देखें, किस करवट बैठेगा कर्नाटक चुनाव का ऊंट

punjabkesari.in Tuesday, May 08, 2018 - 02:54 AM (IST)

कर्नाटक में चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा, यह कहना सचमुच बहुत मुश्किल होता जा रहा है। कांग्रेस ने अपने चुनावी चरम को पहले ही पा लिया था और भाजपा चुनावी चरम पर पहुंच रही है। अभी तक के तमाम सर्वेक्षणों का औसत बता रहा है कि कांग्रेस को 94 और भाजपा को 86 सीटें मिल सकती हैं। 

ऐसे में कुछ का कहना है कि कांग्रेस चुनाव जीतेगी लेकिन भाजपा की सरकार बनेगी। कुछ का कहना है कि त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार येद्दियुरप्पा दोनों को झटका लग सकता है। यहां देवेगौड़ा तय करेंगे कि वह जिस भी दल का समर्थन करेंगे उसका मुख्यमंत्री कौन होगा। देवेगौड़ा सिद्धारमैया और येद्दियुरप्पा दोनों को ही नापसंद करते हैं। 

सबसे बड़ा सवाल है कि राज्यपाल सबसे बड़े दल को क्या सरकार बनाने का पहला मौका देंगे या फिर विधायकों की सूची मांगेंगे? वैसे हैरानी की बात है कि कर्नाटक के ही एक पूर्व मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सदन में बहुमत साबित करने के निर्देश दिए थे और तभी से आमतौर पर राज्यपाल इन निर्देशों का पालन करते हुए सबसे बड़े दल को न्यौता दे सदन में बहुमत साबित करने का मौका देते रहे हैं। हाल में गोवा, मेघालय, मणिपुर में जरूर सबसे बड़े दल की बजाय चुनाव के बाद या यूं कहा जाए कि चुनाव परिणाम के बाद के गठबंधन को मौका दिया गया। 

कर्नाटक की जनता की दो खासियतें हैं। एक-जनता हर 5 साल बाद सरकार बदल देती है। यह सिलसिला 1985 से चल रहा है। दो-जनता जिस दल को राज्य में मौका देती है उस दल को लोकसभा चुनाव में कम सीटें देती है। 2013 में कर्नाटक की जनता ने राज्य में कांग्रेस की सरकार बनवाई लेकिन अगले ही साल यानी 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में 28 में से 17 सीटें भाजपा की झोली में डाल दीं जिसे विधानसभा चुनावों में सिर्फ  40 सीटों पर निपटा दिया था। अगर कर्नाटक में जनता इस बार उसी परम्परा को निभाती है तो भाजपा और कांग्रेस के पास खुश होने और गमगीन होने के कारण होंगे। 

भाजपा विधानसभा चुनाव जीती तो उसे लोकसभा चुनाव 2019 में सीटें कम होने के अंदेशे से गुजरना होगा। (वैसे भी यह माना जा रहा है कि भाजपा की 2014 के मुकाबले लोकसभा सीटें कम होंगी और भरपाई की ङ्क्षचता उसे करनी होगी) उधर अगर कांग्रेस कर्नाटक में हारी तो वह अंदर ही अंदर इस बात को लेकर खुश हो सकती है कि लोकसभा चुनाव में उसकी सीटों की संख्या कर्नाटक में 9 से बढ़ सकती है। वैसे राज्य जाने का दुख कांग्रेस को ज्यादा रहेगा और वह पंजाब तथा पुड्डुचेरी तक ही सिमट कर रह जाएगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो अभी से पी.पी.पी. कहने लगे हैं यानी पंजाब, पुड्डुचेरी और परिवार। 

कुछ सीधे-सीधे कह रहे हैं कि जो दल कर्नाटक में जीतता है वह अगले साल होने वाला लोकसभा चुनाव ही हार जाता है। 2008 में भाजपा ने कर्नाटक में सरकार बनाई थी और 2009 का लोकसभा चुनाव हार गई थी। 2013 में कांग्रेस ने कर्नाटक में सरकार बनाई लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव में निपट गई। तो इस हिसाब से देखा जाए तो 2018 में कर्नाटक जीतने वाले को 2019 में लोकसभा चुनाव क्यों हारना नहीं पड़ेगा? यह सवाल जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से पूछा गया तो उनका कहना था कि यह सब अंधविश्वास है और 1967 से पहले तो कांग्रेस कर्नाटक में भी थी और केन्द्र में भी। अब ये सब दिलचस्प संयोग हैं जिन पर कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद भी चर्चा गर्म रहेगी। 

