दीवाली से पहले ही चल रहे हैं राजनीतिक पार्टियों में ‘पटाखे’

punjabkesari.in Saturday, Oct 29, 2016 - 02:01 AM (IST)

(देवी चेरियन): दिल्ली में त्यौहार का मौसम चरम पर है। मैं दीवाली को बहुत प्यार करती हूं। यह खुशी मनाने, पूजा-पाठ करने और गपशप मारने तथा पार्टियां आयोजित करने का समय होता है। जो दोस्त आपको कई वर्षों से नहीं मिले होते उनसे अचानक ही किसी न किसी पार्टी में सामना हो जाता है। दिल्ली विदेशों में बसे भारतीयों, विदेशियों तथा यात्रियों जैसे हर तरह के लोगों से भरी हुई है। बाहर से आए हुए लोगों के लिए भारतीयों की मेहमानवाजी तो लाजवाब है। रोशनियों के इस पर्व का दिल्ली में नजारा तो देखते ही बनता है। 

यहां तक कि दीवाली के आने से पहले ही विभिन्न राजनीतिक पार्टियों में पटाखे फूट रहे हैं। एक राजनीतिक पारिवारिक ड्रामा उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के कुनबे में देखने को मिला। हम पहले भी यह ड्रामा उन पार्टियों में देख चुके हैं जहां युवराज खुद को राजनीतिक वारिस के रूप में देखते हैं। वे अपने पिताओं और उनके सहयोगियों द्वारा वर्तमान स्तर तक पहुंचने के लिए किए गए संघर्ष, समर्पण तथा कठोर परिश्रम को भूल गए हैं। बेशक पंजाब में बादल हो या उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव अथवा महाराष्ट्र में शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे या दक्षिण भारत में एम. करुणानिधि या फिर कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार- सभी पर यह तथ्य लागू होता है। इन सभी ने वर्तमान स्तर तक पहुंचने के लिए बहुत कठोर परिश्रम किया है।

जब बेटे महत्वाकांक्षी हो जाते हैं तो हमेशा नुक्सान पार्टी को ही उठाना पड़ता है। लखनऊ में हाल ही में हुई रैली में मुलायम और अखिलेश के समर्थकों ने जो शर्मनाक व्यवहार किया वह यू.पी. के विधानसभा चुनाव में पार्टी के सत्ता में आने की किसी प्रकार की संभावनाओं के परखच्चे उड़ाने के लिए काफी था। चाहे राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव, दोनों के मामले में ही पारिवारिक वफादारी की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन पार्टी काडर को जिस भी क्षण पता चलता है कि उनको बुद्धू बनाया जा रहा है या संगठन को लगता है कि पारिवारिक स्वार्थ पार्टी हितों पर हावी हो रहे हैं तो पार्टी का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। 

आज की स्थितियां पहले जैसी नहीं हैं। आज जब भी पार्टी कार्यकत्र्ताओं के साथ गलत व्यवहार होता है तो उनके जाने के लिए अन्य कई पार्टियों के दरवाजे खुल जाते हैं। भाजपा है जहां मोदी की किसी भी पुत्र-पुत्री या पारिवारिक सदस्य के बारे में कोई महत्वाकांक्षा नहीं। उनकी महत्वाकांक्षा उनका अपना आप और आर.एस.एस. ही है। यह शर्म की बात है कि जिन व्यक्तियों ने पार्टी का निर्माण करने के लिए परिश्रम किया है आज वे ही किस प्रकार एक-दूसरे को खुलेआम गालियां दे रहे हैं और सार्वजनिक रूप में अपनी गंदगी उंडेल रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में तो यह सर्वविदित है कि कांग्रेस की नैया अटल तौर पर डूबेगी लेकिन भाजपा पूरी तरह यौवन में है। समाजवादी पार्टी की भी अब कांग्रेस जैसी दुर्दशा तय है। मतदाताओं के सामने बसपा एक अच्छा विकल्प है। पंजाब में भी सीनियर बादल की प्रतिष्ठा दाव पर है क्योंकि पार्टी के चारों ओर मंडरा रहे अनगिनत महत्वाकांक्षी और भ्रष्ट सत्ता दलालों ने पार्टी को बर्बाद कर दिया है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब में बहुत अच्छी शुरूआत की थी लेकिन इसके विधायकों तथा पार्टी वर्करों की काली करतूतों की नई से नई रिपोर्टें हर रोज प्रकाशित होती रहती हैं, जिसके चलते या तो इसे हमदर्दी का वोट मिलेगा या फिर इसके चेहरे पर कालिख पुत जाएगी। 

