सोशल मीडिया के विभिन्न विचारों से समाज टुकड़ों में नहीं बंटना चाहिए

punjabkesari.in Monday, Jan 08, 2018 - 03:19 AM (IST)

हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा भी एक बुद्धिजीवी हैं जिनका पूरी दुनिया सम्मान करती है। 

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यदि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि दोनों ही विफल नेता हैं-जैसी कि मनमोहन सिंह के मामले में करिश्मे की या व्यक्तिगत शक्ति की कमी के कारण या फिर ओबामा के मामले में नस्ली अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित होने के कारण। दोनों ही बहुत प्रतिभावान व्यक्ति हैं और बेशक वह अक्सर दूसरे नेताओं के बराबर भाषणबाजी नहीं करते। फिर भी जब भी वह बोलते हैं तो उन्हें सुनना अटल तौर पर लाभप्रद ही होता है। 

कुछ दिन पूर्व ओबामा ने ब्रिटेन के राज कुमार हैरी को बहुत गजब का साक्षात्कार दिया। इस साक्षात्कार में वह सोशल मीडिया और आधुनिक दुनिया पर इसके प्रभाव के कुछ आयामों के बारे में बोले। ओबामा ने यह स्वीकार किया कि सोशल मीडिया सांझे हितों वाले लोगों के लिए किसी प्रकार के आयोजन करने व एक-दूसरे के बारे में जानने तथा उनसे सम्पर्क साधने का बहुत सशक्त उपकरण है। यह कह चुकने के बाद उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘सोशल मीडिया तक पहुंच उपलब्ध होने के बाद उनका ऑनलाइन होना, किसी पब में मिलना,किसी पूजा स्थल में मिलना या किसी आस-पड़ोस में एक-दूसरे के सम्पर्क में आना और उन्हें बेहतर ढंग से जानना जरूरी है।’’ 

उन्होंने कहा : ‘‘ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि इंटरनैट पर जो कुछ भी प्रस्तुत किया जाता है उसका जरूरत से अधिक सरलीकरण किया गया होता है और जब आप आमने-सामने किसी से मिलते हैं तो पता चलता है कि बातें कितनी जटिल होती हैं। इंटरनैट के खतरों में से एक यह है कि लोग वास्तव में जो होते हैं उससे बिल्कुल अलग पहचान बना सकते हैं। वह उसी जानकारी के खोल में सिमट कर रह जाते हैं जो उनकी वर्तमान कुंठाओं को पुख्ता करती हो।’’ मेरा मानना है कि जिस ढंग से हम इंटरनैट का प्रयोग करते हैं ओबामा ने उसके संबंध में कुछ पते की बातें पकड़ी हैं। व्यक्तिगत रूप में मैं सोशल मीडिया पर नहीं हूं क्योंकि मुझे लगता है कि यह हमारी एकाग्रता को बहुत हद तक भटकाता है। फिर भी जब मैं ऑनलाइन आलेखों के नीचे दिए गए कमैंट खंड पर दृष्टिपात करता हूं तो निराश हो जाता हूं। इसमें जितनी भारी मात्रा में अभद्र भाषा, गुस्से और नीचता का प्रयोग किया जाता है वह किसी को भी इससे दूर भगाने के लिए काफी है। 

फिर भी सच्चाई यह है कि हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में धूर्तता इस स्तर तक नहीं होती। आमने-सामने होकर भी लोग राजनीति और धर्म के बारे में वाद-विवाद करते हैं लेकिन इसका अंत गाली-गलौच और तोहमतबाजी में नहीं होता। इंटरनैट पर जो गोपनीयता उपलब्ध है उसी के कारण ही लोगों को अनाप-शनाप बोलने की हल्ला शेरी मिलती है। व्यक्तिगत जीवन में हम काफी संतुलित व्यवहार करते हैं क्योंकि हमें पता होता है कि दूसरे हमें देख रहे हैं। 

