितने स्त्रियों के।-क्षमा शर्मा