सोशल मीडिया : कृपया इस समय तो झूठ मत फैलाएं

punjabkesari.in Friday, Apr 30, 2021 - 03:33 AM (IST)

कोरोनाकाल में पूरा देश कई मोर्चों पर लड़ रहा है। ये सभी मोर्चे वायरस के खिलाफ और उसके बाद की स्थितियों, परिवार के हाल पर हैं। यह जंग सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं है। अब यह गांव-देहात तक पहुंच रही है और दिन-ब-दिन सघन होती जा रही है और कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब कोई अपना, परिचित या साथ काम करने वाला इसका शिकार न हो रहा हो। 

इस लड़ाई में सोशल मीडिया एक बड़ा हथियार है। यूं तो सोशल मीडिया का इस्तेमाल पहले भी कटघरे मेंं रहा है। यह माना जाता रहा है कि जब तक वह मनोरंजन या सूचना देने के लिए काम करता है, तब तक तो ठीक है लेकिन जैसे ही प्रोपेगंडा में उसका इस्तेमाल होता है, वह चाकू की जगह तलवार का रूप ले लेता है और फायदे की जगह नुक्सान ज्यादा करता है, व्यक्ति का भी और समाज का भी। यह दोधारी तलवार है। स्मार्ट फोन की वजह से इसकी पहुंच सीधे देश की काफी बड़ी आबादी तक है। 

सर्वाधिक चॢचत फेसबुक में ही देश की 32 करोड़ (विश्व में सर्वाधिक और अमरीका से लगभग दोगुनी) से ज्यादा की आबादी लगी रहती है और यह औसतन दो घंटा चालीस मिनट तक प्रतिदिन लगा रहता है। (जापान में यह औसत 45 मिनट का है)  इसमें चुटकुलेबाजी से लेकर टांग ङ्क्षखचाई तक शामिल रहती है। 25 से 35 तक की उम्र वाले लोग ही इसके बड़े ग्राहक हैं। ये 77 फीसदी से ज्यादा हैं। इसकी तुलना में ट्विटर का उपयोग दो करोड़ से भी कम (एक करोड़ अस्सी लाख लोग) करते हैं अपने देश में। 

लेकिन कोरोना काल मेंं इस सोशल मीडिया ने लोगों की सहायता करने में अद्भुत काम किया है। लोग फेसबुक पर समूह बनाकर जरूरतमंदों की मदद कर रहे हैं। यह मदद खाना पहुंचाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि पीड़ितोंं को उनकी जरूरत के अनुसार सामान पहुंचाने का भी काम कर रही है। ट्विटर के हैशटैग के जरिए गंभीर मरीजों के परिजनों की गुहार संबंधित अधिकारियों और मददगारों तक मिनटों में पहुंचाने का काम हो रहा है।

हैशटैग एक ऐसा टूल हो गया है जो सबसे ज्यादा उपयोगी साबित हो रहा है। अस्पताल में भर्ती होने से लेकर जरूरी दवा, ऑक्सीजन कहां और कैसे मिलेगी, सब सांझा किया जा रहा है। मगर इस कोरोना काल में सोशल मीडिया का एक ऐसा रूप भी सामने आ रहा है, जो वायरस से भी तेज संक्रामक और खतरनाक है।

कुछ बुरे लोगों के लिए यह अफवाह फैलाने का जाने-अनजाने में सुलभ साधन हो गया है। घृणा फैलाने का जरिया बन गया है। झूठ को प्रचारित करने का औजार हो गया है। एक पूरी मशीनरी यह साबित करने में लग गई है कि यह सब कुछ जानबूझ कर किया जा रहा है। यह सब मानते हैं कि हालात से ठीक से न निपट पाने मेंं सरकारें अपना कत्र्तव्य पूरी तरह से नहीं निभा पाईं। पर पुराने और उलटे-सीधे भाषणों को फारवर्ड करने में इन लोगों की एजैंसी ऐसे लग गई कि जैसे देश में अब विपरीत हालातों से निपटने की क्षमता ही नहीं रही। 

नागपुर के एक बुजुर्ग सज्जन ने अपने से कम उम्र के युवा के लिए अस्पताल का बिस्तर छोड़ दिया तो उस पर भी सवाल उठाए जाने लगे। कोरोना से पीड़ित होने के बाद एक स्वस्थ होकर घर लौटी बच्ची की खबर इस झूठ के साथ सोशल मीडिया पर वायरल की गई कि अपनी गुल्लक तोड़कर प्रधानमंत्री केयर फंड में दान देने वाली बच्ची की मौत हो गई, जबकि गाजियाबाद की यह बच्ची स्वस्थ होकर अपने घर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही है। दिक्कत तब होती है जब समाज के प्रतिष्ठित लोग भी ऐसी खबरों के झांसे में आ जाते हैं। वे इन्हें रिट्वीट, फारवर्ड और शेयर कर देते हैं। आए दिन किसी न किसी सैलीब्रिटी की मौत की झूठी खबर सोशल मीडिया पर वायरल कर दी जाती है। 

