सुप्रीम कोर्ट की गरिमा बढ़ाएगा पुनर्विचार याचिका संबंधी ‘फैसला’

punjabkesari.in Saturday, Apr 20, 2019 - 04:43 AM (IST)

भारत की सबसे बड़ी अदालत के हाल के दो फैसलों ने न केवल इस संस्था की गरिमा बढ़ाई है, बल्कि जनविश्वास को और पुख्ता किया है। वकालत की दुनिया की एक मशहूर कहावत है कि सुप्रीम कोर्ट अंतिम सत्य इसलिए नहीं है कि वह त्रुटिहीन/दोषरहित है, बल्कि इसलिए कि वह अंतिम सत्य है जिसके बाद कोई और सत्य बताने का जरिया ही नहीं है, लेकिन अपने दो महत्वपूर्ण फैसलों पर पुनर्विचार याचिका को स्वीकार करते हुए उसने यह साबित किया कि उससे भी गलती हो सकती है और वह उस संभावित गलती के सुधार के प्रति संजीदा भी है। 

राफेल डील और सबरीमाला मंदिर मामले में पुनर्विचार याचिका स्वीकार करते हुए इस सर्वोच्च अदालत ने यह भी सिद्ध कर दिया कि हर संस्था से गलती हो सकती है क्योंकि उसे मानव ही चलाता है पर समाज का नुक्सान तब ज्यादा होता है जब वह इस डर से कि उसकी त्रुटिविहीनता वाली इमेज पर आंच आएगी, गलतियों (अगर होने की रंचमात्र भी आशंका है) को सुधारने का भाव स्वीकार नहीं करता। राफेल डील में मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से मोदी सरकार को क्लीनचिट दे दी थी। दस्तावेजों, प्रक्रियाओं और प्राथमिकताओं को गहराई से समझने के बाद यह कहा जा सकता है कि राफेल डील में कुछ भी गलत नहीं हुआ, अदालत ने कहा था। 

हमारा देश रक्षा के मामले में और खासकर लड़ाकू विमानों को लेकर बगैर तैयारी के रहना गवारा नहीं कर सकता। सैन्य तैयारी सुनिश्चित करना (सरकार का) कत्र्तव्य है-  हमने कीमत, प्रतिस्पर्धी कीमत, पूर्व की कीमत और नए परिवर्तित मूल्य और साजो-सामान का गहराई से अध्ययन किया। दस्तावेजों के आधार पर यह स्पष्ट है कि यह मामला किसी वाणिज्यिक लेन-देन का नहीं है क्योंकि ऑफसैट के लिए कौन-सी कम्पनी  रहे, इसका चुनाव सरकार नहीं करती। ...किसी का व्यक्तिगत दृष्टिकोण जांच करने का आधार नहीं हो सकता। ...अदालत कोई अपीलेट प्राधिकरण नहीं है कि हर बात पर फैसला दे। 

यह अंश भी राफेल डील पर सर्वोच्च न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ द्वारा 14 दिसम्बर को दिए फैसले का है जिसके बाद लगा कि इसके पश्चात भी कुछ कहना बाकी नहीं रहता, लेकिन इस फैसले के बाद सी.ए.जी. की रिपोर्ट आती है और उसमें ऐसा लगा कि सरकार रक्षा और राष्ट्रीय हित बता कर इस संस्था से भी अनुरोध कर रही है कि खरीद-फरोख्त के सारे तथ्य रिपोर्ट में न रखे जाएं। इस कार्यालय ने रक्षा मंत्रालय को दिनांक 5 फरवरी, 2019 को एक पत्र लिख कर कहा कि सी.ए.जी. इस राय पर अपनी अनिच्छा व्यक्त करते हैं और इसे खारिज करते हैं कि कीमतों के बारे में रिपोर्ट में कोई काट-छांट की जाए। यह कभी नहीं हुआ और इससे रिपोर्ट बेमानी हो जाएगी। 

