राजग सरकार के पास ‘1984 के पीड़ितों को न्याय’ दिलाने का अवसर

punjabkesari.in Monday, Jan 30, 2017 - 12:37 AM (IST)

1984 में सिखों के नरसंहार में बचे लोगों को न्याय देने बारे भारत सरकार कितनी गंभीर है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसमें हर भारतीय को रुचि होनी चाहिए क्योंकि इससे स्पष्ट होगा कि व्यापक हिंसा की कार्रवाइयों में यह देश क्या कभी न्याय दे पाएगा अथवा नहीं।


इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए नरसंहार में 3,325 सिखों की हत्या की गई थी जिनमें से 2,733 केवल दिल्ली में ही मार डाले गए थे। इन हत्याओं में शामिल होने के लिए कांग्रेस के कुछ शक्तिशाली नेताओं का नाम लिया गया था। तब से एच.के.एल. भगत जैसे कुछ लोग मुकद्दमे का सामना किए बगैर खुद ही दुनिया छोड़ गए। 


सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर तथा कमलनाथ जैसे अन्य अभी भी आजाद घूम रहे हैं। रंगनाथ मिश्र आयोग, जिसने नरसंहार की जांच की और पीड़ितों की अनुपस्थिति में उनके वक्तव्यों को अलग-अलग रिकार्ड किया, राजीव गांधी सरकार को इसकी जिम्मेदारी से दोषमुक्त कर दिया।


इन 32 वर्षों के दौरान केन्द्र में लगभग एक दर्जन कांग्रेस तथा गैर-कांग्रेसी सरकारें आई-गईं मगर इस मामले में बहुत कम प्रगति हुई। वाजपेयी शासन में नानावती आयोग का गठन किया गया जिसकी रिपोर्ट मनमोहन सिंह सरकार ने मेज पर रखी। इस रिपोर्ट में बहुत से तथ्य सार्वजनिक हुए जो चौंकाने वाले थे। इस पर मनमोहन सिंह ने कांग्रेस की तरफ से देश से माफी मांगी। टाइटलर को अपना मंत्री पद खोना पड़ा मगर कोई न्याय नहीं हुआ।


नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने कार्रवाई करने का वायदा किया तथा सुझाव देने के लिए जी.पी. माथुर की अध्यक्षता में 23 दिसम्बर, 2014 को एक समिति का गठन किया। कुछ ही सप्ताहों में माथुर ने मामलों की पुनर्समीक्षा करने के लिए एक विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) के गठन का सुझाव दिया। एस.आई.टी. को पुुलिस स्टेशनों पर जाकर पूर्ववर्ती कमेटियों की फाइलों को देखना था जिन्होंने सबूत इकट्ठे किए थे। महत्वपूर्ण बात यह कि टीम को यदि कोई सबूत मिलता है तो उसे ताजा आरोप दायर करने की शक्तियां दी गई थीं।


टीम का गठन 12 फरवरी, 2015 को किया गया और इसने अपना कार्य शुरू कर दिया मगर कोई नया आरोप पत्र दाखिल करने में असफल रही। इसके बाद अगस्त 2015 में इसे एक वर्ष का कार्यकाल विस्तार दिया गया। हालांकि अगस्त 2016 तक कोई नए आरोप दाखिल नहीं किए गए। कोई प्रगति रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई और एस.आई.टी. को दूसरा कार्यकाल विस्तार दिया गया जो अब 11 फरवरी को समाप्त हो रहा है। यदि यह समय-सीमा एक बार फिर कोई न्यायपूर्ण कार्रवाई के बिना समाप्त हो जाती है तो यह दंगों के शिकार लोगों व दंगों में बचे लोगों से अन्याय होगा।


