कश्मीर को उलटी दिशा में चला रहा है पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन

punjabkesari.in Saturday, Feb 17, 2018 - 04:16 AM (IST)

कश्मीर किधर जा रहा है? पश्चिम एशिया में बसे भारतीय समुदाय से वाहवाही बटोरने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो अपनी पसंदीदा ग्लोबल कूटनीति की शतरंज खेलने में व्यस्त हैं तो क्या ऐसे में वह सीमापार से हमारे घर में लगाई जा रही आग से बहुत अधिक विचलित हो सकते हैं? उन्हें अवश्य ही होना चाहिए। हालांकि सुंजवां सैन्य शिविर पर फिदायीन हमले और हमारे शूरवीर सैनिकों की शहादत के बाद हमें केवल रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण के ही दिलेरी भरे शब्द सुनने को मिले हैं। 

माननीय रक्षा मंत्री ने गरजते हुए कहा : ‘‘इस्लामाबाद को अपने इस दुस्साहस के साथ-साथ नियंत्रण रेखा पर आतंकी घुसपैठ पर सहायता करने की दृष्टि से किए गए गोलीबंदी उल्लंघन के लिए भी भारी कीमत अदा करनी पड़ेगी।’’ सुनने में ये शब्द बहुत खूबसूरत हैं। काश ऐसे दिलेरी भरे शब्दों से पाकिस्तान की बदमाश आतंकी हुकूमत की समस्या का सही उत्तर मिल सकता। फिर भी यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि हमारी रक्षा मंत्री के दिमाग में वास्तव में क्या चल रहा है? क्या वह एक और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के बारे में सोच रही हैं? गत सर्जिकल स्ट्राइक के बाद जम्मू-कश्मीर में स्थिति बद से बदतर हो गई है। हमें सुनने को मिल रहा है कि पाकिस्तानी सेना भारत के विरुद्ध विशेष प्रकार के हमले करने के लिए उग्र जेहादियों की एक नई नस्ल को प्रशिक्षण देने की योजना बना रही है।

देखने में तो यही लगता है कि हमारे देश के सत्ता तंत्र ने 2014 से लेकर अब तक सैन्य आधार शिविरों पर आतंकी हमलों की बाढ़ के फलस्वरूप जम्मू-कश्मीर में 40 से अधिक सैनिकों की शहादत और कई दर्जन जवानों के घायल होने के बावजूद  कोई सबक नहीं सीखा है। यहां तक कि जनवरी 2016 में पठानकोट एयर बेस पर आतंकी हमले के बाद लै. जनरल फिलिप कैम्पोज की अध्यक्षता में गठित की गई तीनों सेनाओं  की संयुक्त समिति की सामाजिक सिफारिशों तक पर भी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। मार्च 2015 में पठानकोट और आसपास के क्षेत्र में 2 आतंकी हमले हुए थे। 20 मार्च 2015 को आतंकियों के आत्मघाती दस्ते ने भारतीय सैनिकों की वर्दी में कठुआ जिले के एक पुलिस थाने में घुस कर 7 कर्मचारियों की हत्या कर दी थी। 27 नवम्बर 2014 को 3 सैनिक और 4 सिविलियन उस समय शहीद हो गए जब जम्मू जिले के अर्निया सैक्टर के सीमावर्ती कठार गांव में आतंकियों से दिन भर मुठभेड़ चलती रही। 

