क्या नरेन्द्र मोदी इंदिरा गांधी की राह पर चल रहे हैं

punjabkesari.in Monday, Dec 05, 2016 - 02:00 AM (IST)

(आशुतोष): देश में राष्ट्रवाद की झूठी बयार बहाने की कोशिश चल रही है। कभी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के नाम पर और कभी कश्मीर के नाम पर। कभी सर्जिकल स्ट्राइक का बहाना बनाया जा रहा है और अभी नोटबंदी की आड़ में सिखाया जा रहा है कि जो लाइन में खड़ा नहीं होगा, जो नोट की तंगी की शिकायत करेगा वह देश के साथ खड़ा नहीं है। जैसे सीमा पर सिपाही कुर्बानी देता है, तकलीफ उठाता है वैसे ही आम आदमी को भी देश के निर्माण में, काले धन की बर्खास्तगी में कष्ट तो झेलना पड़ेगा। ऐसा कहा जा रहा है जैसे नोटबंदी न हो राष्ट्रवाद का कोई पर्व हो। 

लाइन में लगने से किसी को कोई गुरेज नहीं होगा अगर यह नियम अमीर और गरीब सबके लिए समान हो। आप देश भर में कहीं भी चले जाइए  बैंक में, ए.टी.एम. में, भीड़ में  वही लगा है जो रोज कमाता-खाता है। दिहाड़ी मजदूर, गरीब, निम्र मध्य वर्ग, रेहड़ी-पटरी वाला, ग्रामीण इलाकों में खेतिहर किसान या फिर कुछ नौकरीशुदा इंसान। 

अमीर आदमी कहां है इस लाइन में? पैसे वाला कहां खड़ा दिखता है इस लाइन में? बड़ा अफसर क्यों नहीं इस लाइन में मिलता? कोई बड़ा नेता या मंत्री भी इस लाइन से गायब है। यहां तक कि एम.एल.ए. और एम.पी. का भी नाम इस लाइन में खोजे नहीं मिलता। न तो बड़ा किसान है और न ही बड़ा उद्योगपति। तो क्या राष्ट्रवाद सिर्फ उनके लिए है जो गरीब हैं या मध्यवर्गीय जीवन यापन कर रहे हैं? और अमीरों तथा ताकत वालों के लिए राष्ट्रवाद का कोई मतलब नहीं है?

क्या देश में 2 तरह का राष्ट्रवाद चलेगा? ताकतवर का अलग और कमजोर का अलग? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि देश में काले धन की समस्या गरीबों की वजह से नहीं है। यह समस्या तो उनकी वजह से है जिनकी तिजोरियां पैसों से लबालब हैं और जिसका हिसाब वे देना नहीं चाहते या नहीं देते। सरकार के खजाने में जाने वाली धनराशि, लोगों के कल्याण में लगने वाला पैसा आयकर विभाग से छिपाया जाता है और उस पर टैक्स नहीं दिया जाता। ये लोग समाज के दुश्मन हैं। ऐसे लोगों की वजह से ही देश का विकास बाधित होता है। 

बच्चों के लिए स्कूल नहीं बनते। गरीबों के लिए अस्पताल नहीं बनते। सड़कें नहीं बनतीं। भुखमरी की कगार पर पहुंचे परिवारों तक कल्याणकारी योजनाएं नहीं पहुंच पातीं। लोगों के रहने के लिए सस्ते मकान नहीं बन पाते। कहीं किसान भूखों मर रहा है तो कहीं गरीब आत्महत्या करने को मजबूर है। यह काला धन देश के माथे पर एक काला धब्बा है। इसके खिलाफ जंग होनी चाहिए। लेकिन जब यह देखने में आए कि काले धन वाले की नोटबंदी में भी मस्ती है तो यह प्रश्र उठता है कि कहीं यह पूरा खेल इनकी मर्जी से तो नहीं रचा गया?

