मजबूत और विश्वसनीय चुनाव आयोग की जरूरत

punjabkesari.in Friday, Dec 02, 2022 - 05:00 AM (IST)

यह विडम्बना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र जिसमें भारत का चुनाव आयोग लाखों मतदाताओं को शामिल करते हुए चुनाव करवाने की दुनिया की सबसे बड़ी कवायद करता है, में आयोग के सदस्यों की नियुक्ति की दोषपूर्ण व्यवस्था है। 

तत्कालीन सरकार के पास मनमाने ढंग से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करने की एकमात्र शक्ति है जिनमें से कुछ चयन के मानदंडों को सार्वजनिक किए बिना मुख्य चुनाव आयुक्त बन जाते हैं। यह केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) के निदेशक, मुख्य सतर्कता आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त जैसे अन्य महत्वपूर्ण पदों के लिए नियुक्तियों के विपरीत है जहां प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश से मिलकर एक कालेजियम अवलम्बी का चयन करता है। 

कुछ अन्य लोकतंत्रों में मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति उनकी संसद द्वारा चुङ्क्षनदा समितियों के माध्यम से की जाती है और कुछ अन्यों में उम्मीदवार के चयन से पहले एक सार्वजनिक टैलीविजन बहस होती है। नियुक्ति और चुनाव आयोग के सदस्यों की सेवा की शर्तों में एक और दोष यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने के लिए महाभियोग के अलावा उनके खिलाफ उन्हें प्रतिरक्षा प्राप्त है। चुनाव आयुक्तों को समान सुरक्षा प्रदान नहीं की जाती।

सामान्य प्रथा यह है कि वरिष्ठतम चुनाव आयुक्त को प्रमुख के रूप में नियुक्त किया जाता है। मगर आयुक्तों के तौर पर उनका कार्यकाल प्रोबेशन की तरह है जिसमें वे सरकार को गलत पक्ष में रखने से बचते हैं। हाल ही में एक चुनाव आयुक्त द्वारा प्रधानमंत्री के अभियान पर सवाल उठाने का मामला हमारे पास एक उदाहरण है। संबंधित चुनाव आयुक्त को राज्य की एजैंसियों के क्रोध का सामना करना पड़ा तथा उन्होंने नौकरी से अपना इस्तीफा देने की प्राथमिकता  से अपनी जान बचाई। 

1993 तक जब सरकार ने चुनाव आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा की शर्तें और व्यापार का लेन-देन) अधिनियम 1991 बनाया, तब केवल मुख्य चुनाव आयुक्त के लिए प्रावधान था। संशोधन के बाद 2 चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की गई लेकिन उन्हें हटाए जाने के खिलाफ वैसी छूट नहीं दी गई जैसी कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सी.ई.सी.) को दी गई। 

सबसे शक्तिशाली सी.ई.सी. टी.एन. शेषन के कार्यकाल के दौरान संशोधन लाया गया। उन्होंने सी.ई.सी. की शक्तियों का सबसे प्रभावशाली तरीके से उपयोग किया और यह आमतौर पर सबको ज्ञात था कि राजनेता उनसे डरते थे। शेषन ने चुनावों को रद्द करने या उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार के दौरान स्वीकार्य खर्च या चुनाव प्रचार को कानून का उल्लंघन करने पर अयोग्य घोषित करने के लिए अपनी शक्तियों का उपयोग करने की धमकी दी। यहां तक कि चाय या पकौड़े परोसने का खर्च भी कुल स्वीकार्य खर्च में शामिल था। शेषन के अपने शब्दों में, वह ‘नाश्ते में राजनेताओं को खाते थे’ और आयोग के मामले को 6 साल तक लोहे के हाथों से संचालित करते रहे। 

सर्वोच्च न्यायालय, जिसने कि वर्तमान में चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर अपना आदेश सुरक्षित रखा है , ने भी टी.एन. शेषन द्वारा उठाए गए उपायों का उल्लेख किया है और कहा है कि उनके जैसे अधिकारियों का होना ‘दुर्लभ’ था। आयुक्तों के चयन में पारदर्शिता न होने के बावजूद चुनाव आयोग निष्पक्षता से दिखावा करता रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसा नहीं हो पा रहा। हाल के वर्षों के दौरान आयोग द्वारा पक्षपात स्पष्ट रहा है। चाहे वह सरकार के लिए सुविधाजनक चुनाव की तारीख तय करने से संबंधित हो या सत्ताधारी पार्टी की उपयुक्तता के आधार पर आदर्श आचार संहिता लागू करना हो। आयोग को निष्पक्ष नहीं माना गया है। 

यहां तक कि कोविड महामारी के समय में भी इसने तब तक सार्वजनिक रैलियों पर प्रतिबंध लगाने से परहेज किया जब तक कि प्रधानमंत्री ने अपनी अंतिम नियोजित रैली को पूरा नहीं कर लिया। राजनेताओं के एक वर्ग द्वारा साम्प्रदायिक और भड़काऊ बयानों के लिए आयोग द्वारा अनसुना कर दिया गया। हाल ही के एक अन्य उदाहरण में जब सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने को कहा तो इसने पहली बार राजनीतिक दलों द्वारा ‘मुफ्त की रेवडिय़ां’ के मुद्दे पर स्पष्ट रहने का विकल्प चुना। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करने के बाद आयोग ने यू-टर्न ले लिया है और इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों को नोटिस देने की मांग की। उम्मीद है कि सुप्रीमकोर्ट विश्वसनीयता के साथ अधिकारियों की नियुक्ति सुनिश्चित करके व्यवस्था को बचाने में मदद करेगी।-विपिन पब्बी    
 


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