दिनांक 6 फरवरी, 2019 को रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने पुरजोर तरीके से एक पत्र में कहा कि किसी भी तरह मध्यम बहु-भूमिका युद्धक विमान (एम.एम.आर.सी.ए) यानी राफेल और उस पर रखे गए आयुध के वाणिज्यिक पहलू की चर्चा इस रिपोर्ट में न आए। लिहाजा उनकी मांग के तहत हमने इस पर कोई चर्चा नहीं की। आखिरकार हमने यह मान लिया और तत्संबंधित सारे तथ्य इस रिपोर्ट में नहीं रखे हैं। लेकिन हाल में जब एक अखबार ने सरकार के हिसाब से अति गुप्त दस्तावेज प्रकाशित कर दिए तो सुप्रीम कोर्ट भी चौंका। यहां दो सवाल पैदा होते हैं। अगर ये अति गुप्त दस्तावेज थे जिनके प्रकट होने से राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा था तो मीडिया को मिले कैसे? क्या सरकार सुरक्षा करने में अक्षम है? और दूसरा ये दस्तावेज सुप्रीम कोर्ट को क्यों नहीं सौंपे गए थे? 

सरकार की खोखली दलील
अब जरा सरकार की सुप्रीम कोर्ट से पुनॢवचार याचिका पर विचार न किए जाने की खोखली दलील सुनिए। पहले कहा गया कि ये दस्तावेज चोरी किए गए लेकिन जब सरकार से पूछा गया कि चोरी का मुकद्दमा क्यों नहीं दर्ज कराया गया तो सरकार ने पल्टी मारी और कहा, ‘‘नहीं’’ चोरी नहीं किए गए बल्कि फोटो कॉपी ली गई जो कि ऑफिशियिल सीक्रेट एक्ट और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 के तहत बाधित है और अदालत भी इसका संज्ञान नहीं ले सकती। 

सरकार ने यह भी कहा कि सूचना का अधिकार कानून की धारा 8 (1) (अ) के तहत राष्ट्रीय संप्रभुता, अखंडता और रणनीति के बारे में किसी भी जानकारी के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता। सरकार के अटॉर्नी जनरल की दोनों दलीलें इतनी लचर थीं कि स्वयं अदालत ने उन्हें सूचना  का अधिकार कानून की धारा 22 की याद दिलाई जिसके तहत ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट का प्रभाव खत्म हो चुका है। दूसरा, इस अदालत ने इसी कानून की धारा 24 का हवाला देते हुए बताया कि भ्रष्टाचार और मानवाधिकार के मामले में सुरक्षा और खुफिया विभाग की जानकारी जनता हासिल कर सकती है यानी सरकार की सारी दलीलें लचर साबित हुईं।

यही कारण है कि सर्वोच्च अदालत ने नए तथ्यों को ध्यान में रखते हुए पुनॢवचार याचिका स्वीकार की। पुनॢवचार याचिका दायर करने वालों में प्रमुख अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा की ओर से यह कहा गया है कि अदालत चाहे तो वे दस्तावेजों का पुलिंदा प्रस्तुत कर सकते हैं जिनसे राफेल डील में सरकार कटघरे में होगी। सुप्रीम कोर्ट ने भी यह माना कि सूचना का प्रवाह अगर सत्य को उजागर करता है तो वह सर्वोपरि है और यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह साक्ष्य कैसे हासिल किया गया है? 

सबरीमाला के मामले में 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने 4-1 से हुए फैसले  में सदियों पुरानी प्रथा बंद करवाते हुए हर उम्र की महिलाओं को केरल स्थित इस मंदिर में पूजा-अर्चना की इजाजत दी थी। इस फैसले के आधार के रूप में संविधान पीठ ने फैसले करने वाले न्यायाधीशों के लिए एक  नया सिद्धांत प्रतिपादित किया था (या संज्ञान में लिया था) संवैधानिक नैतिकता का सिद्धांत। इसको लेकर सरकार में शंकाएं बढ़ीं और अटॉर्नी जनरल ने अपने सार्वजनिक भाषण में इसे जजों का अपनी शक्ति बढ़ाने वाला बताया था। 

दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट को एक बार फिर अपने को तोलने का मौका आया जब पुणे के एक याचिकाकत्र्ता ने प्रार्थना की कि सबरीमाला फैसले के आलोक में अदालत मुस्लिम महिलाओं का मस्जिद में नमाज पढऩा भी आदेशित करे। जाहिर है कि अगर जजों को संवैधानिक नैतिकता के आधार पर सदियों पुरानी आस्था को बदलना उचित लगा तो उसी आधार पर मस्जिद में महिलाओं का नमाज पढऩा भी वैध होना चाहिए। बहरहाल इन दोनों पुनॢवचार याचिकाओं पर फैसला जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट की गरिमा व जन-विश्वास और बढ़ेगा।-एन.के. सिंह


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