देश में 500 और 1000 के नोट तो बंद कर दिए गए और यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया गया कि काले धन वालों की शामत आ गई है, पर अब खबर यह आ रही है बैक डोर से शत-प्रतिशत काला धन बैंक में जमा हुआ। यानी काले को सफेद करने का एक काला बाजार पैदा हो गया। कहा यह जा रहा है कि आखिर यह काला धन माफिया अचानक कैसे पैदा हो गया? 

ये किन की औलाद हैं? 2 तरह की बातें की जा रही हैं। एक, देश के ताकतवर लोगों व भाजपा के दोस्तों को 8 नवम्बर को लागू होने वाली स्कीम की जानकारी थी और उन्होंने समय रहते काले धन को सफेद कर लिया। दो, काले धन का धंधा प्रशासन की रजामंदी से धड़ल्ले से चल रहा है। इस जरिए जिनको जानकारी नहीं थी वे भी काला धन सफेद करने में कामयाब रहे। 

लिहाजा काला धन तो नष्ट नहीं हुआ आम लोगों की शामत आ गई। जो जेल में होने चाहिएं वे पहले की तरह गुलछर्रे उड़ा रहे हैं और दूसरे किस्म के लोगों के परिवार तबाह हो रहे हैं। बच्चियों की शादियां टूट रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि उनकी राष्ट्र के प्रति भक्ति पर भी शक किया जा रहा है, जबकि दूसरे तबके को न देश की परवाह है और न ही वह राष्ट्रवाद की परीक्षा में बैठता है। वह राष्ट्रवाद को खरीद लेता है। 

दुर्भाग्य से देश का सबसे महंगा चुनाव लडऩे वाले लोग आज सत्ता में बैठे हैं और कैबिनेट मिनिस्टर हैं। यह सारा देश जानता है कि यह चुनाव सिर्फ काले धन से लड़ा गया। यह ऐसा गुप्त संदेश जिसकी जानकारी सबको है लेकिन एक के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं होती, क्यों? एक भी जेल नहीं गया। एक की भी प्रापर्टी जब्त नहीं हुई। विजय माल्या जैसे लोग देश छोड़कर कैसे भाग गए या भगा दिए गए यह आज तक पता नहीं चल पाया। ऐसे में एक सवाल मन में घुमड़ता है कि कहीं राष्ट्रवाद का भूत खड़ा करके कोई और गोरखधंधा तो नहीं चल रहा है? आखिर इससे किसका भला हो रहा है? कौन है जो नहीं चाहता कि देश में असली मुद्दों पर चर्चा हो?

मोदी जी ने 2014 के चुनाव के पहले देश को रिन से चमका देने का वचन दिया था, पर क्या हुआ अढ़ाई साल में? कहां पहुंचा मुल्क? आम आदमी की मुश्किलें हल हो गईं क्या? महंगाई पर काबू पाया जा सका क्या? पाकिस्तान को सबक मिला क्या? कश्मीर की समस्या सुलझी क्या? महिलाएं अपने को सुरक्षित महसूस करने लगीं क्या? बच्चों को नौकरियां मिलने लगीं क्या? इत्यादि इत्यादि। 

ऐसा नहीं हुआ। पाकिस्तान से रिश्ते बद से बदतर हुए, कश्मीर हाथ से निकलता जा रहा है, खबरों के मुताबिक नौकरी न मिलने का आंकड़ा 5 साल के सबसे निचले पायदान पर है। आयात और निर्यात दोनों में भारी गिरावट है। डालर के मुकाबले रुपया लगातार फिसल रहा है। नोटबंदी के बाद तो छोटे व्यापारियों की तबाही तय है। अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले विद्वान तक कह रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था को तगड़ा ग्रहण लगेगा और वह संभल नहीं पाएगा। फिर भी तर्क यही दिया जा रहा है कि राष्ट्रवाद की घुट्टी नहीं पीने वाला देश से गद्दारी कर रहा है। 

