अयोध्या में 5 एकड़ जमीन का प्रस्ताव बिन मांगी ‘खैरात’

punjabkesari.in Thursday, Nov 14, 2019 - 03:33 AM (IST)

जिस दिन अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया उस दिन मन में यही कामना थी कि किसी तरह इस विवाद पर बस अब ढक्कन लगे। मंदिर-मस्जिद का विवाद हम 21वीं सदी में और न खींचें। साथ में एक और आस भी थी। हो सके तो सुप्रीम कोर्ट कुछ ऐसा फैसला दे जिससे दोनों पक्षों के दिल जुड़ जाएं। न कोई विजेता हो, न कोई पराजित। किसी तरह से ङ्क्षहदू समुदाय की आस्था और मुस्लिम समुदाय की गरिमा दोनों बच जाएं। 

जानता था यह उम्मीद सुप्रीम कोर्ट के साथ ज्यादती थी। एक सभ्य समाज में दो समुदायों के बीच झगड़े का समाधान समाज स्वयं मिल बैठकर करता है। अगर ऐसा न हो पाए तो लोकतांत्रिक समाज में यह फैसला राजनीति के दायरे में होता है। इस जिम्मेदारी को कोर्ट-कचहरी पर डालना सही नहीं था। इसे हमारे समाज के कर्णधारों और राजनेताओं की विफलता ही कहा जाएगा कि यह मसला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे तक पहुंचा। 

फैसला सुनकर पहली उम्मीद तो पूरी हुई। सुप्रीम कोर्ट ने मामले को टालने की बजाय एक स्पष्ट फैसला सुनाया। फैसला पांचों जजों ने सर्वसम्मति से दिया। इस तरह 133 साल से चले आ रहे इस कानूनी विवाद का अंत हुआ। सुन्नी वक्फ बोर्ड सहित सभी पक्षों ने इस फैसले को स्वीकार कर लिया है जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। देश में कहीं भी इस फैसले के बाद किसी भड़काऊ जश्न या विरोध-प्रदर्शन की कोई खबर नहीं है। जो लोग कल तक कहते थे कि धार्मिक आस्था के सवाल पर कोर्ट-कचहरी के फैसले को नहीं माना जाएगा, वे भी अब न्यायपालिका में आस्था की रट लगा रहे हैं। उनके इरादे जो भी हों, देश के लिए यह संतोष का विषय है। 

अयोध्या के बाद काशी और मथुरा का नम्बर नहीं आएगा
यह आशा करनी चाहिए कि इससे अयोध्या ही नहीं, ऐसे सभी विवादों का अंत हो जाएगा। कोर्ट ने अपने फैसले में साफ तौर पर 1991 वाले कानून की याद दिलाई है। इस कानून के अनुसार 15 अगस्त 1947 को जो भी धार्मिक स्थान जैसा था उसे उसी अवस्था में वैध माना जाएगा। उस पर किसी किस्म का कानूनी विवाद संभव नहीं होगा। यानी कि सुप्रीम कोर्ट की मानें तो अयोध्या के बाद काशी और मथुरा का नम्बर नहीं आएगा। 

कोर्ट ने दो घोड़ों पर सवार होने की कोशिश की 
लेकिन क्या बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि वाला कांटा हमेशा के लिए देश के दिल से निकल गया? फैसला पढ़कर और इस पर प्रतिक्रिया देखकर ऐसा तो नहीं लगता। इस पेचीदा मामले में कोर्ट के सामने दो रास्ते थे। या तो वह सही-गलत साक्ष्य को देखते हुए तकनीकी फैसला दे देता या फिर कानूनी पेंच को छोड़कर एक मध्यस्थ की भूमिका निभाता। ऐसा लगता है कि कोर्ट ने कमोबेश दोनों घोड़ों पर सवार होने की कोशिश की, कभी कानूनी दाव-पेंच तो कभी सुलह-सफाई का सहारा लिया। जैसा दो घोड़ों की सवारी में अक्सर होता है, दोनों में कुछ भी पूरा न हो सका। न तो सीधा कानूनी फैसला हो पाया और न ही दिल जोडऩे का काम सफल हुआ। 