कर्नाटक का चुनाव कुल मिलाकर अगले साल के लोकसभा चुनाव की दशा-दिशा तय करने वाला है। भाजपा अगर कर्नाटक जीती तो उसे सारा श्रेय हिंदुत्व और मोदी को देना होगा। अब विकास की बातें सिर्फ  बातें हैं। असली रणनीति तो ङ्क्षहदुत्व के साथ-साथ मोदी का चेहरा और रैलियों का तड़का है। भाजपा राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसी साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में आक्रामक अंदाज में उतरेगी। कर्नाटक में भाजपा की जीत से ज्यादा कांग्रेस सरकार की एंटी इनकम्बैंसी की हार होगी, यह बात भाजपा अच्छी तरह से जानती है। त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, उत्तराखंड में भी भाजपा ने कांग्रेस की सत्तारूढ़ सरकारों को हराया था। 

पंजाब में भाजपा-अकाली दल सरकार की एंटी इनकम्बैंसी की हार हुई थी तथा मोदी का नाम और रैलियां करिश्मा नहीं कर सकी थीं। इस हिसाब से देखा जाए तो कर्नाटक में भाजपा की संभावित जीत से कांग्रेस को विचलित नहीं होना चाहिए और भाजपा को तीनों उत्तर भारत राज्यों की चिंता करनी चाहिए। अलबत्ता लोकसभा चुनावों में कर्नाटक जीतने के बाद भाजपा ङ्क्षहदुत्व, मोदी और आधे सांसदों के टिकट काट कर नए चेहरों को मौका देने के तीन सूत्रीय फार्मूले पर चल सकती है, ‘हमने विकास भी किया’ के नारे के साथ। 

कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने ङ्क्षलगायतों को अल्पसंख्यक का दर्जा देकर, अलग झंडे की मांग का समर्थन करके और कर्नाटक अस्मिता की बात उठाकर भाजपा को उसी की रणनीति से मारने की कोशिश की है। ऐसा पहले कभी कांग्रेस में नहीं हुआ। पंजाब में अमरेन्द्र सिंह को आगे करने का प्रयोग कामयाब रहा और कर्नाटक में राहुल गांधी ने सिद्धारमैया को आगे किया है। यहां तक कि चुनावी रैलियों में सिद्धारमैया पहले बोलते हैं और उसके बाद राहुल। जाहिर है कि कांग्रेस में स्थानीय क्षत्रपों को आगे लाने पर जोर दिया जा रहा है। आलाकमान कल्चर हाशिए पर दिख रहा है। 

उसके उल्ट भाजपा में आलाकमान के नाम पर मोदी और अमित शाह ही धुरी बन रहे हैं। हो सकता है कि  यह भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा हो क्योंकि अगर कोई दल ऐसी रणनीति अपनाकर एक के बाद एक राज्य जीतता है तो जाहिर है कि वह दल जीत के इस सिलसिले को कायम रखना चाहेगा और उसमें बदलाव नहीं करेगा। वैसे भी भाजपा जानती है कि येद्दियुरप्पा को सामने रखकर सिद्धारमैया से लड़ा नहीं जा सकता। रैड्डी बंधुओं को टिकट देकर भाजपा ने साफ  कर दिया है कि उसके लिए जीत ज्यादा जरूरी है और फिलहाल के लिए राजनीतिक शुचिता को ताक पर रख दिया गया है।

दोनों दलों के चुनाव घोषणा पत्र भी दिलचस्प हैं। दोनों में लैपटाप से लेकर स्मार्ट फोन और 3 ग्राम सोना से लेकर किसानों के कर्ज माफ  करने जैसी बातें कही गई हैं। हैरानी की बात है कि दोनों ही दल दूसरे दल के घोषणा पत्र का माखौल उड़ा रहे हैं। हैरानी की बात है कि दोनों दलों के घोषणा पत्र में जिस तरह के वायदे किए गए हैं उनको पूरा करना लगभग असंभव है और चुनाव आयोग खामोश है। हाल ही में चुनाव आयोग ने कहा था कि वह ऐसे चुनावी वायदों को संदेह की नजर से देखेगा जिन्हें पूरा करना संशय के खाते में आएगा। 

सिद्धारमैया अभी इंदिरा कैंटीन चलाते हैं और भाजपा का कहना है कि वह सत्ता में आने पर अन्नपूर्णा कैंटीन चलाएगी। अभी भाजपा उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलैंडर देती है लेकिन सबसिडी उपभोक्ता को तब तक नहीं देती जब तक कि वह चूल्हे की रकम नहीं लौटा देता। उधर सिद्धारमैया ने ऐसे गैस सिलैंडरों पर सबसिडी भी देने की अलग योजना चला रखी है। मंदिर मठ राहुल भी जा रहे हैं और अमित शाह भी। इसमें अब नवीनता नहीं रही है।-विजय विद्रोही


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Pardeep

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