अब राहुल विपक्ष के नेतृत्व की स्पर्धा में नहीं रहेंगे

punjabkesari.in Friday, Mar 31, 2023 - 05:23 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी एकता की कवायद पर पिछले दिनों तंज कसा था कि जो काम मतदाता नहीं कर पाए, वह ई.डी. यानी प्रवर्तन निदेशालय ने कर दिया। मानहानि मामले में राहुल गांधी को सजा और परिणामस्वरूप उनकी लोकसभा सदस्यता की समाप्ति पर विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया बताती है कि वह काम अब होता नजर आ रहा है। 

2014 में लगभग एकतरफा लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही विपक्षी एकता की जरूरत पर जोर दिया जाता रहा है। समय-समय पर इस दिशा में कोशिशें भी की जाती रही हैं, पर कोई नतीजा नहीं निकला, क्योंकि कभी दलगत हित आड़े आ रहे थे तो कभी नेताओं की सत्ता महत्वाकांक्षाएं।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी.आर. और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की कांग्रेस से एलर्जी खुला रहस्य है। इसी महीने सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव कांग्रेस से हारने के बाद ममता ने ऐलान किया था कि अगला लोकसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस अकेले लड़ेगी। फिर ममता से मिलने पहुंचे अखिलेश ने संकेत दिया कि उनका प्रस्तावित तीसरा मोर्चा, कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी रखेगा।

केजरीवाल और के.सी.आर. की राजनीति भी कमोबेश यही रही है, लेकिन गत बृहस्पतिवार जब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को मानहानि मामले में सूरत की अदालत ने दो साल की सजा सुनाई और परिणामस्वरूप अगले ही दिन उनकी लोकसभा सदस्यता भी समाप्त कर दी गई, उसके बाद मोदी सरकार और भाजपा के विरुद्ध तमाम विपक्षी नेता एक सुर में बोलते नजर आ रहे हैं। 

बेशक कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के रिश्तों में ङ्क्षखचाव के लिए किसी एक पक्ष को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों के समय राहुल गांधी ने तृणमूल कांग्रेस पर कटाक्ष किया था तो पिछले साल गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान आप कांग्रेस के निशाने पर रही थी। पिछले दिनों जब सी.बी.आई. ने जमीन के बदले नौकरी मामले में लालू यादव परिवार से पूछताछ की तो कांग्रेस ने तीखी प्रतिक्रिया जताई, लेकिन दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की शराब नीति घोटाले में गिरफ्तारी की ङ्क्षनदा करने के बजाय सघन जांच की जरूरत बताई। 

जाहिर है, उत्तर प्रदेश से ले कर दिल्ली, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल तक की राजनीति में हाशिए पर खिसक गई कांग्रेस वहां क्षेत्रीय दलों से भी परास्त हो जाने को पचा नहीं पा रही। इनमें से ममता और के.सी.आर. तो मूलत: कांग्रेसी भी रहे हैं, जबकि समाजवादी पार्टी और आप ने भी जनाधार कांग्रेस से ही छीना है, पर यह साम्राज्यवादी सोच है, जिसके लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं। लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन है और जो जीता, वही सिकंदर। इसलिए राष्ट्रीय दलों को क्षेत्रीय दलों को भी समान भाव से देखना चाहिए और वैचारिक आधार पर उनके साथ समन्वय भी बना कर चलना चाहिए। 

ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दलों से गठबंधन नहीं करते। आज भी केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार है। उससे पहले 10 साल तक कांग्रेसनीत यू.पी.ए. सरकार थी। समस्या यह है कि क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय दलों का व्यवहार यूज एंड थ्रो वाला रहता है, जो अपमानजनक ही नहीं, अलोकतांत्रिक भी है। इसीलिए जब भी मौका मिलता है, क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों को आंखें दिखाने से नहीं चूकते। 

यही कारण है कि जब 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मात्र 44 सीटों पर सिमट गई और 2019 में भी 53 तक ही पहुंच पाई, तो क्षेत्रीय दलों ने उसका नेतृत्व मानने से किनारा कर लिया। जब-तब संसद में सांझा रणनीति तो रही, पर उससे आगे बात नहीं बढ़ पाई। मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना और केंद्रीय जांच एजैंसियों के दुरुपयोग के आरोपों के बीच परस्पर वार-पलटवार भी चलता रहा, पर ताजा राहुल प्रकरण ने विपक्षी दलों के बीच की तमाम दूरियों को एक झटके में मिटा दिया लगता है। 

ममता से लेकर केजरीवाल और अखिलेश तक तमाम विपक्षी नेताओं ने इसे विपक्ष की आवाज बंद करने की कोशिश करार देते हुए मोदी सरकार पर तानाशाही का आरोप लगाया है। विपक्षी नेताओं की टिप्पणियों से ध्वनि यह भी निकल रही है कि सबको मिल कर लडऩा पड़ेगा। खासकर भारत जोड़ो यात्रा के बाद से कांग्रेस के तेवर भी क्षेत्रीय दलों के प्रति तलख हो गए थे, लेकिन सांसदी गंवाने के बाद गत शनिवार को अपनी पहली प्रैस कांफ्रैंस में राहुल ने भी कहा कि सब मिल कर लडेंग़े। 

इन बदलते समीकरणों के मूल में सांझा संकट और हित भी देखे जा सकते हैं। सोनिया-राहुल नैशनल हेराल्ड मामले में ई.डी. के शिकंजे में हैं, तो रॉबर्ट वाड्रा के विरुद्ध भी कई मामले हैं। आप के दो वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन तिहाड़ जेल में बंद हैं। के.सी.आर. की बेटी कविता से भी दिल्ली शराब नीति घोटाले मामले में ई.डी. पूछताछ कर चुकी है। लालू परिवार पर जमीन के बदले नौकरी मामले में शिकंजा कस रहा है तो शिव सेना के संजय राऊत भी ई.डी. के दायरे में हैं। तृणमूल के कई नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले हैं ही। 

एक ओर ज्यादातर विपक्षी दलों का नेतृत्व भ्रष्टाचार के मामले में कठघरे में है तो दूसरी ओर राहुल प्रकरण के बाद विपक्षी नेतृत्व भी टकराव का मुद्दा नहीं रह गया है। जिस तरह के मामले में राहुल को अधिकतम सजा सुनाई गई है, जिसके चलते उनकी सांसदी भी चली गई है, उसे कांग्रेस लोकतंत्र और देशहित में राजनीतिक शहादत का मुद्दा बनाएगी। अन्य विपक्षी दल भी चाहेंगे कि अपने विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों को इससे जोड़ कर मोदी और भाजपा के विरुद्ध बड़ा अभियान-आंदोलन छेड़ सकें।

जिसका चेहरा राहुल हों, जो चुनाव तक नहीं लड़ सकते यानी उन पर किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का आरोप नहीं लगाया जा सकेगा। और अब जब राहुल विपक्ष के नेतृत्व की स्पर्धा में नहीं रहेंगे तो अन्य नेताओं के लिए तो संभावनाओं के द्वार खुले ही रहेंगे। इसलिए आने वाले दिनों में विपक्षी एकता की कवायद और संसद के बाहर सड़क पर भी विपक्ष की सक्रियता अचानक बढ़ी दिखाई दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।-राज कुमार सिंह
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News