वैसे ओबामा ने जो दूसरा ङ्क्षबदू उठाया है कि इंटरनैट पर हम तब तक दूसरे व्यक्ति के विचारों के संग्राहक नहीं बनते जब तक हम विशेष रूप में उसे तलाश नहीं कर लेते। वास्तविक जीवन में हम किसी के साथ विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तो हमें दूसरे के विचार अवश्य ही सुनने पड़ते हैं जिससे हमारी कुंठाएं और खुद को सही मानने की प्रवृत्ति कुछ हद तक मंद पड़ जाती है। ओबामा ने इस संबंध में कुछ गहराई तक दृष्टिपात करवाया है। पहली बात उन्होंने यह कही है कि अपने काम के माध्यम से बदलाव लाने का सपना लेकर चले एक्टिविस्टों और राजनीतिज्ञों के लिए इंटरनैट की दुनिया से बाहर लोगों के संवाद रचाना और मिलना-जुलना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। 

कुछ सप्ताह पूर्व जिग्नेश मेवाणी मेरे वहां आए जहां मैं काम करता हूं और अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपने दृष्टिकोण के बारे में बोले। जब उनसे चुनावी राजनीति के बारे में सवाल पूछे गए तो उन्होंने कहा कि यह कोई अल्पकालिक लक्ष्य नहीं लेकिन चुनावी जीत एक ऐसी बात थी जिसके बारे में उसने सोचा था कि यह अभी 10-15 वर्ष ठहर कर हासिल होंगे। मैं निश्चय से नहीं कह सकता कि क्या वह इस तथ्य से अवगत थे कि कुछ दिन बाद वह भारत के सबसे अधिक विभाजित प्रदेश में एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में आसानी से जीत जाएंगे। ऐसा कैसे सम्भव हुआ, खास तौर पर ऐसा तब सम्भव हुआ जब विशेष रूप में दो पार्टियों के मुकाबले वाले इस राज्य में उनके पास एक चुनावी चिन्ह का भी लाभ नहीं था और उन्हें केवल अपनी व्यक्तिगत विश्वसनीयता पर ही भरोसा करना पड़ा? मुझे यूं लगता है कि ऐसा होने का यह कारण था कि तेज-तर्रार और दूसरों को अपनी बातचीत से कायल कर लेने वाले मेवाणी ने व्यक्तिगत रूप में हजारों-लाखों लोगों से संवाद रचाया था। 

इसी प्रकार मेरे जैसे मानवाधिकार कार्यकत्र्ता के लिए भी यह जरूरी है कि अधिक से अधिक लोगों के साथ सजीव रूप में संवाद रचाऊं। मैं ऐसा विशेष तौर पर इसलिए कह रहा हूं कि एक्टिविज्म की दुनिया में मुख्य फोकस सोशल मीडिया पर होता है क्योंकि लोगों की अधिक से अधिक संख्या तक पहुंच पाने के लिए यही सबसे प्रभावी तरीका है लेकिन जैसा कि ओबामा ने संज्ञान लिया है इसने कृत्रिम ढंग से लोगों का ध्रुवीकरण भी कर दिया है। यदि कोई मुस्लिमों, दलितों, आदिवासियों, कश्मीरियों तथा पूर्वोत्तर के लोगों जैसे हाशिए पर धकेले हुए समूहों के अधिकारों के लिए काम करता है तो सबसे पहली और आसान प्रतिक्रिया होती है कि आम नागरिकों ंकी तुलना में सरकार और सेना के अधिकारों का झंडा बुलंद रखा जाए। यह भ्रामक अवधारणा सबसे आसान ढंग से इंटरनैट पर ही जीवन दान हासिल करती है। जब कोई आपके सामने मौजूद हो तो उसकी ङ्क्षचताओं को दरकिनार करना आसान नहीं होता। 

और अंत में ओबामा की अंतरदृष्टि हमें यह बताती है कि हमें यथास्थितियों को देखकर भी कभी उम्मीद नहीं खोनी चाहिए लेकिन मैं अक्सर ऐसा कर बैठता हूं। हम कहते हुए अपनी बात समाप्त करेंगे कि ओबामा के कहने का तात्पर्य यह नहीं कि सोशल मीडिया सिरे से बेकार और घटिया है। सवाल यह है कि सोशल मीडिया की टैक्नोलॉजी को किस प्रकार से प्रयुक्त किया जाए कि भांति-भांति के विचारों और आवाजों को भी लोग सुनें लेकिन इसके फलस्वरूप समाज टुकड़ों में नहीं बंटना चाहिए और हमारे पास सांझी जगह तलाश करने  की गुंजाइश होनी चाहिए। ये शब्द काफी सख्त और कड़वे हैं लेकिन 2018 जैसे महत्वपूर्ण वर्ष में हमें इनका स्मरण रखना ही होगा।-आकार पटेल


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News