व्यवस्था में हेराफेरी से छुटकारा पाने के लिए की गई थी ‘आधार’ की परिकल्पना

punjabkesari.in Saturday, Apr 22, 2017 - 11:25 PM (IST)

प्रत्येक नागरिक के लिए एक विशिष्ट पहचान संख्या, यानी ‘आधार’ की परिकल्पना का जन्म 2009 में हुआ था।  क्या यह ऐसा विचार था जो अपने समय से काफी पहले प्रस्तुत किया गया था? बहुत से लोगों का ऐसा ही मानना है, खास तौर पर गरीब और अपेक्षित वर्गों के बीच जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकत्र्ताओं का।

‘आधार’ कोई क्रांतिकारी परिकल्पना नहीं थी। यह एक ऐसी बुनियाद है जिस पर दर्जनों देशों में पहचान पत्र जारी किए जाते हैं।‘आधार’ कोई नया विचार नहीं था। भारत में इसी तर्ज  पर कुछ अन्य उपकरण जारी किए जाते रहे हैं जो आज भी प्रचलित हैं और कुछ विशेष उद्देश्यों के लिए पहचान के प्रमाण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इसके बेहतरीन उदाहरण हैं पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसैंस, पैनकार्ड एवं राशन कार्ड।

‘आधार’ की जरूरत क्यों महसूस की गई? सरकार विभिन्न वर्ग के लोगों को कई तरह के लाभ हस्तांतरित करती है, जैसे कि छात्रवृत्तियां, बुढ़ापा पैंशन, सबसिडियां इत्यादि। बहुत विशालाकार भू क्षेत्र तथा भारी-भरकम जनसंख्या वाले देश में सही व्यक्ति तक लाभ पहुंचाना एक विकराल चुनौती है। नौसरबाजी, जालसाजी, झूठे दस्तावेज, चोरी, हेरा-फेरी इत्यादि अनेक तरीकों से इन लाभों को वास्तविक पात्रों तक पहुंचने से रोका जाता है। व्यवस्था में हेरा-फेरी के जितने भी तरीके प्रचलित थे उन सभी से छुटकारा पाने के लिए ‘आधार’ की परिकल्पना की गई थी।

भाजपा के नेतृत्व में विरोध हुआ
फिर भी ‘आधार’ की परिकल्पना प्रस्तुत की गई तो इसका जोरदार विरोध हुआ। किसी भी अन्य मुद्दे पर इतना जोरदार विरोध नहीं हुआ था जितना संसद के दोनों सदनों में 13 दिसम्बर, 2011 को पेश की गई वित्त मामलों से संबंधित संसदीय स्टैंङ्क्षडग कमेटी की रिपोर्ट में किया गया। इस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में यशवंत सिन्हा ने ‘आधार’ के विरुद्ध हल्ला बोलने वालों का नेतृत्व किया। उस समय के प्रमुख भाजपा नेताओं (जिनमें नरेन्द्र मोदी, प्रकाश जावड़ेकर और अनंत कुमार) शामिल थे, के बयानों से यह स्पष्ट था कि सिन्हा को पार्टी के सशक्त वर्ग का समर्थन हासिल था। आज यदि वह इस कमेटी के निष्कर्षों का अध्ययन करें तो बहुत परेशान हो जाएंगे।

यशवंत सिन्हा के नेतृत्व वाली कमेटी ने ‘आधार’ तथा भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यू.आई.डी.ए.आई.) गठित करने के विधेयक के लगभग प्रत्येक पहलू पर सरकार को रगड़ा लगाया। इसने बायोमीट्रिक सूचना एकत्र करने की बुद्धिमता पर सवाल उठाया और पहचान के मामले में नौसरबाजी की चेतावनी दी। इसने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि  बायोमीट्रिक सूचनाओं के संबंध में कम से कम 15 प्रतिशत मामलों में विफलता की गुंजाइश होती है। इसके साथ ही इसने गोपनीयता तथा डाटा सुरक्षा जैसे मुद्दों को भी रेखांकित किया और प्राइवेट एजैंसियों की संलिप्तता के विरुद्ध चेतावनी दी। कमेटी का सबसे गंभीर एतराज तो यह था कि वास्तविक लाभार्थी शायद दरकिनार कर दिए जाएंगे। इसने टिप्पणी की थी :

‘‘बेशक योजना में यह दावा किया गया है कि ‘आधार’ नम्बर हासिल करना स्वेच्छा पर आधारित होगा तो भी लोगों के मनों में एक आशंका पैदा हो गई लगती है कि भविष्य में जिन लोगों के पास ‘आधार’ कार्ड नहीं होंगे उन्हें सेवाओं और लाभों से वंचित कर दिया जाएगा।’’

यू.पी.ए. ने फूंक-फूंक कर कदम रखा
फिर भी यू.पी.ए. सरकार ने अपनी कार्यकारी शक्तियां, गैर-संवैधानिक निकाय यू.आई.डी.ए.आई. एवं नंदन नीलेकणि द्वारा संग्रहित प्रतिभाओं को प्रयुक्त करते हुए बहुत फूंक-फूंक कर आगे कदम बढ़ाया। यू.पी.ए. ने अपना  कार्यकाल पूरा करने के दिन तक 60 करोड़ ‘आधार’ कार्ड जारी कर दिए थे। यह संख्या अब बढ़कर 100 करोड़ हो गई है और कुछ प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण स्कीमें (डी.बी.टी.) ‘आधार’ के साथ जोड़ दी गई हैं।

