आर.एस.एस. राष्ट्र निर्माण के लिए प्रतिबद्ध, राजनीति के लिए नहीं

punjabkesari.in Sunday, May 26, 2024 - 05:29 AM (IST)

बौद्धों और हिंदुओं ने हाल ही में बुद्ध पूर्णिमा मनाई, जो लगभग 3 सहस्राब्दी पहले पैदा हुए आध्यात्मिक नेता और समाज सुधारक की जयंती थी। बुद्ध ने कहा,‘‘कल्पना कीजिए कि एक आदमी को एक तीर से मारा गया था जिस पर गहरा जहर लगा हुआ था, वह आदमी शायद यह नहीं कहेगा कि ‘‘मैं यह तीर तब तक नहीं निकालूंगा जब तक मुझे पता नहीं चलता कि जिस आदमी ने मुझे मारा है वह है या नहीं।’’ वह ब्राह्मण था या क्षत्रिय या वैश्य था या शूद्र था, या वह काला, भूरा या गोरी त्वचा वाला था।’’ बुद्ध यह कह रहे थे कि जब किसी उच्च उद्देश्य के लिए लड़ाई होती है, तो ऐसी पूछताछ अनावश्यक होती है और ‘आध्यात्मिक जीवन के लिए’ प्रासंगिक नहीं होती है। 

जब जीवन में कोई बड़ा उद्देश्य हो तो छोटे प्रश्न अप्रासंगिक हो जाते हैं। आज जिस तरह की बहसें हो रही हैं, उनका सामना होने पर एक औसत आर.एस.एस. कार्यकत्र्र्ता इसी तरह प्रतिक्रिया करता है। देश और विदेश में राजनीतिक दलों और मीडिया के लिए हर बार चुनाव होने पर आर.एस.एस. को अप्रासंगिक बहस में घसीटना आम बात है। इस चुनाव में अब एक नया मिथक प्रचलन में आ गया है कि भाजपा और आर.एस.एस. के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट में घोषणा की गई, ‘संघ और भाजपा में घमासान।’  एक ऑनलाइन प्रकाशन में एक लेख में कहा गया है, ‘भाजपा ने अपना गर्भनाल काटने का फैसला किया है।’ 

यह सब गपशप और पतंगबाजी राजनीतिक लाभ का हिस्सा हो सकती है। लेकिन आर.एस.एस. ने बहुत पहले ही विवेकपूर्ण विचार के बाद निर्णय लिया कि, सामाजिक एकता के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध संगठन के रूप में, उसे दिन-प्रतिदिन और विशेष रूप से चुनावी राजनीति से दूरी बनाए रखनी चाहिए। आर.एस.एस. के संविधान के अनुच्छेद 4 (बी) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘संघ की कोई राजनीति नहीं है’। यह स्वयंसेवकों को किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होने की अनुमति देता है ‘ऐसे दलों को छोड़कर जो ङ्क्षहसक या गुप्त तरीकों में विश्वास करते हैं या उनका सहारा लेते हैं’। अतीत में ऐसे मौके आए जब आर.एस.एस. को सक्रिय राजनीति में खींचने के लिए भीतर और बाहर से प्रयास किए गए। ऐसा पहला प्रयास सरदार पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या पर विवाद के मद्देनजर किया था। 

11 सितंबर, 1948 को आर.एस.एस. प्रमुख एम.एस. गोलवलकर को लिखे एक पत्र में, पटेल ने सुझाव दिया कि ‘‘नाजुक समय में, पार्टी संघर्ष और पुराने झगड़ों के लिए कोई जगह नहीं है। मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं कि आर.एस.एस. के लोग कांग्रेस में शामिल होकर ही अपनी देशभक्ति का प्रयास जारी रख सकते हैं।’’ जब गोलवलकर नहीं माने तो उन्हें 15 नवंबर को गिरफ्तार कर लिया गया और नागपुर की जेल में भेज दिया गया। पटेल ने अपने प्रयास जारी रखे और कांग्रेस कार्य समिति ने 7 अक्तूूबर, 1949 को फैसला सुनाया कि आर.एस.एस. के सदस्यों को कांग्रेस पार्टी में शामिल होने की अनुमति दी जाएगी। नाराज होकर, जवाहर लाल नेहरू ने इसमें संशोधन करवाकर कहा कि आर.एस.एस. के सदस्य संगठन की सदस्यता छोडऩे के बाद ही कांग्रेस में प्रवेश कर सकते हैं। जैसे-जैसे आर.एस.एस. का प्रभाव बढ़ता गया, कांग्रेस में चिंता होने लगी कि वह या तो राजनीतिक अवतार ले सकती है या किसी अन्य पार्टी का समर्थन कर सकती है। 

