किताबों द्वारा बड़ी अच्छी तरह से बताई गई कहानियां

punjabkesari.in Friday, Sep 10, 2021 - 03:37 AM (IST)

वह लड़की जो छठे माले पर रहती है, जिस पर मैं रहता हूं उससे एक माला ऊपर, एक जानी-पहचानी लेखिका बनने वाली है। उसकी प्रतिभा का खुलासा एक पुस्तक में हुआ है जिसे मैंने अभी पढ़ा और उसका पूरा मजा उठाया। वह एक सम्मानित जूनियर सहयोगी की बेटी है जो लगभग 10-12 वर्ष पूर्व अपने पद से सेवानिवृत्त होने के शीघ्र बाद अपने मालिकाना फ्लैट में स्थानांतरित हो गया था। 

सौम्या रॉय अनामी रॉय की दो बेटियों में से बड़ी है, दोनों ही लड़कियां मनमोहक, समझदार तथा उस प्रत्येक चीज पर पूरी तरह से केन्द्रित होती हैं जो उनकी रूचि की हो। पत्रकारिता में हाथ आजमाने के बाद सौम्या ने सामाजिक उद्यम का रास्ता पकड़ा जिसमें उसके पिता सांझीदार हैं, एक गैर-लाभकारी कम्पनी जो गरीबी में रह रहे, छोटे व्यवसाय करते जैसे कि निजी टैक्सियां चलाना, रेहड़ी पर सब्जियां तथा फल बेचना, कचरा बीनना अथवा मुम्बई का लोकप्रिय स्ट्रीट फूड ‘वड़ा पाव’ बेच कर अपनी आजीविका कमाते हैं, को छोटे-छोटे ऋण देना। 

प्रत्येक सुबह पिता तथा बेटी अपने कार्यस्थल की ओर निकलते हैं जहां से सौम्या अपने ग्राहकों से मिलने के लिए उनके काम करने के स्थानों पर पहुंच जाती है। उसकी पुस्तक ‘कास्ट अवे माऊंटेन’ मुम्बई के सबसे बेहतर संभाले रहस्य की कहानी है, शहर के सॉलिड वेस्ट के निपटान की, जिसे प्रत्येक सुबह नगर निगम के ट्रकों द्वारा उठाया जाता है और मुम्बई के पूर्वी उप नगर देवनार में कचरे के पहाड़ पर उंडेल देेते हैं। 

1982 से 1985 तक शहर के पुलिस आयुक्त के तौर पर मैं अपने मित्र दत्ता सुखतांकर, जो उस समय निगम आयुक्त थे, के साथ उन कचरे के पहाड़ों के साथ उग आई अवैध बस्तियों को गिराने के व्यापक अभियान पर जाता था। यह झोंपडिय़ां शहर के कचरे को इकट्ठा करने के लिए किराए पर लिए गए ट्रकों की आवाजाही में रुकावट बनती थीं और सबसे महत्वपूर्ण उनमें रहने वाले लोगों को हर तरह की बीमारियों का जोखिम रहता था जिनमें से मुख्य रूप से तपेदिक थी।

मुझे नहीं पता था कि कचरा बीनने वालों के सभी परिवार अपनी आजीविका के लिए किसी अन्य स्थायी स्रोत के अभाव में उन स्थानों पर वापस लौट आते थे। सौम्या ने अपनी पुस्तक में इस बात का खुलासा किया। गगनचुंबी इमारतों में रहने वाले लोगों की विलासितापूर्ण चीजें आखिरकार देवनार स्थित कचरे के पहाड़ की ओर अपना रास्ता बनाती थीं जहां सुबह से लेकर शाम तक कचरा बीनने वालों की फौज उनका इंतजार करती थी ताकि प्लास्टिक, कांच तथा धातुएं बीन कर उन्हें दलालों को बेच सके जो आगे उन्हें उन लोगों को बेच देते थे जो ऐसी वस्तुओं को रिसाइकिल करते। 

