अब ‘सुप्रीम सुधारों’ का आया समय

punjabkesari.in Sunday, Aug 30, 2020 - 01:17 AM (IST)

भारत की सर्वोच्च न्यायालय को नजदीक से देखने वाले समीक्षक इस बात को लेकर सहमत होंगे कि पिछले 2 दशकों से इसकी भूमिका, कार्यप्रणाली तथा कार्रवाई में बहुत बदलाव आए हैं। कुछ ध्यान देने योग्य बातें यह हैं : जजों को बांटे जाने वाले मामलों की प्रणाली विशेष कर पीठासीन जज के मामले। 

पीठों की बनावट
अदालत के अधिकार क्षेत्र का विस्तार
कुछ निर्णयों का विधि शास्त्र संबंधी आधार
कार्यकारी शक्तियों का कटाव

पुरानी मान्यताएं प्रचलित 
कई स्कॉलरों ने न्यायिक सुधारों के बारे में लिखा। केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा कई सुधार भी हुए। संसद द्वारा विधेयक लाकर तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खुद अदालतों का गठन, और जजों की नियुक्तियां इत्यादि सुधारों को किया गया। इसके अलावा डिजिटलाइजेशन, मामलों का प्रबंधन और अब आभासी अदालतें। मगर फिर भी इन सब बातों के बावजूद विचलित करने वाले तथ्य जैसे प्रत्येक स्तर पर मामलों का बड़ी संख्या में लम्बित होना, जजों के पदों को न भरना तथा विवादियों के बीच आम असंतोष हो। यह भी ङ्क्षचता का विषय है कि जो न्याय दिया जाता है उसकी गुणवत्ता कैसी है। 

नए सिरे से न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में ङ्क्षचता व्यक्त की गई है। चिंता के यह कारण अधीनस्थ न्यायपालिका, उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय विभिन्न स्तरों के हैं। मेरा तत्काल ध्यान सर्वोच्च न्यायालय पर केन्द्रित है। जहां तक मूल अधिकारों की बात है तो यह अब मानवीय, पशु तथा पर्यावरण अधिकारों की है सर्वोच्च न्यायालय ‘कौन कहता है’ पर पहरेदार है। यह भूमिका तभी अदा की जा सकती है यदि अदालत पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो तथा मेरे हिसाब से वह स्वतंत्रता को संरक्षित तथा प्रदर्शित तभी किया जा सकता है यदि कुछ प्रमुख सुधार किए जाएं। यहां पर मैं कुछ अपेक्षित सुधारों की बात करता हूं। 

चाहिए : संवैधानिक कोर्ट
1. सर्वोच्च न्यायालय एक संवैधानिक कोर्ट हो। यह केवल उन केसों को सुने या फिर उन पर निर्णय दे जिसमें भारत के संविधान की व्याख्या हो तथा कुछ गिने-चुने मौकों पर उन केसों को निपटा जाए जिसमें लोगों की महत्ता तथा परिणामों से संबंधित कानूनी मुद्दे शामिल हों। मेरे प्रस्ताव के तहत सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीश एक कोर्ट के तौर पर बैठे हैं न कि खंडपीठ के हिसाब से। एक सवाल जो तत्कालीन रूप से उभरेगा वह यह है कि उच्च न्यायालयों की व्यवस्थाओं की अपील कौन सुनेगा? अपील का न्यायिक क्षेत्र विशेष तौर पर संघीय ढांचे में एक महत्वपूर्ण कार्य है तथा उच्च न्यायालय परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं दे सकती है। जवाब यह है कि अपील करने की अदालतों को बनाया जाए। अपील करने की 5 अदालतें हों। प्रत्येक अदालत में 6 न्यायाधीश हों। तीन न्यायाधीशों की 2 पीठ हो। सब मिलाकर 30 न्यायाधीश हों, यह एक ऐसे देश के लिए ज्यादा गिनती नहीं जिसकी जनसंख्या करोड़ों की है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय की क्षमता 34 है। देश की सर्वोच्च अदालत को अपील करने की कोर्ट तथा एक संवैधानिक कोर्ट के तौर पर भूमिका निभानी पड़ती है। 

