स्वस्थ लोकतंत्र के लिए विरोध आवश्यक

punjabkesari.in Wednesday, Jun 23, 2021 - 04:55 AM (IST)

लोकतंत्र हितों का टकराव है जिसमें सिद्धांतों की प्रतिस्पर्धा का आवरण पहना दिया जाता है। यह कहावत हमारे उन नेताआें पर चरितार्थ होती है जब राष्ट्र विरोधी भाषणों और आतंकवाद के बारे में उनकी प्रतिक्रियाएं इस आधार पर निर्भर होती हैं कि वे उदार, कट्टरपंथी किस तरफ खड़े हैं। इससे प्रश्न यह भी उठता है कि क्या राष्ट्र विरोध एक नया नियम बन गया है। 

दिल्ली उच्च न्यायालय साधुवाद का पात्र है क्योंकि उसने विरोध दर्शन के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में वैध ठहराया और कहा कि इसे आतंकवादी कृत्य नहीं माना जा सकता है। न्यायालय ने यह टिप्पणी तब की जब उसने तीन छात्र कार्यकत्र्ताओं को जमानत दी जिन पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं और विधि विरुद्ध क्रियाकलाप अधिनियम के विरुद्ध आरोप लगाए गए थे और कहा गया था कि उत्तर-पूर्व दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों के षड्यंत्र में उनकी भूमिका थी। 

यह मामला फरवरी 2020 में दर्ज किया गया था और उस दौरान नागरिकता संशोधन विधेयक के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन चल रहे थे। न्यायालय ने कहा कि सरकारी और संसदीय कार्यों के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन वैध है। न्यायालय ने यह भी कहा कि स्थिति को बिगडऩे की आशंका के मद्देनजर और विरोध को दबाने के लिए राज्य ने संविधान द्वारा प्रदत्त विरोध प्रदर्शन के अधिकार और आतंकवादी कृत्यों के बीच की रेखा को मिटा दिया है। 

यदि इसको बढ़ावा दिया गया तो लोकतंत्र खतरे में रहेगा। सरकार तब तक एेसा कुछ नहीं कर सकती जब तक उसके पास प्रत्यक्ष प्रमाण न हो। यही नहीं न्यायालय ने पुलिस को भी फटकार लगाई जो औपनिवेशिक युग के देशद्रोह कानूनों का प्रयोग करती है और सरकार की आलोचना करने वालों को जेल की सलाखों के पीछे डालती है। विगत कुछ वर्षों में पुलिस विधि विरुद्ध क्रियाकलाप अधिनियम और देशद्रोह कानून का उपयोग नागरिकों की आवाज दबाने और उन्हें जेल में बंद करने के लिए कर रही है। 

ए.आई.एम.आई.एम. अध्यक्ष आेवैसी की नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरुद्घ संविधान बचाआे रैली में तीन बार पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाने वाली अमूल्य लियोना पर पिछले वर्ष देशद्रोह कानून लगाया गया और उसे बेंगलुरु में 14 दिन तक जेल में रखा गया। हालांकि उच्चतम न्यायालय अनेक बार देशद्रोह कानून के उपयोग पर नाराजगी व्यक्त कर चुका है। 

आपको ध्यान होगा कि जब दिल्ली के  सिंघू बार्डर पर किसान कृषि कानूनों के विरुद्ध विरोध प्रदर्शनों के लिए एकजुट हुए तो उन्हें खालिस्तानी और आतंकवादी कहा गया जो भारत को अस्थिर करने के लिए एकत्र हुए हैं। जम्मू-कश्मीर संघ राज्य क्षेत्र में उपराज्यपाल द्वारा बुलाई गई एक बैठक में इस संघ राज्य क्षेत्र के बाहर के अधिकारियों की उपस्थिति पर आपत्ति करने वाले एक मुस्लिम को गिर तार किया गया और एक भाजपा विधायक ने नेहरू के बहुलवाद को विभाजन के समय भारत को हिन्दू राष्ट्र बनने के मार्ग में एक बड़ी अड़चन बताया। 

प्रश्न उठता है कि सरकार एक ऐसी देशभक्ति को आगे बढ़ाना चाहती है जिसकी शर्तें विवेक से बाहर हैं। क्या इसकी राष्ट्रवाद की अवधारणा में किसी तरह की आलोचना के लिए स्थान नहीं है? हालंाकि ये प्रत्येक भारतीय की स्वतंत्रता के प्रतीक हैं। किसी कानून की आलोचना करने को घृणा फैलाना कैसे माना जा सकता है? क्या केन्द्र और राज्य सरकारें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करा रही हैं? क्या ये सरकारें यह कहने का प्रयास कर रही हैं कि उसकी आलोचना करने वाले कार्यकत्र्ताओं को नहीं सहा जाएगा ऐसा करके क्या ये सरकारें राष्ट्र की अवधारणा का मजाक नहीं उड़ा रही हैं जिसका निर्माण लोकतंत्र के मूल्यों के आधार पर किया गया है। 

क्या हम इतने भयभीत या असहिष्णु हैं कि किसी भी आलोचना को राष्ट्र, संविधान या सरकार के लिए खतरा मानने लगे हैं? क्या हमारे राजनेता सार्वजनिक जीवन में विचारों के टकराव से डरते हैं? क्या यही व्यक्ति की देशभक्ति की कसौटी होनी चाहिए? क्या हमने आलोचना को स्वीकार करने की क्षमता खो दी है? क्या हम भय के वातावरण में रह रहे हैं? क्या यह मात्र एक संयोग या हमारी घुटना टेक प्रतिक्रियावादी नीति का लक्षण है? 