कभी-कभार बीनने वालों को कचरे में कोई कीमती वस्तु मिल जाती है जिससे उन्हें सामान्य से अधिक धन मिल जाता है। वे सारा दिन ऐसी तलाश में रहते हैं। खोजने वाले की किस्मत उस छोटे ‘नगर’ में एक ‘ब्रेकिंग न्यूज’ बन जाती है। ऐसी चीजें खोजने वाला उस दिन के लिए अथवा यदि वह कोई ऐसी चीज खोज लेता है जो वास्तव में असामान्य हो जैसे कि बिना जांचे लापरवाही से फैंका गया कोई बटुआ जिसमें काफी संख्या में रुपए हों, उस दिन के लिए या आगे काफी दिनों के लिए खोजकत्र्ता एक सैलिब्रिटी बन जाता है। 

ऐसे बीनने वाले अधिकतर गरीब मुसलमान हैं। चूंकि महिलाएं अनपढ़ या जल्दी ही स्कूल छोड़ देने वाली होती हैं परिवारों का औसत आकार बड़ा होता है, बहुत बड़ा। सौम्या ने ऐसे ही एक परिवार के बारे में दयालुता तथा समझदारीपूर्वक लिखा है। डम्प किए गए कचरे में लगातार सुलगती आग के कारण उससे मीलों आसपास रहने वाले लोगों की सेहत के लिए बड़ा खतरा बना रहता है। 

सौम्या की कहानी ने मुझे एक और कारण से भी द्रवित किया। इस सच्ची कहानी में केंद्रीय किरदार फरजाना शेख के साथ उस समय दुर्घटना हो गई जब वह पहाड़ पर कचरा बीन रही थी। वह नदीम नामक एक लड़के के एकतरफा प्रेम का आकर्षण थी जो एक अन्य कचरा बीनने वाला था और उससे अधिक बड़ा नहीं था। कई महीनों तक नगर निगम के अस्पताल में उसके रहने के दौरान नदीम लगातार उसके साथ रहा तथा उसकी टूटी हड्डियों को जोडऩे के लिए कई बार सर्जरियां करनी पड़ीं। लड़की के ठीक होने के बाद उसने उसके साथ शादी कर ली और अब उनके दो बच्चे हैं। यह एक सच्ची प्रेम कहानी है। सौम्या के लिखे हुए शब्दों की ताकत यही बयान करती है। 

एक अन्य पुस्तक जो मैंने हाल ही में पढ़ी ‘आप्रेशन ट्रोजन हॉर्स’ थी जो एक काल्पनिक कथानक था, की कैसे 5 युवा स्वयं सेवी, जिनमें से दो केरल से, एक चेन्नई तथा दो मेरे अपने शहर मुम्बई से थे, की हमारी खुफिया एजैंसियों ने पाकिस्तान के लश्कर-ए-तोयबा की घुसपैठ करवा दी जिससे एल.ई.टी. के जेहादियों द्वारा किए जाने वाले कुछ आत्मघाती बम हमलों को नाकाम कर दिया गया। पुस्तक के सह लेखक 1979 बैच के एक आई.पी.एस. अधिकारी बी.पी. सिन्हा हैं जिन्होंने अपने सक्रिय सेवाकाल का प्रमुख हिस्सा आतंकवाद विरोधी आप्रेशन्स में गुजारा है। आमतौर पर ऐसे कार्य बारे बात नहीं की जाती तथा ऐसा होना भी चाहिए। 

मगर कुछ ऐसे अघोषित सेवा सहयोगियों के नि:स्वार्थ कार्य का निजी लाभार्थी होने के कारण मैं डी.पी. सिन्हा  तथा उनके जैसे अन्य कइयों को सलाम करता हूं जिनकी पहचान मैं मानता हूं कि कोई चीज नहीं है। दरअसल मैं उन आप्रेटिव्ज का निजी तौर पर धन्यवाद करना चाहूंगा जिन्होंने खालिस्तानी इकाई में ‘ट्रोजन हॉर्स’ प्लांट किया। जो ज्यूरिख से संचालित हो रहा था तथा 1981 में मेरी हत्या करने के लिए एक अभियान के तौर पर बुखारेस्ट भेजा गया था। 

यदि मेरे जीवन पर खतरे को लेकर  कुछ दिन पहले संभावित हमलावरों के बारे मुझे महत्वपूर्ण सूचना नहीं पहुंचाई गई होती तो निश्चित तौर पर  मैं इस दुनिया में नहीं होता।-जूलियो रिबैरो
(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी) 

 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News