‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ के दुरुपयोग पर लगाम लगाने की आवश्यकता
punjabkesari.in Thursday, Oct 30, 2025 - 04:16 AM (IST)
आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता और ‘डीप फेक’ बनाने की तकनीक के तेजी से प्रसार ने एक हैरान कर देने वाली स्थिति पैदा कर दी है। शिक्षित और जागरूक लोगों के लिए भी यह पता लगाना अक्सर मुश्किल होता है कि कोई तस्वीर या वीडियो असली है या कृत्रिम रूप से बनाया गया है। जो लोग नई तकनीक से अनभिज्ञ हैं, उनके लिए असली और नकली वीडियो और तस्वीरों में अंतर करना और भी मुश्किल है। भारत में यह समस्या और भी गंभीर है, जहां अब देश भर में इंटरनैट की पहुंच लगभग 95 प्रतिशत हो गई है और ग्रामीण इलाकों में रहने वाली अधिकांश आबादी तकनीक में तेजी से हो रही प्रगति से अनजान है।
चैट जी.पी.टी. जैसे आसानी से उपलब्ध आई.टी. टूल्स का इस्तेमाल करके ऐसे वीडियोज की भरमार है, जो नकली तो होते हैं लेकिन असली लगते हैं क्योंकि ये असली वीडियो से बनाए जाते हैं। मशहूर हस्तियां और बड़े राजनेता अक्सर ऐसे नकली वीडियोज का शिकार बनते हैं। यहां तक कि साइबर अपराधी भी अब नकली आवाजें निकालने या पीड़ितों को गुमराह करने के लिए वीडियो बनाने के लिए आॢटफिशियल इंटैलिजैंस का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस बढ़ते खतरे से निपटने के लिए केंद्रीय आई.टी. मंत्रालय ने आॢटफिशियल इंटैलिजैंस के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए सोशल मीडिया मध्यस्थ दिशा-निर्देशों में संशोधन का प्रस्ताव दिया है। 22 अक्तूबर को प्रकाशित मसौदा नियम डीपफेक और आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस का उपयोग करके बनाई गई सामग्री के बढ़ते खतरे पर नकेल कसने का प्रयास करते हैं। यह नियम मध्यस्थों के लिए कई नए दायित्व पेश करते हैं, जो ‘कृत्रिम रूप से उत्पन्न जानकारी’ के नियमन पर केंद्रित हैं, ऐसी जानकारी, जो कम्प्यूटर संसाधन का उपयोग करके कृत्रिम रूप से या एल्गोरिद्म के माध्यम से बनाई, उत्पन्न, संशोधित या परिवर्तित की जाती है, इस तरह से कि ऐसी जानकारी यथोचित रूप से प्रामाणिक या सत्य प्रतीत होती है।
मसौदा संशोधन के साथ अपने व्याख्यात्मक नोट में, मंत्रालय ने इन शब्दों में तर्क तैयार किया : ‘गलत सूचना के प्रसार को रोकने, प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने, चुनावों में हेरफेर करने और उन्हें प्रभावित करने या वित्तीय धोखाधड़ी करने के लिए।’ इस ढांचे में कृत्रिम रूप से उत्पन्न जानकारी को लेबल करने की परिकल्पना की गई है, जिसे किसी भी जानकारी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसे ‘कम्प्यूटर संसाधन का उपयोग करके कृत्रिम रूप से या एल्गोरिद्म के माध्यम से बनाया, उत्पन्न, संशोधित या परिवर्तित किया जाता है, इस तरह से कि यह प्रामाणिक प्रतीत होती है। नए नियमों के तहत, ऐसी सामग्री को एक स्थायी विशिष्ट मेटाडेटा या पहचानकत्र्ता का उपयोग करके प्रमुखता से लेबल किया जाना चाहिए, जो दृश्य सामग्री के कुल क्षेत्रफल का कम से कम 10 प्रतिशत और ऑडियो सामग्री की कुल अवधि के 10 प्रतिशत को कवर करे।
प्रस्तावित एक अन्य महत्वपूर्ण संशोधन यह है कि फेसबुक या इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के मामले में, किसी भी सामग्री को अपलोड करने से पहले, उपयोगकत्र्ता को यह घोषित करना होगा कि क्या वह सामग्री ए.आई.-जनरेटेड है, जिसके बाद ऐसे प्लेटफॉर्म द्वारा ऐसी घोषणा की सटीकता को सत्यापित करने के लिए उचित और उपयुक्त तकनीकी उपाय अपनाए जाएंगे। पुष्टि हो जाने पर उक्त सामग्री को एक उपयुक्त लेबल के साथ प्रदर्शित किया जाएगा, जो दर्शाता है कि ऐसी सामग्री कृत्रिम रूप से उत्पन्न की गई है।
तकनीक के दुरुपयोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की निश्चित रूप से आवश्यकता है। मशहूर हस्तियों और अन्य लोगों को निशाना बनाए जाने के कई उदाहरण सामने आए हैं। हालांकि, यदि कोई संशोधन नहीं किया जाता, तो नवम्बर के मध्य से लागू होने वाले मसौदा नियमों का कार्यान्वयन देश में व्याप्त सामग्री और तकनीकी निरक्षरता की विशाल मात्रा को देखते हुए मुश्किल होगा। नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत में 954 मिलियन इंटरनैट उपयोगकत्र्ता हैं और लगभग सभी गांव 3जी या 4जी नैटवर्क से जुड़े हैं। इस प्रभावशाली पहुंच के बावजूद, कई उपयोगकत्र्ता ए.आई.-जनित सामग्री को पहचानने में असमर्थ हैं, भले ही ऐसी सामग्री पर एक स्पष्ट लेबल लगा हो। लेबल संबंधी नए नियमों की सफलता उपयोगकत्र्ता की इस बात को समझने की क्षमता पर भी निर्भर करेगी कि इसका क्या अर्थ है। इसलिए सरकार के लिए यह जरूरी होगा कि वह इंटरनैट उपयोगकत्र्ताओं को तकनीक के दुरुपयोग के नुकसानों से परिचित कराने के लिए एक अभियान शुरू करे।
सरकार को ए.आई. की सहायता से निर्मित सामग्री और पूरी तरह से ए.आई. द्वारा निर्मित सामग्री के बीच अंतर भी स्पष्ट करना चाहिए। कई रचनाकार वीडियो की गुणवत्ता बढ़ाने, स्क्रिप्ट को परिष्कृत करने या प्रस्तुति में सुधार करने के लिए ए.आई. उपकरणों का उपयोग करते हैं, जो मानवीय रचनात्मकता को प्रतिस्थापित करने की बजाय उसे बढ़ाते हैं। उन्हें नए नियमों के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए, खासकर जब ऐसी सामग्री किसी को बदनाम या नुकसान पहुंचाने वाली न हो। नियमों में प्रावधान है कि ‘अवैध जानकारी को हटाने के लिए मध्यस्थों को सूचना केवल संयुक्त सचिव के पद से नीचे के वरिष्ठ अधिकारी द्वारा ही जारी की जा सकती है’। किसी वरिष्ठ नौकरशाह की मर्जी पर निर्णय छोडऩे की बजाय एक तंत्र स्थापित करना महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, शिकायतों के निवारण के लिए भी एक मार्ग की आवश्यकता है।-विपिन पब्बी