क्या किसी बात को बलपूर्वक कहना किसी व्यक्ति की देशभक्ति की कसौटी बन गया है? साथ ही किसी कानून के विरुद्घ विरोध प्रदर्शन करना या उसकी आलोचना करने पर जेल में डालने के माध्यम से सरकार हमें राष्ट्र प्रेम और देशभक्ति का पाठ पढ़ाना चाहती है? क्या हम केवल रोबोट पैदा करना चाहते हैं जो केवल हमारे नेता और उनके चेलों की कमांड के अनुसार कार्य करें? हालंाकि प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के लोकतंत्र, इसकी जीवन्तता, विविधता, स यता और मूल्यों को जी-7 शिखर स मेलन में रेखांकित किया। 

वर्तमान में लक्षद्वीप में भी विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं जहां पर भाजपा के प्रशासक ने स्कूलों में मांसाहारी भोजन पर प्रतिबंध लगा दिया। साथ ही बीफ खाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया और इस तरह स्थानीय लोगों की भोजन की पसंद को नजरअंदाज किया गया। शायद वर्चस्ववाद और बहुलवाद के वर्चस्व के इस प्रदर्शन के चलते सरकार कट्टरवादी भगवाकरण को बढ़ावा दे रही है जो हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र के एजैंडा पर कार्य कर रहा है और जो देश के रक्षक के रूप में अपनी छवि बनाने का प्रयास कर रहा है और इस पर बाहर से मोदी के सबका साथ, सबका विकास और सबके विश्वास का आवरण चढ़ा देता है। 

भारत की सदियों पुरानी स यता इसकी लोकतांत्रिक भावना बनाम आलोचना के दमन की इस वर्तमान स्थिति में भाजपा को विश्व समुदाय को यह समझाना कठिन होगा कि भारत में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। उसे समझना होगा कि विरोध किसी भी परिपक्व  लोकतंत्र का मूल है। सरकार की किसी भी आलोचना को आतंकवाद या राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता इसके लिए विपक्ष, बुद्धिजीवियों और लुटियन लॉबिस्ट को दोष देेते हैं जो हमेशा नकारात्मक समाचारों को बढ़ावा देते हैं और सरकार की छवि खराब करते हैं। ये लोग सरकार के सकारात्मक कार्यों को बढ़ावा देते हैं। उनकी समस्या यह है कि वे  हर चीज के लिए मोदी सरकार को दोष देते हैं कितु स्वयं जिम्मेदारी नहीं लेते हैं। 

तथापि न्यायालय की टिप्पणी सभी सरकारों और पुलिस के लिए एक सबक होना चाहिए जो नागरिकों के अधिकारों का हनन करते हैं, आलोचकों और विरोध करने वालों को गिर तार करते हैं और उनके विरुद्ध कठोर कानूनों के अंतर्गत मामले दर्ज करते हैं। नि:संदेह लोकतंत्र एक जटिल व्यवस्था है। किंतु विरोध प्रदर्शन के कारण लोकतंत्र अराजक तंत्र में नहीं बदलता है। विरोध प्रदर्शन से व्यवस्थाओं मेंं सुधार का प्रयास होता है। जिस व्यवस्था में विरोध प्रदर्शन होता है और सरकार की आलोचना की जाती है वहां पर यह सरकार को जवाबदेह ठहराने, लोगों के कल्याण के लिए कार्य करने, भ्रष्टाचार कम करने और अंतत: राष्ट्र को नागरिकों के लिए सुरक्षित बनाने की भूमिका निभाता है।

विरोध प्रदर्शन की संस्कृति नागरिक समाज, प्रैस, सोशल मीडिया को फलने-फूलने का अवसर देती है जो लोकतंत्र के पोषण के लिए आवश्यक है। जिन समाजों में विरोध प्रदर्शन की अनुमति है वहां पर राजनीतिक स्थिरता, कानून का शासन और नीति बनाने में सरकार की कार्यकुशलता देखने को मिलती है। समय आ गया है कि हमारे शासक सरकार की आलोचना जो कि एक संवैधानिक अधिकार है और देश को अस्थिर करने वाले कार्यकलापों के बीच एक लक्ष्मण रेखा खींचे। सरकार बहु संस्कृतीय सिद्धांतों और अपने हिन्दुत्व कार्यकत्र्ताओं के अल्पसं यक विरोधी स्वभाव के बीच फंसी हुई है अत: उसे संभल कर कदम उठाने होंगे। सरकार को इस संबंध में आत्मसंयम अपनाना होगा अन्यथा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।-पूनम आई, कोशिश  
 


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