लेकिन आर.एस.एस. को कभी भी सक्रिय राजनीति से दूर रहने की अपनी संवैधानिक स्थिति से पीछे हटने की जरूरत महसूस नहीं हुई। ऐसा नहीं है कि इस पर अंदर ही अंदर कोई बहस नहीं हुई, खासकर गांधी की हत्या को बहाना बनाकर इस पर अत्याचार करने की नाजायज कोशिशों के बाद। गोलवलकर ने खुद एक बार इसका संकेत देते हुए कहा था कि ‘स्वयंसेवक चाहें तो संघ को एक राजनीतिक संस्था में बदल सकते हैं।’ यही लोकतांत्रिक तरीका है। मैं कोई तानाशाह नहीं हूं। व्यक्तिगत रूप से, मैं राजनीति से बाहर हूं। जब बलराज मधोक जैसे कुछ आर.एस.एस. सदस्यों ने 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भारतीय जनसंघ शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया, तो गोलवलकर संगठन के लगभग 200 सदस्यों को उस पार्टी में काम करने के लिए भेजने पर सहमत हुए, लेकिन उन्होंने आर.एस.एस. को इससे स्वतंत्र रखने पर जोर दिया। शुरूआती दिनों में, आर.एस.एस. और जनसंघ की तुलना रेलवे ट्रैक की दो पटरियों से की जाती थी जो कभी नहीं मिलेंगी, लेकिन कभी अलग भी नहीं हो सकतीं।

अब 7 दशकों से भी अधिक समय से इस रिश्ते ने कई चरण देखे हैं। कभी-कभी असहमति होती है, जैसे कि जब गांधीवादी समाजवाद भाजपा का मूलमंत्र बन गया, तो आर.एस.एस. में कुछ  लोगों ने इस बात पर जोर दिया कि संगठन ‘किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं है’। लेकिन, मोटे तौर पर आर.एस.एस. सक्रिय राजनीति से दूर रहा। हालांकि 2 बार अपवाद भी हुए। पहली बार 1977 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की क्रूर तानाशाही से लोकतंत्र को बचाना था। आर.एस.एस. को भी दूसरी बार प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। आर.एस.एस. कैडर ने नवगठित जनता पार्टी के लिए सक्रिय रूप से प्रचार किया। उस ऐतिहासिक जिम्मेदारी के पूरा होने के बाद, आर.एस.एस. अपने सामान्य कामकाज पर लौट आया और राजनीतिक बनने की जहमत नहीं उठाई। 

यह इस तथ्य के बावजूद है कि भाजपा का गठन 1980 में केवल इसलिए हुआ था क्योंकि जनता पार्टी के कुछ नेताओं ने ए.बी. वाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी जैसे अन्य लोगों के आर.एस.एस. के साथ संबंध जारी रखने पर आपत्ति जताई थी। इसके अलगाव ने कुछ लोगों को यह अनुमान लगाने के लिए प्रेरित किया कि आर.एस.एस. ने 1984 के चुनावों में कांग्रेस का समर्थन किया था जिसके परिणामस्वरूप भाजपा का विनाशकारी प्रदर्शन हुआ। हालांकि अटकलें गलत थीं, लेकिन यह सच था कि संगठन ने उस चुनाव के दौरान सक्रिय भागीदारी के बारे में कोई विचार नहीं किया था। 

दूसरा अपवाद 2014 में था जब आर.एस.एस. नेतृत्व को उन ताकतों की हार सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता महसूस हुई जो भ्रष्टाचार और स्पष्ट अल्पसंख्यकवाद के माध्यम से राष्ट्रीय ढांचे को नष्ट कर रहे थे। इस प्रक्रिया में, उन्होंने ‘हिंदू आतंक’ का हौव्वा गढ़ते हुए एक झूठे आतंक का एक माडल भी खड़ा करने की कोशिश की। एक बार जब वे ताकतें हार गईं, तो आर.एस.एस. अपनी राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों में वापस लौट आया। यह बताना भी उचित होगा कि आर.एस.एस. राजनीति को महत्वहीन या अछूत नहीं मानता है। यह राजनीति को इस राष्ट्र के सामाजिक जीवन का एक अभिन्न अंग मानता है। 

इसका मानना है कि एक अच्छे समाज के लिए अच्छी राजनीति का होना अनिवार्य है। चुनावी और अन्य तरीकों का उपयोग करके लोगों को अच्छी राजनीति और सुशासन के निर्माण के लिए प्रेरित करना आर.एस.एस. के काम का एक हिस्सा है।गोलवलकर ने राजनीति के प्रति आर.एस.एस. की भावनात्मक मितव्ययिता को संक्षेप में बताते हुए एक बार कहा ,‘‘लेकिन लोगों को हमें राजनीति में क्यों घसीटना चाहिए? हम राजनेता के रूप में उनसे और स्वयं स्वयंसेवक के रूप में उनसे खुश हैं।’’ (लेखक, इंडिया फाउंडेशन के अध्यक्ष, आर.एस.एस. से जुड़े हैं)-राम माधव 
    


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