2. पीठों को सौंपे जाने वाले केसों की प्रैक्ट्सि को बाहर करना जरूरी है। नई व्यवस्था के तहत यहां पर कोई भी पीठ न हो और न ही मास्टर ऑफ रोस्टर की जरूरत है। (आलोचकों का कहना है कि मास्टर ऑफ द रोस्टर, रोस्टर ऑफ द मास्टर के सिस्टम में बदल चुका है) मुख्य न्यायाधीश के तौर पर अपने 18 दिनों के छोटे से कार्यकाल के दौरान न्यायाधीश के.एन. सिंह की पीठ को कुछ मामले सौंपे गए तथा उन्होंने व्यवस्थाएं दीं। उनकी सेवानिवृत्ति के बाद उनकी कई व्यवस्थाओं की समीक्षा की गई तथा पलट दी गई। कोई एक कैसे बखान कर सकता है कि न्यायाधीश दीपक मिश्रा अपने विरुद्ध एक आरोप से संबंधित मामले में किसी दूसरी पीठ के न्यायिक आदेश को अति प्रभावी बना सकते हैं। इसी तरह न्यायाधीश रंजन गोगोई जिनकी पीठ को उनके विरुद्ध आरोपों से संबंधित मामले को सौंपा गया तथा पीठ ने सुनवाई की तथा अन्य दो न्यायाधीशों द्वारा हस्ताक्षरित आदेश को पास कर दिया। यह तो प्रबल उदाहरण हैं मगर हमें सर्वोच्च न्यायालय की पीठों को मामले सौंपने की प्रक्रिया को जुदा करना होगा। 

3. अन्य सुधार
क्योंकि पीठें मामले सुनती हैं  तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून बदलने योग्य हो जाता है। प्रत्येक ऊंची अदालतों ने अपने पूर्व के आदेशों को पलटा है। मगर ऐसे बदलाव आमतौर पर लोगों के बीच फैले कोलाहल के कारण होता है। हालांकि भारत में व्यवस्थाएं बदल दी जाती हैं क्योंकि 2 या 3 जजों की पीठ संवैधानिक पीठों की अनिवार्य व्यवस्थाओं को मानने से इंकार कर देती है या फिर ऐसा होता है कि 3 जजों की पीठ साधारण तौर पर अपने पूर्व के विचारों से भिन्न विचार रखती है। प्रैक्ट्सि कर रहे वकील कानूनी अनिश्चितता के कारण चिंतित रहते हैं। जबकि कानून  की व्याख्या तथा पुन: व्याख्या अलग तौर पर की जाती है तो नागरिकों के मनों में अपने निजी तथा व्यावसायिक मामलों को स्थापित करने में अनिश्चितता बनी रहती है। 

4. कार्यकारी : कार्यकारी को अपने कानूनी अधिकारियों के माध्यम से बिना किसी न्यायिक क्षेत्र के आधार पर प्रशासनिक या नीति निर्णय की न्यायिक तौर पर समीक्षा करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के साथ खड़ा होना जरूरी है। यदि कार्यकारी की नीति या प्रशासनिक निर्णय गलत है तो इसे सही करने के लिए संसद, विधायिका या फिर वोटिंग दोनों हैं। रिटायरमैंट के बाद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को पुरस्कृत करने का कार्यकारी के लिए क्षेत्र निकाल देना चाहिए। उन्हें जीवन भर के लिए पूरा वेतन तथा भत्ते मिलने चाहिएं। मगर उन्हें कोई भी संवैधानिक कार्यालय या पद स्वीकार नहीं करना चाहिए। यह सबसे छोटी वित्तीय लागत है जिसे राष्ट्र प्रसन्नतापूर्वक सर्वोच्च न्यायालय की  स्वतंत्रता को यकीनी बनाने के लिए बर्दाश्त कर लेगा। आप लोगों को और  सुधारों पर विचार करने की जरूरत है क्योंकि हमें स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायालय की जरूरत है।-पी. चिदम्बरम


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