राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए ‘चुनाव’ की नौटंकी

punjabkesari.in Thursday, Dec 07, 2017 - 03:18 AM (IST)

बेशक लम्बे समय से ‘मैं न मानूं’ की मुद्रा अपनाए बैठे राहुल गांधी को पार्टी प्रमुख बनाने के लिए ‘चुनाव’ की नौटंकी की जा रही है, फिर भी कांग्रेस निर्जीव-सी अवस्था में है और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपने सबसे बुरे दौर में से गुजर रही है। 

देश पर लगभग 60 वर्षों तक शासन करने वाली इस पार्टी ने कभी राजीव गांधी के नेतृत्व में लोकसभा की 400 से भी अधिक सीटें हासिल करने का कीर्तिमान बनाया था, आज यही पार्टी केवल 44 सांसदों तक सिमट कर रह गई है। कर्नाटक और पंजाब जैसे 2 महत्वपूर्ण राज्यों के सिवाय यह तीन छोटे-छोटे राज्यों में ही सत्तारूढ़ है। 

बेशक यह गुजरात विधानसभा चुनाव में अपनी सभी शक्तियां झोंक रही है तो भी गत सप्ताह उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में इसकी इतनी दुर्गत हुई है कि राहुल गांधी के अपने लोकसभा क्षेत्र में भी यह कोई सीट नहीं जीत पाई। बेशक स्थानीय निकाय चुनावों को लोकसभा प्रतिनिधियों की लोकप्रियता का मापदंड शायद न माना जाए लेकिन जिस तरह देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में पार्टी राजनीतिक रूप में चित्त हो गई है वह इसके लिए गम्भीर ङ्क्षचता का विषय होना चाहिए। लेकिन पार्टी आज भी चापलूसी की संस्कृति अपनाए रखने पर अड़ी हुई है और परिवारवादी राजनीति से बाहर निकल पाने की विफलता को ही अपनी सबसे बड़ी शक्ति मान रही है।

बेशक पार्टी में पी. चिदम्बरम और शशि थरूर जैसे अनुभवी और काबिल नेताओं के अलावा सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे गतिशील युवा नेता मौजूद हैं तो भी पार्टी नेहरू-गांधी परिवार के युवराज की उंगली थामे बिना चलने में खुद को अक्षम पा रही है। इसे राहुल गांधी की बदनसीबी ही कहिए कि वह अपने लिए मैरिट के आधार पर राजनीतिक स्थान बना पाने में सफल नहीं हुए हैं, न ही उन्होंने ऐसे अभियानों का नेतृत्व किया है जिनके फलस्वरूप पार्टी अपने खोए हुए राजनीतिक जनाधार को फिर से हासिल कर सके। इसकी सबसे ताजा तरीन और प्रभावशाली जीत पंजाब में हुई है लेकिन इसके लिए राहुल को कोई श्रेय नहीं दिया जा सकता। 

अमरेन्द्र सिंह को अवश्य ही श्रेय देना बनता है कि खुली छूट दिए जाने (बल्कि पार्टी से जबरदस्ती ऐसी छूट हासिल करने) पर उन्होंने पंजाब में पार्टी को विजयी बना दिया और राहुल गांधी ने कोई भूमिका अदा की ही नहीं। वास्तव में पंजाब के पार्टी नेता राहुल को चुनावी अभियान के लिए आमंत्रित करने की कोई इच्छा ही नहीं रखते थे। हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों दौरान भी यही भावना देखने को मिली और अब इनके परिणामों का इंतजार है। 83 वर्षीय मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने आगे लगकर चुनावी अभियान का नेतृत्व किया। राहुल गांधी ने मुठ्ठी भर रैलियों को ही सम्बोधित किया और चुनावी अभियान चलाने के लिए पार्टी के उम्मीदवारों के वह चहेते नहीं थे। 

फिर भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में एक दौड़ सी लगी हुई है कि राहुल गांधी को उनकी बीमार मां सोनिया गांधी के स्थान पर जल्दी से जल्दी पार्टी की कमान सौंपी जाए। शीर्ष पार्टी नेता राहुल के पक्ष में नामांकन पत्र दायर करने की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकलने का प्रयास कर रहे हैं। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और उनके पूर्व कैबिनेट सहयोगी पी. चिदम्बरम ने भी उन्हीं के पक्ष में नामांकन पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं। नामांकन पत्रों के एक अन्य सैट पर सुशील कुमार शिंदे और आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेताओं ने हस्ताक्षर किए हैं। गुलाम नबी आजाद और मल्लिकार्जुन खड़ग़े जैसे कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य एवं अखिल भारतीय महासमिति के महासचिव शायद नामांकन पत्रों के 3 या 4 सैटों पर हस्ताक्षर करेंगे। 

ऐसा नहीं कि ये नेता खुद मौका नहीं लपकना चाहते और यह सुनिश्चित नहीं करना चाहते कि कुछ नामांकन पत्र रद्द हो जाएं और राहुल की उम्मीदवारी अधर में लटक जाए। अब तक नामांकन दस्तावेजों में कुल 89 सैट दायर हुए हैं जोकि अपने आप में एक कीर्तिमान है। इससे पहले 2010 में जब सोनिया गांधी को अध्यक्ष ‘चुना’ गया था तो 56 नामांकन सैट दायर हुए थे जोकि उस समय तक एक कीर्तिमान था। राज्यों में भी इसी कवायद को कार्यान्वित किया जा रहा है जहां एक बार फिर वरिष्ठ नेता पूरी तरह राहुल के पक्ष में हस्ताक्षर करने में ऐसे जुटे हुए हैं जैसे कल का सूरज ही न निकलना हो, सब कुछ आज ही करने की मजबूरी हो। विडम्बना देखिए कि अभी तक राहुल के विरुद्ध एक भी नेता अखाड़े में नहीं कूदा। यदि कोई ऐसा करने की हिम्मत करेगा भी तो वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ा ही मार रहा होगा। 

फिर भी राहुल को इस बात का श्रेय देना होगा कि गुजरात के चुनावी अभियान में उन्हें अब तक के किसी भी अभियान की तुलना में अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। जहां किसी अभियान का नेतृत्व करने की उनकी काबिलियत और लोकप्रियता पर गुजरात के चुनावी नतीजे से ही मोहर लगेगी, वहीं उनकी कार्यशैली में एक प्रत्यक्ष बदलाव दिखाई दे रहा है और ऐसा आभास होता है कि उन्हें कोई समझदार सलाहकार मिल गया है। 

अब उनका व्यवहार पुराने दिनों जैसा नहीं जब वह बात-बात पर आस्तीन चढ़ाना शुरू कर देते थे या फिर किसी संवाददाता सम्मेलन में आंधी की तरह घुसते हुए प्रस्तावित विधेयक को फाड़ देते थे अथवा अपने भाषण में सब गुड़ गोबर कर देते थे। बेशक यह अटकल लगाने वाली बात हो लेकिन ऐसे संकेत हैं कि अब उनकी कार्यशैली में ‘पर्सनल टच’ दिखाई देने लगा है। शायद उनके सलाहकारों तथा भाषण लेखकों की टोली में कोई बदलाव हुआ है। वैसे एक राजनीतिज्ञ के तौर पर उन्हें अभी भी खुद को सिद्ध करके दिखाना होगा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो पार्टी अध्यक्ष के पद हेतु ‘चुनाव’ की नौटंकी की कोई जरूरत ही नहीं।-विपिन पब्बी


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News