लेकिन पंजाब की राजनीति में सबसे दिलचस्प भूमिका है नवजोत सिद्धू की। वह यह फैसला नहीं कर पा रहे कि उन्हें क्या चाहिए या उनके लिए क्या बेहतर रहेगा। प्रदेश की हर राजनीतिक पार्टी के साथ उनकी आंख मिचौली ने  उनकी अपनी प्रतिष्ठा को ही धूमिल किया है। जगह-जगह कुंडी लगाकर शिकार पकडऩे की अभिलाषा कोई बुरी बात नहीं लेकिन एक सीमा के बाद इस तरह की प्रवृत्ति प्रतिष्ठा को ही आहत करती है। वास्तव में वह  दूसरों के लिए हंसी-मजाक का विषय बन गए हैं।

अमरेन्द्र का सितारा फिर से तेजी से उदय हो रहा है। वह दिलेर व्यक्ति हैं और समस्याओं से सीधी टक्कर लेना तथा दूसरे लोगों को बहस के लिए चुनौती देना जानते हैं। राजनीति में होना भी ऐसा चाहिए। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल को उनके द्वारा दिए गए साक्षात्कार की हर ओर से प्रशंसा हुई है। वह ऐन सीधी और नुक्ते पर तथा निडर होकर बात करते हैं। वह एक दमदार नेता जैसे आत्मविश्वास से भरे हुए हैं जिन्हें इस बात पर भरोसा है कि वह लोगों के प्रति और लोग उनके प्रति प्रतिबद्ध हैं।

विभिन्न पाॢटयों के युवाओं, नेताओं को हर हालत में पार्टी की सीमाओं से ऊपर उठते हुए यह समझना होगा कि अपने पूर्ववर्ती नेताओं और उनके आदमियों द्वारा किए गए अच्छे काम  को आप बदनाम नहीं कर सकते और न ही आप अपनी दादागिरी चला सकते हैं। चाहे मुलायम हों या करुणानिधि, बादल हों या अमरेन्द्र- वे सभी उच्च पाये के नेता हैं। वे अपनी कमजोरियां और शक्तियां जानते हैं। पार्टी कार्यकत्र्ताओं के दबाव की बजाय उन्हें  अपनी पारिवारिक भावनाओं के दबाव के आगे नहीं झुकना चाहिए। 

जिन लोगों ने उनके लिए पार्टी का निर्माण किया उनको अपमानित करने से कोई भी लाभ होने वाला नहीं। आज पार्टी वर्करों के साथ-साथ मतदाताओं का भी मोहभंग हो रहा है और उन्हें अपना आप छला हुआ-सा लगता है। एक-दो उदीयमान युवा नेता भी हैं लेकिन  अभी यह देखा जाना बाकी है कि संगठन और पार्टी वर्करों के आशीर्वाद के बिना वे कैसी कारगुजारी दिखाएंगे। अभी तक तो कोई भी युवा अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने के लिए पर्याप्त सफलता अर्जित नहीं कर पाया। यदि आप नरेन्द्र मोदी जैसे गुणों के मालिक नहीं तो अपनी मनमर्जी की राजनीति करना आपके लिए मुमकिन नहीं।

अब की दीवाली बहुत अधिक रोचक नहीं होगी क्योंकि बच्चों को स्कूलों में पढ़ाया गया है कि पटाखे चलाने से वायु प्रदूषण बढ़ता है लेकिन राजनीतिक पार्टियों को पटाखे फोडऩे से कौन रोक सकेगा। सास-बहू मार्का टी.वी सीरियलों की तरह वे भी समाचार चैनलों पर हमारा खूब मनोरंजन करवा रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए  कि हमारे नेता अपने संगठन की मुख्य शक्ति को जल्दी ही महसूस कर लेंगे और इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। कोई युवराज हो या कोई और, कोई भी इस शर्त से बच नहीं सकता। इस दीवाली के पर्व पर हमें इंतजार करना चाहिए कि राजनीतिक क्षेत्र में कौन-सी अच्छाई बुराइयों पर हावी होगी।
 


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