राजनीति : सेवा का माध्यम या सत्ता का साधन

punjabkesari.in Wednesday, Jun 19, 2024 - 05:24 AM (IST)

राजनीति का नाम सुनते ही हमारे मन में दो प्रमुख विचार आते हैं- सेवा और सत्ता। यह विषय व्यापक चर्चा और विचार-विमर्श का केंद्र बना रहता है कि क्या राजनेता वास्तव में जनता की सेवा करने के लिए राजनीति में आते हैं या सत्ता प्राप्ति और उसे बनाए रखने के लिए। बहुत से राजनेता राजनीति में आने का मुख्य उद्देश्य जनता की सेवा करना बताते हैं, जबकि उनके कार्य और नीतियां दर्शाती हैं कि उनका मुख्य उद्देश्य सत्ता प्राप्ति और उसे बनाए रखना है। भारतीय दर्शन में ‘सेवक’ का अर्थ अत्यंत व्यापक और गहन है। सेवक वह है जो नि:स्वार्थ भाव से, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की इच्छा के अपने स्वामी या किसी उच्च उद्देश्य की सेवा करता है। लोकतंत्र में जनता ही स्वामी है तथा किसी भी राजनेता का दायित्व नि:स्वार्थ भाव से जनता की सेवा करना ही होना चाहिए। 

साम-दाम-दंड भेद का हर चुनाव में खुला इस्तेमाल इस बात का शक पैदा करता है कि क्या वास्तव में यह प्रयास सेवा करने के लिए वर्चस्व प्राप्त करने का है या फिर सत्ता प्राप्त करने का। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा मतदाता को दिए जा रहे प्रलोभनों से तो अब यह लगने लगा है कि सेवा की जगह सौदेबाजी का वायदा किया जा रहा है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध में पाया गया कि सत्ता की चाहत मानव स्वभाव का हिस्सा है और इसे एक महत्वपूर्ण प्रेरक के रूप में देखा जा सकता है। सत्ता व्यक्ति को प्रभावशाली और शक्तिशाली महसूस कराती है, जिससे उनके आत्मसम्मान में वृद्धि होती है। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन में यह बताया गया कि सत्ता प्राप्त करने वाले व्यक्ति अपने निर्णयों में अधिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता महसूस करते हैं, जिससे वे अपने विचारों और योजनाओं को लागू करने में सक्षम होते हैं। 

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अध्ययन में बताया गया कि नि:स्वार्थ सेवा करने वाले राजनेता अधिक लोकप्रिय होते हैं और लंबे समय तक सत्ता में बने रहते हैं क्योंकि जनता उनके कार्यों और ईमानदारी की सराहना करती है। कई राजनेता सेवा का ढोंग करते हैं, जबकि उनके इरादे सत्ता प्राप्त करना और बनाए रखना होता है। समाज सेवा करने के लिए राजनीति ही एकमात्र माध्यम नहीं है। समाज सेवा के कई अन्य रास्ते और तरीके हैं जिनसे व्यक्ति समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है। एन.जी.ओ. और स्वयंसेवी संस्थाएं विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम करती हैं। विडंबना यह है कि जब समाज सेवा के इतने सारे प्रभावी और बेहतर तरीके मौजूद हैं, तो राजनेता सत्ता की लालसा को संतुष्ट करने के लिए जनता की सेवा का दावा क्यों करते हैं? यह प्रश्न भी उठता है कि क्या वास्तव में लोग उनकी सेवा की मांग कर रहे हैं? 

यहां यह देखना महत्वपूर्ण है कि कालांतर में सेवा का दावा करने वाले अधिकांश नेता राजनीति में प्रवेश करते समय न तो आर्थिक रूप से समृद्ध होते हैं और न ही उनके पास बौद्धिक संसाधन होते हैं। लेकिन कुछ ही वर्षों में उनकी व्यक्तिगत संपत्ति कई गुणा बढ़ जाती है। भारत में राजनीतिज्ञों की संपत्ति सत्ता में आने के बाद कैसे बढ़ी, इस पर कई रिपोटर््स और डाटा उपलब्ध हैं। ए.डी.आर. की रिपोर्ट के अनुसार, 2009 से 2014 के बीच सांसदों की औसत संपत्ति में 137 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2014 के आम चुनाव के बाद चुने गए सांसदों की औसत संपत्ति  14.61 करोड़ रुपए थी, जबकि 2009 में यह 5.33 करोड़ रुपए थी। चुनाव आयोग को जमा किए गए हलफनामों के विश्लेषण से भी यह स्पष्ट होता है कि कई राजनीतिज्ञों की संपत्ति में सत्ता में आने के बाद तेजी से वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त नेताओं में शक्ति प्रदर्शन की लालसा भरसक रूप से होती है, जो कि सुरक्षा गार्डों, बड़ी गाड़ी और बड़े सरकारी बंगलों के माध्यम से प्रकट होती है। 

यदि हम अपने राजनीतिक इतिहास में देखें तो पाएंगे कि ऐसे अनेक विद्वानों तथा साधन संपन्न नेताओं ने देश एवं समाज के कल्याण के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन राजनीति को समर्पित कर दिया। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जैसे उच्चकोटि के विद्वानों, महापुरुषों एवं नीति-निर्माताओं ने राजनीति में एक संरक्षक की भांति अपनी भूमिका निभाई। ऐसे नेताओं में निश्चय ही सत्ता की लालसा नहीं रही होगी लेकिन स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, सत्ता द्वारा अपने निर्णयों में अधिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता प्राप्त करने के महत्व को महसूस करते होंगे, जिससे वे अपने विचारों और योजनाओं को लागू करने में सक्षम हुए। 

मेरा निष्कर्ष यह है कि आज के युग में कोई भी व्यक्ति बिना सत्ता की लालसा के राजनीति में नहीं आता लेकिन ऐसा होना पूरी तरह गलत भी नहीं है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध में इसे एक महत्वपूर्ण प्रेरक के रूप में देखा गया है। परन्तु हमने विभिन्न स्तरों पर ऐसे बहुत कम नेता देखे हैं जो सेवा से आम लोगों के जीवन में वास्तविक परिवर्तन ला सके हैं। राजनीति में सत्ता की लालसा और व्यक्तिगत लाभ का लोभ अधिकतर नेताओं के सेवा के भाव पर भारी पड़ता दिखाई देता है, जिससे यह सवाल उठता है कि सच्चे सेवा भाव से राजनीति करने वाले नेता कहां हैं? हमें एक जागरूक और सतर्क मतदाता के रूप में सही नेताओं को चुनने की आवश्यकता है, ताकि राजनीति का वास्तविक उद्देश्य ‘जनता की सेवा’ सफल हो सके।-अश्वनी कुमार गुप्ता (सी.ए.) 
    


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