नेहरू परिवार के राजनीतिक उत्तराधिकारी की असली परीक्षा अब

punjabkesari.in Monday, Feb 13, 2023 - 05:04 AM (IST)

भारत जोड़ो यात्रा के रूप में राहुल गांधी ने जो कर दिखाया, उसकी उम्मीद शायद ही किसी को रही होगी, लेकिन इससे उनकी राजनीतिक चुनौतियां समाप्त नहीं होतीं, बल्कि असली परीक्षा तो अब शुरू होगी। यह परीक्षा होगी राज्य-दर-राज्य गुटबाजी से ग्रस्त कांग्रेस को जोडऩे की। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक लगभग साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी यात्रा क्यों की इस पर राजनीतिक गलियारों में काफी कुछ कहा जा चुका है। 

निष्कर्ष देशवासियों के विवेक पर छोड़ देते हैं। हां, पार्टटाइम अगंभीर राजनेता की तरह देखे जाने वाले राहुल की छवि भारत जोड़ो यात्रा से निश्चय ही सुधरी है। लगातार दो लोकसभा चुनाव और दर्जन भर से भी ज्यादा विधानसभा चुनाव हारने से हताश कांग्रेस में उम्मीद की किरण भी जगी है, पर अब असली चुनौती इसे बरकरार रखते हुए आगामी चुनावी परीक्षाओं में सफलता हासिल करने की है। इसलिए नेहरू परिवार के इस राजनीतिक उत्तराधिकारी की असली परीक्षा खुद अपनी पार्टी को एकजुट करने-रखने की है, जो अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है।

ऐसा नहीं कि राहुल को अपनी पार्टी की कमजोरियों का एहसास नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी शर्मनाक पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से पहले पार्टी की बैठकों में उनकी टिप्पणियां बताती हैं कि वह अपनी पार्टी के नेताओं की सत्ता लोलुपता और दरबारी संस्कृति से बखूबी परिचित हैं। 

खुद राहुल ने तो पद-त्याग दिया, लेकिन विधानसभा चुनावों में सत्ता पाने के चंद महीने बाद ही राज्य की लगभग सभी लोकसभा सीटें गंवा देने के लिए किसी मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष ने नैतिक जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं महसूस की। राहुल के इस्तीफे के बाद लगभग 3 साल सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष रहीं और पिछले साल चुनाव प्रक्रिया के जरिए मल्लिकार्जुन खरगे नए कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए, लेकिन इस बीच कांग्रेस-संस्कृति में किसी बदलाव की गलतफहमी अगर रही भी होगी तो भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दूर हो गई होगी। 

यह अकारण नहीं है कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी विभिन्न गुटों के नेताओं को साथ खड़े करते-बिठाते दिखे, पर वास्तविकता यही है कि वह एकता का प्रदर्शन भर था। मीडिया की भाषा में कहें तो फोटो अपॉच्र्युनिटी। जैसा कि शुरू में कहा गया है कि देश भर में कांग्रेस गुटबाजी से ग्रस्त है, लेकिन राहुल गांधी की बड़ी ङ्क्षचता वे राज्य होने चाहिएं, जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं और कांग्रेस-भाजपा के बीच लगभग सीधा मुकाबला है। 

त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है। असम के बाद त्रिपुरा तो पूर्वोत्तर में दूसरा भाजपा शासित राज्य बन चुका है, लेकिन मेघालय और नागालैंड में अगर कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से बेहतर तालमेल बिठा पाए तो अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रदर्शन कर सकती है, वरना केंद्र में सत्तारूढ़ दल होने का फायदा इन राज्यों में किसी से छिपा तो नहीं है। इसलिए राहुल गांधी और कांग्रेस की असली परीक्षा अन्य दक्षिण और उत्तर भारतीय राज्यों के चुनाव होंगे। दक्षिण में भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस मजबूत है, इसलिए वहां बेहतर प्रदर्शन का दबाव रहेगा। कर्नाटक दक्षिण भारत में भाजपा का प्रवेश द्वार रहा है, लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में वह बहुमत का आंकड़ा पाने से चूक गई थी। राज्यपाल ने सबसे बड़े दल के नेता के नाते बी.एस. येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिलवा दी, पर बहुमत का जुगाड़ न हो पाने पर बेआबरू विदाई झेलनी पड़ी। 

परिणामस्वरूप कांग्रेस द्वारा जनता दल सैक्युलर के नेता एच.डी. कुमार स्वामी के नेतृत्व में सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया। वह सरकार सवा साल ही चल पाई और सत्तारूढ़ गठबंधन के 16 विधायकों के इस्तीफे और दो निर्दलीयों के पाला -बदल से येदियुरप्पा की सत्ता में वापसी हो गई। फिलहाल वहां बसव राज बोम्मई भाजपाई मुख्यमंत्री हैं, पर कांग्रेस की सत्ता में वापसी का दावा तो बनता है। राहुल की अध्यक्षता में कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा से सत्ता छीनने में सफल रही थी। बेशक मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल के चलते कमलनाथ सरकार गिर गई और भाजपा सरकार की वापसी हो गई, लेकिन कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए जरूरी है कि वह इन तीनों राज्यों में विजयी प्रदर्शन करे, पर वह आसान नहीं। भारत जोड़ो यात्रा के बाद सचिन पायलट की अचानक सक्रियता अशोक गहलोत की पालकी उठाने के लिए तो नहीं है। 

आलाकमान ने पिछली बार भी पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन दिया था, पर जो हुआ, सबके सामने है। पायलट फिर आलाकमान के आश्वासन पर विश्वास करेंगे या किसी नई रणनीति पर काम कर रहे हैं? छत्तीसगढ़ में भी स्वास्थ्य मंत्री टी.के. सिंहदेव ने सार्वजनिक रूप से कहा कि पहले भूपेश बघेल और फिर उन्हें अढ़ाई साल के लिए मुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन आलाकमान ने दिया था, पर वैसा हुआ तो नहीं।
सिंहदेव फिर भरोसा करेंगे या नई राह चुनेंगे? 

मध्य प्रदेश में सिंधिया की बगावत से हुए नुक्सान की भरपाई की कोई कांग्रेसी रणनीति नजर तो नहीं आई? देश के दिल दिल्ली में लोकसभा-विधानसभा के बाद नगर निगम में भी कांग्रेस पूरी तरह अप्रासंगिक बन गई है। पंजाब में कांग्रेस का हश्र सबके सामने है तो पड़ोसी हिमाचल में सत्ता मिल जाने के बावजूद हरियाणा में गुटबाजी की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले लगभग नौ साल से प्रदेश में संगठन तक नहीं बन पाया। इस अस्त-व्यस्त-त्रस्त कांग्रेस को दुरुस्त करने की परीक्षा पास किए बिना राहुल राष्ट्रीय राजनीति में भी कुछ नहीं कर पाएंगे।-राज कुमार सिंह    
    


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News