अध्ययनों से संकेत मिलता है कि डी.बी.टी. सचमुच में काम कर रहा है : डी.बी.टी. के माध्यम से बुढ़ापा पैंशन के हस्तांतरण से गरीब का प्रकोप कम हुआ है। जिंसों की बजाय नकदी के रूप में लाभ हस्तांतरण से भोजन की खपत पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है। इसके विपरीत अंडों, दाल, मछली और मांस की खपत बढ़ी है। दूसरी ओर नकद हस्तांतरण ने मिट्टी के तेल की बजाय काष्ठ ईंधन की मांग बढ़ा दी है।

फिर भी सिविल सोसायटी के कुछ वर्गों ने ‘आधार’ को चुनौती देना जारी रखा। उन्होंने मुख्यत: इस आधार पर विरोध किया कि इनके ऐसे असुखद परिणाम हो सकते हैं जिनकी पहले परिकल्पना न की गई हो और वैध लाभार्थी दरकिनार हो सकते हैं। तब सुप्रीमकोर्ट ने हस्तक्षेप किया और 2013 में एक अंतरिम आदेश जारी किया कि ‘आधार’ संख्या को सरकारी स्कीमों के लाभ हासिल करने के लिए वैधानिक रूप में अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता।

2015 में अदालत इस बात के लिए राजी हो गई कि गोपनीयता से संबंधित मुद्दों की नए सिरे से जांच की जाए और इस मामले को सुप्रीमकोर्ट की बड़ी पीठ के हवाले कर दिया गया। इस पीठ ने केवल छात्रवृत्तियों, सामाजिक सुरक्षा अदायगियों, एल.पी.जी. सबसिडी और महात्मा गांधी नरेगा की अदायगियों जैसे सीधे हस्तांतरण लाभों के लिए ही ‘आधार’ की अनुमति दी।

सत्तासीन होते ही राजग-भाजपा सरकार ने उलटबांसी लगाई। वित्त मंत्री अरुण जेतली के समक्ष जब यू.आई.डी.ए.आई. द्वारा अपनी प्रस्तुति  दी गई तो उनके सभी सवालों का मंत्री ने संतोषजनक उत्तर दिया जो इस बात का प्रमाण था कि यह सरकार भी ‘आधार’ परियोजना के गुणों के मुद्दे पर पूरी तरह संतुष्ट है।

जहां राजग नीत सरकार का यह हृदय परिवर्तन स्वागत योग्य था, वहीं इस बात की किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि सरकार हर प्रकार की सावधानी को दरकिनार करते हुए ‘आधार’ को बिना सोचे-समझे कई क्षेत्रों में विस्तार देगी। यानी कि इसे कल्याणीकारी और गैर-कल्याणकारी दोनों प्रकार के कार्यक्रमों के लिए उपयुक्त किया जाएगा। सरकार ने हर प्रकार के लाभ हासिल करने या नियामक कानूनों के अनुपालन हेतु आधार को व्यावहारिक रूप में अनिवार्य बना दिया है और इस प्रकार सुप्रीमकोर्ट द्वारा तय की गई सीमाओं का खुलेआम उल्लंघन किया है।

अब आयकर रिटर्न दायर करने, मोबाइल टैलीफोन कनैक्शन लेने, यूनिवॢसटी डिग्री हासिल करने के लिए भी ‘आधार’ संख्या जरूरी कर दी गई। यह आशंका व्यक्त की गई है कि जल्दी ही ड्राइविंग लाइसैंस अथवा विमान टिकट और यहां तक कि रेलवे टिकट हासिल करने के लिए भी ‘आधार’ को अनिवार्य कर दिया जाएगा। उसके बाद शायद यह भी अनिवार्य कर दिया जाए कि स्वास्थ्य बीमा हासिल करने या किसी लाइब्रेरी का सदस्य बनने अथवा अपनी क्लब के बिल का भुगतान करने के लिए भी ‘आधार’ कार्ड को अनिवार्य कर दिया जाएगा?

गोपनीयता का मामला
यदि ऐसा होता है तो यह गोपनीयता में बहुत विराट स्तर पर और गैर-संवैधानिक हमला होगा। बेशक अनूठा पहचान चिन्ह अनिवार्य है तो भी इसे  लोगों के जीवन के बारे में ऐसी निजी सूचनाएं एकत्रित करने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जाएगा जिनका बढिय़ा गवर्नैंस से कुछ लेना-देना न हो। हमें यह अवश्य ही स्मरण रखना होगा कि अभी तक हमारे देश में डाटा सुरक्षा अथवा गोपनीयता  के विषय में कोई लंबा-चौड़ा कानून नहीं है।

‘आधार’ जैसी दूरगामी परिकल्पना को साकार करने के लिए जोरदार सुरक्षा खूबियों के साथ-साथ सावधानीपूर्वक तैयार किए हुए डिजाइन, पायलट परियोजनाओं, परीक्षण एवं प्रमाणीकरण की जरूरत होगी। यदि इस प्रकार की शर्तों को हटा देने के बावजूद ‘आधार’ संख्या को वैधानिक रूप में अनिवार्य कर दिया जाता है तो इससे सरकार को व्यापक जासूसी प्रणाली खड़ी करने की शक्ति और उपकरण मिल जाएंगे। तब सरकारी व्यवस्था बिल्कुल वैसी ही होगी जैसी परिकल्पना प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवैल ने अपनी पुस्तकों में की थी।


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