गृह मंत्रालय का कहना है कि 1984 के दंगों के संबंध में 650 मामले दर्ज किए गए हैं। इनमें से 18 को रद्द कर दिया गया था तथा 268 मामलों की फाइलें ‘खोजी नहीं जा सकीं’। एस.आई.टी. इन 286 मामलों की फिर से जांच कर रही है। नवम्बर 2016 में एक वक्तव्य में मंत्रालय ने कहा कि ‘अब 218 मामले जांच के विभिन्न चरणों में हैं। अभी तक आगे की जांच के लिए 22 मामलों की पहचान की गई है। आगे की कार्रवाई करने से पहले एस.आई.टी. ने इन 22 मामलों के संबंध में सार्वजनिक नोटिस जारी किए हैं।’


मंत्रालय का कहना है कि चूंकि एफ.आई.आर. गुरमुखी अथवा उर्दू में रिकार्ड की गई थी इसलिए उनकी जांच में देरी हो रही थी। इस पर विश्वास करना कठिन है क्योंकि भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनके पास इन भाषाओं का अनुवाद करने  काबर कौशल है।


मंत्रालय का वक्तव्य कहता है कि ‘मामलों के बहुत पुराना होने के कारण रिकार्ड्स इकट्ठा करने तथा उनकी जांच करने में कठिनाई आ रही है। इन कठिनाइयों को दरकिनार करते हुए एस.आई.टी. ने चुनौती स्वीकार की है और बहुत ध्यानपूर्वक इन मामलों की जांच के प्रयास किए जा रहे हैं तथा प्रभावित परिवारों को न्याय दिलाने के इन मामलों की जांच में पूरी सावधानी बरती जा रही है।’


दुर्भाग्य से, इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि इन जांचों में कोई प्रगति हो रही है। जिस संस्था एमनैस्टी इंडिया के लिए मैं काम कर रहा हूं, ने गत वर्ष इस विषय पर दिल्ली में एक कॉन्क्लेव का आयोजन किया था। हमने दंगों के शिकार तथा पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई समूहों के साथ काम किया है और उन्होंने इस मामले में कोई गंभीरता नहीं देखी है। 



उदाहरण के लिए, कोई भी पीड़ित जो उक्त अपराधों का प्रत्यक्षदर्शी था,  किसी भी प्रकार की जांच के लिए उसके वक्तव्यों को पुन: रिकार्ड करने के लिए सम्पर्क नहीं किया गया। यह बात परेशान करने वाली है क्योंकि इससे यह संदेश जाता है कि या तो इस मामले में एजैंसियों की रुचि नहीं है अथवा जानबूझ कर इस पर कार्रवाई नहीं की जा रही। उचित जांच के अभाव में कैसे नए आरोप दायर होंगे तथा कैसे न्याय मिल पाएगा?


व्यापक भारतीय दंगों का सामान्य स्वरूप ऐसा है कि सत्ताधारी पार्टी सत्ता में ही रहती है (दुर्भाग्य से ऐसी हिंसा समुदायों को संघटित बनाने में मदद करती है) और इस तरह से जांच अवरुद्ध की जाती है। ऐसा भारत में कई बार हो चुका है, अधिकतर कांग्रेस शासन के अंतर्गत। 


अब भाजपा के पास क्षति को काफी कम करने का अवसर है जो हमने एक समाज के तौर पर झेली है। पंजाब में शीघ्र ही होने वाले चुनावों में भाग लेने वाले अधिकतर दलों ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में 1984 के लिए न्याय दिलाने का वायदा किया है और यह एक अच्छी बात है।
हालांकि केन्द्र सरकार के लिए आज औजार पहले से ही उपलब्ध है। 


इसे एस.आई.टी. को एक और कार्यविस्तार नहीं देना चाहिए तथा प्रगति रिपोर्ट सार्वजनिक करनी चाहिए। देश में इस्तेमाल की जाने वाली पुरानी पंक्ति ‘तारीख पे तारीख’ यानी अनिश्चितकाल के लिए न्याय न देना, बहुत दुखद साबित होगी, यदि इस मामले में एक बार फिर इसका इस्तेमाल किया गया।

 


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