29 नवम्बर 2016 को नगरोटा  में हुए हमले में एक आत्मघाती आतंकी दस्ते ने सैन्य आधार शिविर को निशाना बनाकर 2 अधिकारियों सहित 7 जवानों की हत्या कर दी। फिदायीन हमलों के बहुत लम्बे-चौड़े विवरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं लेकिन 100 सवालों का एक सवाल यह है कि कश्मीर की लगातार बिगड़ रही स्थिति के लिए मोदी सरकार के पास क्या उत्तर है? अब तो स्थिति यह है कि सीमापार से आने वाले आतंकियों को देश के अंदर पैदा हुए उग्रवादियों से समर्थन और सहायता भी मिल रही है। लश्कर-ए-तोयबा के जेल में बंद आतंकी नवीद चाट उर्फ अबु हन्जुल्ला के 9 फरवरी को श्रीनगर के एस.एम.एस.एच. अस्पताल में से हिरासत में से भाग निकलने के बाद जम्मू-कश्मीर सरकार तिलमिला कर रह गई। इस घटना से यह जगजाहिर हो गया कि राज्य और केन्द्रीय सरकारें प्रदेश में आतंकवाद से निपटने के मामले में कहां तक ‘गंभीर’ हैं। डी.जी.पी. एस.पी. वैध ने स्वयं यह माना कि सुरक्षा में चूक हुई है। 

सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2015 से लेकर 2017 तक जम्मू-कश्मीर में 289 पुलिस कर्मियों, सिविलियनों व सुरक्षा बलों के जवानों की मौत आतंकवाद के कारण या फिर अमन कानून की बिगड़ी स्थिति अथवा सीमापार से होने वाली गोलीबारी के कारण हुई है। इसी अवधि दौरान कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी की 4376 घटनाओं में 110 सिविलियन और 2 पुलिस कर्मी मारे गए। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने विधानसभा में स्वयं यह स्वीकारोक्ति की कि आतंकियों में भर्ती होने वाले स्थानीय कश्मीरी युवकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। उन्होंने कहा कि 2017 में 126 युवक आतंकियों में शामिल हुए जबकि 2016 और 2015 में यह संख्या क्रमश:  88 और 16 थी। यह सच है कि गत 2 वर्षों दौरान  363 उग्रवादी मारे गए। इनमें से 244 का इस राज्य से कोई संबंध नहीं था। गत 2 वर्षों दौरान ही सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में 119 स्थानीय उग्रवादी भी मारे गए थे। इनमें से 86 उग्रवादी तो केवल 2017 में ही मारे गए थे। 

आंकड़ों के खेल से भी अधिक महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि इस प्रक्रिया को उलटा कैसे घुमाया जाए? हमारे नेतृत्व की विफलताओं के लिए देश को भारी कीमत अदा करनी पड़ रही है। अब सवाल इतिहास पर किन्तु या परन्तु करने का नहीं और न ही जवाहर लाल नेहरू बनाम सरदार पटेल का है, बेशक हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस मुद्दे को उठाया था। कश्मीर नीति की अतीत की गलतियां निश्चय ही बहुआयामी हैं। दुख की बात तो यह है कि हमारे नेता यदा-कदा इन गलतियों को दोहरा कर इनमें वृद्धि करते रहते हैं। देश की त्रासदी यह है कि अधिकतर नेता बातें बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन न तो जमीनी हकीकतों को समझ पाते हैं और न ही ऐतिहासिक तथ्यों को गहराई से उनके सही परिप्रेक्ष्य में आंकते हैं।

हमारे सुरक्षा बल उपलब्ध राजनीतिज्ञ चौगटे में बहुत कमाल की कारगुजारी दिखा रहे हैं। कश्मीर की समस्याएं मुख्य तौर पर राजनीतिक प्रकृति की हैं। उदाहरण के तौर पर हाल ही में सेवानिवृत्त जनरल वी.पी. मलिक ने कहा था : ‘‘यदि नागरिकों के मानवाधिकार हैं तो जवानों और अफसरों के लिए यही अधिकार क्यों नहीं।’’ बेशक सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर पुलिस को सेना के जवानों और अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई करने से रोक दिया है लेकिन फिर भी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती  इस एफ.आई.आर. का समर्थन कर रही हैं। कटु वास्तविकता यह है कि पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन ने राज्य को उलटी दिशा में चला रखा है। कश्मीर में ओछी राजनीति, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नहीं।-हरि जयसिंह


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