पिछले दिनों कई ऐसी घटनाएं हुईं जो नए संकट की ओर इशारा कर रही हैं और हर बार उस संकट से ध्यान भटकाने के लिए राष्ट्रवाद का सहारा लिया गया। नोटबंदी उनमें से एक है। पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक का दावा करने के बाद जिसने भी उसकी हकीकत जानने की कोशिश की उसे देशद्रोही की संज्ञा दे दी गई। तर्क यही दिया गया कि ऐसे लोग पाकिस्तान के तर्क को मजबूत कर रहे हैं। देश की बजाय पाकिस्तान के साथ खड़े हैं। 

यह भी कहा गया कि सेना का मनोबल कमजोर किया जा रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में सूचना जानने का हक सभी को नहीं है। जबकि लोकतंत्र में हर संस्था जनादेश के अधीन होती है। फिर जब मध्य प्रदेश में तथाकथित आतंकवादियों के जेल तोड़कर भागने की खबर आई और बाद में सभी को मार गिराने का दावा किया गया तो भी यह कहा गया कि सवाल पूछने वाले आतंकवादियों की तरफदारी कर रहे हैं। ऐसे लोगों को पुलिस की जांबाजी नहीं दिखती। 

प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के गृह राज्यमंत्री दोनों ने अजीब बात कह दी कि पुलिस पर सवाल उठाना गलत है। सवाल पूछने वाले देश भक्त नहीं हैं। वे देश के साथ नहीं आतंकवादियों के साथ खड़े हैं। जबकि देश में पुलिस की छवि के बारे में सबको पता है। देश की सबसे भ्रष्ट संस्था में इसका शुमार होता है। आम नागरिक पुलिस थाने जाने से डरता है, वह ईश्वर से मनाता है कि पुलिस से उसका पाला न पड़े। और अगर पुलिस से सवाल पूछने की इजाजत नहीं होगी तो फिर क्या  होगा यह बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। 

यह राष्ट्रवाद की नई परिभाषा है। सेना पर सवाल मत करो। पुलिस से सवाल मत पूछो। लाइन में खड़ा न होने वाला देश से प्यार नहीं करता। हर कश्मीरी देशद्रोही है। जे.एन.यू. जैसा विश्व सम्मानित विश्वविद्यालय देशद्रोहियों का अड्डा है। सिर्फ प्रधानमंत्री जी ही देश के बारे में सोचते हैं और लोगों को उनकी राय से अलग राय रखने का अधिकार नहीं है। लोगों को उनके विचारों की आलोचना करने का हक नहीं है। बहुत पहले इंदिरा गांधी  ने भी काफी कुछ यही किया था। तब हर समस्या के लिए विदेशी हाथ को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता था। अमरीकी गुप्तचर एजैंसी सी.आई.ए. हर मर्ज का इलाज थी। 

जैसे-जैसे सरकार की नाकामियों से जनता में क्षोभ बढ़ता गया इंदिरा गांधी का यह बेतुका तर्क बढ़ता गया और दमन का कारण बनता गया। हालात यहां तक बिगड़े कि देश में आपातकाल तक इस आड़ में लगा दिया गया, लेकिन जनादेश ने इसको स्वीकार नहीं किया।

क्या आज देश में ऐसे हालात बन रहे हैं? क्या देश आपातकाल की तरफ बढ़ रहा है? आपातकाल का अर्थ है नागरिकों  के मूलभूत अधिकारों का सत्ता द्वारा हनन। इस देश ने काफी सोच-विचार के बाद लोकतंत्र को अपनाया है, ऐसे में राष्ट्रवाद का सहारा लेकर सवाल करने और पूछने का अधिकार नहीं छीना जा सकता। अगर समय रहते इसका प्रतिरोध नहीं हुआ तो यह देश के एक गहरे संकट की ओर जाने का इशारा है।          
 


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