फैसले की भाषा से लगता है कि कोर्ट सीधे-सीधे कानूनी साक्ष्य के आधार पर तकनीकी फैसला दे रहा है। फैसला साफ तौर पर कहता है कि विवादित स्थान की मिल्कियत का फैसला आस्था और धार्मिक विश्वास के आधार पर नहीं हो सकता। यह सर्वविदित है कि विवादित स्थल पर 6 दिसम्बर 1992 तक एक मस्जिद खड़ी थी जिसमें कुछ अंतराल पर नमाज पढ़ी गई थी। उधर गुम्बद के बाहर के इलाके में राम चबूतरा था जहां हिन्दू नियमित रूप से पूजा करते थे। फैसला यह भी कहता है कि दोनों ही पक्ष इस विवादित भूमि पर अपनी मिल्कियत साबित नहीं कर पाए हैं। 

उसके बाद तर्क को एक अजीब मोड़ देते हुए कोर्ट यह कहता है कि क्योंकि ङ्क्षहदू पक्ष ने लगातार पूजा की है लेकिन मुस्लिम पक्षधर लगातार नमाज का साक्ष्य नहीं दे पाए, इसलिए सारी की सारी विवादित जमीन ङ्क्षहदू पक्ष को राम मंदिर बनाने के लिए दे दी जाए। यह तर्क अजीब है चूंकि कोर्ट खुद मानता है कि विवादित स्थल के गुंबद वाले भाग पर पूजा का कोई प्रमाण नहीं है। और यह भी कहता है कि इस इलाके में 1949 में चोरी-छिपे रामलला की मूॢत स्थापित करना गैर-कानूनी था। यह भी जोर देकर कहता है कि 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस करना सुप्रीम कोर्ट और संविधान की धज्जियां उड़ाने का काम था। अगर ऐसा था तो फिर उसी पक्ष को सारी विवादित भूमि किस आधार पर दी गई? अगर बाबरी मस्जिद का विध्वंस न होता तो क्या सुप्रीम कोर्ट विवादित स्थल को राम मंदिर बनाने के लिए दे देता? अगर नहीं तो क्या कोर्ट उस कृत्य का ईनाम नहीं दे रहा है जिसे वह खुद असंवैधानिक बता रहा है? 

दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता करने की कोशिश भी हुई थी
फैसले की भावना से लगता है कि यह दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता करने की कोशिश है। इसीलिए कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए 5 एकड़ जमीन देने का फैसला किया। अगर मुस्लिम पक्ष का कानूनी दावा गलत था तो उन्हें 5 एकड़ जमीन का कोई हक नहीं था। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट दोनों पक्षों में बीच-बचाव करना चाहता था ताकि किसी एक पक्ष को पराजित महसूस न हो लेकिन लगता है कोर्ट इस प्रयास में सफल नहीं हो पाया। 

अब तक मुस्लिम समुदाय की जो प्रतिक्रिया है उससे साफ है कि वह इस फैसले को पराजय की तरह महसूस कर रहा है। पूरी विवादित जमीन से बेदखल किए जाने के बाद उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक है।  एकतरफा मुख्य फैसलेे के बाद 5 एकड़ जमीन का प्रस्ताव बिन मांगी खैरात जैसा दिख रहा है। कोर्ट की मंशा जो भी हो, इस फैसले ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस से आहत मुस्लिम समाज के घाव पर मरहम लगाने की बजाय घाव को दोबारा कुरेदने का काम किया है। इससे अल्पसंख्यक समाज में न्यायपालिका पर भरोसा घटने और ओवैसी जैसे उग्रपंथी नेताओं की राजनीति चमकने का खतरा है। 

लेकिन शायद इतने पेचीदा और भावनात्मक मुद्दे पर कोई फैसला ऐसा नहीं होता जिससे हर कोई पक्ष संतुष्ट होता। शायद पिछले 30 सालों के घाव इतने गहरे थे कि उस पर कोई मरहम असर नहीं करती। शायद इस मामले पर पूरे न्याय की उम्मीद करना सुप्रीम कोर्ट से अन्याय होता। शायद जब पूरा समाज भावनाओं के तूफान में बह जाए तो कोर्ट-कचहरी से संतुलन की उम्मीद करना उचित नहीं होगा।-योगेन्द्र यादव
 


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