हद से ज्यादा मुश्किल दौर से गुजर रही राजनीति

punjabkesari.in Monday, Aug 15, 2022 - 04:50 AM (IST)

राजनीति के मौजूदा दौर में अनैतिकता का सवाल अपना महत्व खोता जा रहा है। इसकी बिल्कुल नई मिसाल बिहार में आर.सी.पी. सिंह की राजनीति है। इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि आर.सी.पी. एक नौकरशाह रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के अपने-अपने दायरे हैं। इस लिहाज से यह जरूर देखा जाना चाहिए कि नौकरशाह रहे आर.सी.पी. क्या-क्या करते रहे हैं और आखिर राजनीति की बिसात पर एक मोहरे के तौर पर बिहार में उन्होंने क्या कर डालने की कोशिश की और आखिरकार उसकी क्या परिणति हुई। 

वैसे देश की मौजूदा राजनीति में नैतिकता को बेकार की चीज साबित किया जाने लगा है। लेकिन देश की राजनीति अगर पूरी तौर पर गर्त में नहीं जा पाई है तो इसका एक कारण यह ही माना जाता है कि भारतीय लोकतंत्र के 75 साल के इतिहास में न्यूनतम नैतिकता ने ही उसे बचाए रखा है। इसीलिए सभ्य राजनीतिक समाज में नैतिकता की बात करने वालों का अभी लोप नहीं हुआ है। देश में बहुतेरे लोग अभी भी हैं जो किसी भी कीमत पर हासिल की गई सफलता को जायज नहीं ठहराते। इसीलिए आर.सी.पी. बनाम नीतीश कुमार प्रकरण में हर सभ्य नागरिक को तय करना पड़ेगा कि वह किसके पक्ष में खड़ा है। सभ्य समाज को सर्वमान्य लोकतंत्र के पक्ष में उसे साक्ष्यों के साथ अपने तर्क देने पड़ेंगे। एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से मेरी भी यह जिम्मेदारी है। 

आर.सी.पी. सिंह मेरे जे.एन.यू. में सहपाठी रहे हैं। उस नाते वे निरंतर मेरे संपर्क में रहे। उत्तर प्रदेश काडर के आई.एस. आर.सी.पी. को मैंने नीतीश के संपर्क में आते भी देखा है। जब नीतीश रेल मंत्री बने तो आर.सी.पी. को उन्होंने अपना विशेष अधिकारी बनाया। यह बात यह समझने के लिए काफी है कि आर.सी.पी. किस हद तक नीतीश के विश्वासपात्र रहे होंगे। यहां तक तो फिर भी साफ था लेकिन जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हुए तो उन्होंने आर.सी.पी. का उत्तर प्रदेश कैडर बदलवाकर बिहार बुलवा लिया। आर.सी.पी. की विश्वासपात्रता की हद बताने के लिए मेरे पास एक व्यक्तिगत अनुभव भी है। जो यह बताने के लिए काफी है कि आर.सी.पी. और नीतीश के बीच पारिवारिक प्रगाढ़ता किस हद तक रही। 

आर.सी.पी. ने मुझसे उनके वृंदावन प्रवास पर अपने घर ठहराने का अनुरोध किया। क्योंकि आर.सी.पी. सिंह सपरिवार मेरे घर ठहरते रहे थे। तो मैंने उनका अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। लेकिन इससे मुझे यह अंदाजा हो गया कि नौकरशाह रहे आर.सी.पी. और नीतीश के बीच विश्वास और संबंधों का स्तर क्या है। बाद में तो जब आर.सी.पी. को नीतीश ने अपने दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बना दिया तो दोनों के बीच संबंधों को लेकर कोई शंका ही नहीं रह गई। अब अगर आर.सी.पी. ने नीतीश के साथ जो व्यवहार किया उसे कोई विश्वासघात की पराकाष्ठा कहे तो बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। बात यहीं खत्म नहीं होती। एक लोक सेवक होते हुए आर.सी.पी. ने नीतीश के चुनाव संबंधी राजनीतिक कार्य में जिस तरह की खुलेआम हिस्सेदारी की थी वह खुद में अवैध और परले दर्जे की अनैतिकता कही जानी चाहिए। 

यह उसी तरह का मामला था जैसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए उनके सचिव यशपाल कपूर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आरोप लगे थे। यहां तक कि एक समय आर.के. धवन को भी इंदिरा गांधी के साथ विश्वासघात के आरोपों से घेरा गया था। लेकिन वह भी इतिहास में दर्ज है कि यशपाल कपूर या आर.के. धवन ने आखिरी सांस तक अपने ऊपर विश्वासघात का लांछन लगने नहीं दिया। लेकिन आर.सी.पी. ने जो किया उसके लिए भारतीय इतिहास में सार्वकालिक अनेकों कुख्यात विश्वासघातियों को याद किया जा सकता है। 

यह भी सही है कि दोनों ने एक दूसरे का उपयोग किया। पर आर.सी.पी. सिंह को अब लग रहा होगा कि वह शिखर पर पहुंच चुके हैं अब नीतिश से उन्हें कोई और उम्मीद नहीं है। आर.सी.पी. पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अब भाजपा की शरण में जाना उनकी मजबूरी है। 

नीतिश और भाजपा के संबंध अपनी जगह। इसी के मद्देनजर वह अब और आगे जाने के लिए भी भाजपा के करीब जाना चाहते होंगे। हो सकता है आर.सी.पी. का लक्ष्य हासिल न हुआ हो और आगे बढऩे के लिए नीतीश के साथ रहना उन्हें बाधा लग रही हो। नीतीश कुमार ने लालू और पिछली बार तेजस्वी के मामले में जो किया उसके आलोक में यह उनके कर्मों का फल ही है। वैसे देश की राजनीति में आर.सी.पी. सिंह का कद ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बैठकर उनकी चर्चा भी की जाए। 

उधर नीतीश कुमार के दो दशकों के राजनीतिक इतिहास का विश्लेषण किया जाएगा तो उसकी भी आलोचनात्मक समीक्षा हो सकती है। बहुत से राजनीतिक समीक्षक उन्हें विकट परिस्थितियों के हवाले से बरी भी कर सकते हैं। लेकिन आर.सी.पी. के विश्वासघात प्रकरण ने नीतीश के लिए जो सहानुभूति उपजाई है वह उन्हें अचानक भारी लाभ पहुंचा सकती है। खासतौर पर आने वाले डेढ़-दो साल में देश की राजनीति जिस तरह की करवट लेती दिख रही है उस लिहाज से बिहार के इस राजनीतिक कांड ने उथल-पुथल मचा दी है। 

बेशक निराशाजनक राजनीतिक माहौल में बदलाव की गुंजाइश पैदा हुई है। अगर नीतीश कुमार समय पर नहीं चेतते तो वह भी म.प्र., कर्नाटक, महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों की सरकारों की तरह गच्चा खा सकते थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आर.सी.पी. के विश्वासघात से सबक लेते हुए नीतीश कुमार ने सही समय पर फैसला कर लिया और इस निराशाजनक धारणा को गलत साबित कर दिया है कि आयाराम गयाराम की राजनीति से बचने का कोई उपाय नहीं है।-विनीत नारायण


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