हाल ही में बुद्धिजीवी राजनेता माने जाते शशि थरूर भी एक ऐसी ही झूठी खबर के झांसे में फंस गए थे। उन्होंने पूर्व लोकसभा स्पीकर रहीं सुमित्रा महाजन की मौत की झूठी खबर ट्वीट कर दी थी। बाद में उन्होंने ट्वीट डिलीट कर माफी भी मांगी। अगर बुद्धिजीवियों का यह हाल है तो आम लोगों का भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक झूठ उन्हें अपने जाल में किस आसानी से फंसा सकता है। कुछ झूठ समाज में गुस्सा और आक्रोश बढ़ाने के लिए जानबूझकर वायरल किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह चलन महामारी के दौर में ही शुरू हुआ है। धर्म और जाति को लेकर समाज में ऐसे झूठ फैलाकर अशांति पैदा करने की कोशिश की जाती रही है, मगर हम सबक नहीं लेते। संकट और आपदाकाल में भी हमारे अंदर कोई सुधार नहीं। 

कोरोना से निपटने के आत्मघाती नुस्खों की सोशल मीडिया पर भरमार है। जिस वायरस के पूरे मायाजाल को दो साल में वैज्ञानिक पूरी तरह नहीं जान पाए हैं, उससे निपटने का फार्मूला सोशल मीडिया के वीर बहादुर चने की तरह बांट रहे हैं। ऐसा वायरस जिसका जीनोम डाटा तीन हजार के आसपास जीन का है और कौन-सा जीन कब बदल जाए कोई नहीं बता सकता, उसके इलाज के आयुर्वैदिक और हो योपैथिक नुस्खे सैंकड़ों की सं या में सोशल मीडिया पर वायरल किए जा रहे हैं। 

कोई तो सेंधा नमक और प्याज से ही कोरोना के पूरा उपचार करने का ज्ञान दे रहा है। प्याज फायदेमंद हो सकता  है, इसमें दो राय नहीं लेकिन इससे  वायरस की इतिश्री हो जाएगी, यह समझना ही आश्चर्यजनक लगता है। ऑक्सीजन की कमी दूर करने के तो ऐसे ऐसे नुस्खे बताए जा रहे हैं जो किसी मरीज के लिए जानलेवा भी हो सकते हैं। कुछ क पनियां इसे अपनी अस्थमा और सांस संबंधी बीमारी की दवाओं को  बेचने का सुनहरा मौका मान रही हैं।

सोशल मीडिया पर एक हो योपैथिक दवा ऐसी भी बताई जा रही है, जिसे मरीज के बिस्तर पर छिड़कने से मरीज को ऑक्सीजन की कमी नहीं रहती। ऐसी ही एक अन्य दवा की बात कही जा रही है, जिसका संबंध अमरीकी महाद्वीप में पाए जाने वाले एक खास वृक्ष से है। इस दवा को भी सोशल मीडिया पर ऑक्सीजन लैवल सुधारने वाला बताया जा रहा है, जबकि इसके कई गंभीर साइड इफैक्ट्स भी हैं। इस दवा के बारे में स्पष्ट निर्देश हैं कि इसे चिकित्सक के परामर्श के बिना नहीं लिया जा सकता। 

इसी तरह कपूर के भी कुछ दुष्प्रभाव होते हैं। खासकर इसके रक्त में या लिवर तक पहुंचने पर। मगर कपूर और अजवाइन की पोटली सूंघकर ऑक्सीजन लैवल बढ़ाने की सलाह सोशल मीडिया के हर तीसमार खां के हैंडल और पेज पर दिख जाएगी।

पीपल से लेकर चायपत्ती तक से ये लोग कोरोना के इलाज का ऐसे दावा कर रहे हैं कि जैसे वर्षों से कोरोना पर ही रिसर्च कर रहे थे।जब पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरी दुनिया के विशेषज्ञों और दवा निर्माताओं से कोरोना से संबंधित दवा प्रोटोकॉल में अपनी दवाएं अनुसंधान के लिए शामिल कराने का आह्वान किया था, तब इनमें से ज्यादातर  क पनियों ने वहां अपनी इन दवाओं का प्रैजैंटेशन तक नहीं भेजा। अन्य की तरह इन दवाओं पर भी परीक्षण होता और इनका सच सामने आ जाता। मगर परीक्षा की कसौटी पर कौन बैठे, जब सोशल मीडिया पर झूठ के जरिए ही मुनाफाखोर का मौका मिल रहा हो। 

जो देश, जो समाज महामारी के संकट से गुजर रहा हो, उसके नागरिकों को संकटकाल में अपने आचरण पर ध्यान देना चाहिए। जब हर  जगह  मौत और मातम हो, अनगिनत लाशें हों तो गिद्ध की तरह लाभ लेने के लिए गिरी सोच के साथ ऊंचा उडऩा ठीक नहीं। इस बुरे दौर में सोशल मीडिया का इस्तेमाल मानवता की भलाई के लिए ही होना चाहिए। कालाबाजारी, घृणा और झूठ फैलाने के लिए नहीं।-


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