अब राजनीति में चुनाव जीतना और सत्ता हथियाना ही मुख्य मकसद

punjabkesari.in Tuesday, Aug 02, 2022 - 05:35 AM (IST)

1947 के बाद देश में राष्ट्रवादी चेतना प्रबल थी। राष्ट्र सर्वप्रथम के बोध ने स्थानीय मुद्दों, अस्मिता और जातीय चेतना को किनारे कर रखा था या ये सुषुप्त थी। 1960 से  लेकर 1990 के तीन दशकों तक भारत में अस्तित्व (identity) की राजनीति पूरी तरह से हावी रही। इसने राष्ट्रीय दल कांग्रेस के साथ ही, राष्ट्रीयता की भावना को भी नजरअंदाज कर दिया। भाषा, जाति, संस्कृति और वर्ण (race) की राजनीति ने, बाकी सारे सिद्धांतों और विचारधाराओं के किले को लगभग ध्वस्त कर दिया। प्रारंभ में भूमिपुत्रों (son of soul) और भाषापुत्रों ने ङ्क्षहसक आंदोलनों का मार्ग चुना। 

इसी दौरान दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों ने भी अपने-अपने तरीके से प्रभुत्व वाली जातियों के विरोध में राजनीतिक और सामाजिक विरोध दर्ज कराना शुरू किया जिसकी परिणति चुनावी राजनीति से ऊंची जातियों या दबदबे वाले समाज को सत्ता से बेदखल करने से हुई। इस प्रकार अस्तित्व और पहचान की राजनीति ने आजादी के आंदोलन से निकले पारंपरिक नेतृत्व को चुनौती देना शुरू कर दिया।

अस्मिता और अस्तित्व की राजनीति :  इसकी शुरूआत पंजाब में अकालियों ने सिख पंथ और मद्रास (अब तमिलनाडु) में द्रमुक मुनेत्र कषगम (डी.एम.के.) ने तमिल अस्मिता के आधार पर की। 1965 में डी.एम.के. पार्टी के नेतृत्व में हिंदी विरोधी चिंगारी ने तमिलनाडु की राजनीति में भाषाई और सांस्कृतिक भिन्नता की राजनीति को हवा दी। इसके सहारे डी.एम.के. सत्ता की सीढ़ी चढ़ी। 

पंजाब में सिखी को राजनीतिक हथियार बनाया, तो महाराष्ट्र में शिवसेना ने मराठी अस्मिता का नारा बुलंद किया। 1972 के बाद हुए ‘असम आंदोलन’ से असम गण परिषद पार्टी सत्ता में आई। इन्होंने स्थानीय (असमिया) और बाहरी (बंगलादेशी) का मुद्दा बनाकर राज्य में सरकार बनाई। साथ ही मेघालय में गारो, जयंतियां, खासी जनजातियों की अस्मिता को जगाकर मेघालय राज्य का निर्माण किया गया। 

नागालैंड, मणिपुर, सिक्किम, अरुणाचल और मिजोरम भी अपने-अपने राज्य की जनजातियों की अस्मिता और अस्तित्व की राजनीति करने लगे। इन राज्यों को जनता ने भी अस्मिता के मुद्दों का दिल खोलकर समर्थन किया जिससे भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का जबरदस्त उभार हुआ। एक ओर पहाड़ी भागों में जनजातीय अस्मिता का हिंसक उभार था, तो दूसरी ओर मैदानी भागों में जातीय अस्मिता की राजनीति परवान चढ़ रही थी। 1971 में महाराष्ट्र में शुरू हुए दलित पैंथर आंदोलन ने दलित वोटरों की राजनीतिक अस्मिता को गढ़ा, दूसरी ओर मराठा जाति समूह और भी मुखर हो गया। 

1979 के नामांतर आंदोलन ने महाराष्ट्र की राजनीति को पूरी तरह जातीय अस्मिता की चाशनी में डुबो दिया। कर्नाटक में गौड़ा और ङ्क्षलगायत, आंध्र प्रदेश में कम्मा और रैड्डी, केरल में नायर, एजहावा जातियों का उभार हुआ। 

विचारधारा और राष्ट्रवादी राजनीति का पुनरुत्थान : 1990 के दशक  में भारतीय राजनीति में दो प्रमुख मोड़ आए। इसे ‘मंडल- कमंडल’ की राजनीति के नाम से प्रसिद्धि मिली। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करके पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला। इससे राजनीति में ओ.बी.सी. जातियों की गोलबंदी मजबूत हुई। लेकिन इसका तोड़ जल्द निकल आया। राम मंदिर आंदोलन को तीव्र करके भाजपा ने जातीय समीकरण को हिंदू एकीकरण में बदलने का प्रयास किया। 

इसकी गति बेशक धीमी रही लेकिन अधिकांश पार्टिंयां जैसे शिवसेना ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को अपनी मूल विचारधारा के रूप में अपनाया। चुनावी राजनीति में इसका फायदा भी मिलने लगा। इसके साथ ही 1970 के दशक में शुरू हुए सभी जातीय, भाषाई और वर्ण आधारित आंदोलन या तो समाप्त हो गए, या प्रभावहीन होकर मुख्यधारा में विलीन हो गए। 

2014 में भाजपा को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा और राज्यों में जबरदस्त जीत मिली। इसी के साथ भारतीय राजनीति में विचारधारा (जिसका केंद्र हिन्दुत्व है) और राष्ट्रवाद (जिसका केंद्र भारतीयता है) का फिर से उभार हुआ। साथ ही लगभग सभी पार्टियों और आंदोलनों ने ( विपक्षी सहित) भाजपा की कार्यप्रणाली, संगठन रचना और हिंदुत्व का समर्थन ( या विरोध न करना) शुरू कर दिया। लेखक इसे ‘भाजपा सिस्टम’ कहता है। 

निष्कर्ष : अत: यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि भारतीय राजनीति और समाज राजनीति के अगले दौर में प्रवेश कर गया है। अस्मिता और अस्तित्व की राजनीति ने पिछड़े समाज में एक निश्चित राजनीतिक चेतना विकसित की। इससे दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों की पार्टियां सत्ता में भी आईं। लेकिन इन सभी के नेतृत्व ने सारे राजनीतिक फायदे और शक्तियां खुद हथिया लीं। परिवारवाद की बहार आ गई। इसी वजह से अस्मिता की राजनीति से समाज का मोहभंग हो रहा है। 

अब भारतीय राजनीति एक ऐसी दिशा में है जिसमें विचारधारा और भारतीयता चुनावी राजनीति के मानक बन रहे हैं। अब भारतीय राजनीति में चुनाव जीतना और सत्ता हथियाना मुख्य लक्ष्य बनता जा रहा है लेकिन यह सब विचारधारा और राष्ट्रवाद के दायरे में ही होगा।-डा. रवि रमेशचन्द्र
 


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