मात्र एम.एस.पी. को कानूनी हक बनाना क्या पूर्ण समाधान होगा

punjabkesari.in Tuesday, Dec 07, 2021 - 04:55 AM (IST)

तीन कानून... किसानों का एक लम्बा आन्दोलन... राज्य-शक्ति का मुजाहिरा कर अवरोध की असफल कोशिश... वार्ता-दर-वार्ता, फिर कानूनों की वापसी... किसानों का अड़े रहना और फिर वार्ता। क्या कृषि की समस्या का वाकई निदान होगा? 

देश के दो-तिहाई लोगों की आजीविका से जुड़ा सैक्टर (कृषि) एक लम्बे समय से बीमार है। लिहाजा इससे जुड़े 100 करोड़ लोग, जिन्हें किसान या खेत-मजदूर कहते हैं, भी बीमार हैं। फिर इन  रुग्ण किसानों का ‘उपचार’ सरकार एक ऐसे सिस्टम से करवाती है जो सुस्त, लचर और भ्रष्ट है। 

किसान एम.एस.पी. पर खरीद की कानूनी गारंटी की मांग कर रहा है। क्या यह इस बहु-आयामी समस्या का निदान है? क्या समस्या को उसकी पूर्णता में समझा गया है? क्या समस्या के कारण को जाना गया है? और अंत में, क्या एम.एस.पी. को कानूनी अधिकार बनाने से किसान अपना गेहूं-चावल सरकार या निजी हाथों को बेच पाएगा? और अगर यह सब कुछ संभव हो भी जाए तो क्या खेती पुश्त-दर-पुश्त लाभकारी पेशा बन सकेगी? 

किसान इस बात पर अड़े हैं कि एम.एस.पी. को कानूनी अधिकार बना दिया जाए तो उनकी समस्या खत्म हो जाएगी। क्या तब सारे छोटे किसान बैलगाडिय़ों से 5-5 क्विंटल गेहूं ले कर जब मंडी पहुंचेंगे तो उनका माल आढ़तिया आसानी से एम.एस.पी. पर ले लेगा या अगर नहीं तो क्या सरकारी क्रय-केन्द्रों के दरवाजे उनके स्वागत के लिए खुले होंगे? 

नहीं, पुराना अनुभव बताता है कि सरकारी अमला और आढ़तियों का एक अदृश्य पर बेहद शक्तिशाली गैंग बनेगा जो इन कमजोर किसानों को एक या दूसरे बहाने से, जैसे अनाज साफ करके लाओ, ‘गोदाम इन्चार्ज एस.डी.एम. साहब के यहां मीटिंग में गए हैं, कल आना’ या ‘बारदाना (बोरा) फटा है’, ‘आज तुम्हारा नंबर नहीं आएगा’ आदि कह कर उन्हें मंडी में आनाज बेचने से हतोत्साहित करेंगे? 

इस गोरखधंधे में फिर वही बड़े किसान, जिनका राजनीतिक दबदबा है और जिनका माल ट्रैक्टरों में आएगा, फायदे में रहेंगे। यह सब कुछ आज तक धड़ल्ले से होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। यानी एक और कानून और एक और इंस्पैक्टर राज अर्थात भ्रष्टाचार का एक नया अध्याय। 

कानूनी अधिकार और सिस्टम : कई कानून बने लेकिन अनुसूचित जाति/जनजाति की सदियों से जारी प्रताडऩा क्या 70 वर्ष में खत्म हो सकी? शिक्षा का अधिकार कानून 2009 बना लेकिन क्या आज गरीब का बेटा वही शिक्षा पाता है जो एक कलैक्टर के बेटे को मिलती है या क्या गांव की पाठशाला वही तालीम दे रही है जो महंगे कॉन्वैंट स्कूलों में मिलती है? भोजन का अधिकार 9 साल से मिला है लेकिन ताजा विश्व भूख सूचकांक में भारत अंतिम दर्जन भर देशों में है। तो क्या एम.एस.पी. का अधिकार मिल जाने से सरकारी मशीनरी की निष्क्रियता और भ्रष्टाचार खत्म हो जाएंगे? यह सोचना कि केवल एम.एस.पी. को कानूनी हक बनाने से अलाभकर खेती लाभकर हो जाएगी, भारी गलती होगी। 

खतरा यह है कि कानूनी अधिकार बना तो मंडियों या क्रय-केन्द्रों में सरकारी कर्मचारियों और बिचौलियों का जबरदस्त गैंग विकसित होगा जो कमजोर किसानों को मजबूर करेगा कि वे सस्ते दामों में उत्पाद बेचें, भले ही कागजों पर रेट कुछ भी लिखे जाएं। लिहाजा किसान नेताओं को एक नया आन्दोलन इस बात के लिए शुरू करना होगा कि छोटी-छोटी समितियां हों और वे कमजोर और छोटे किसानों का माल लेकर मंडियों और सरकारी क्रय-केन्द्रों पर सामूहिक रूप से प्रक्रिया में संलग्न रहें। इसके साथ ही किसानों के बीच, वैज्ञानिक खेती, जिसमें रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग न हो, की चेतना भी इन्हीं समितियों के जरिए विकसित करनी होगी। लागत कम होगी तो निर्यात के रास्ते खुलेंगे जिससे नए कृषि-युग का आगाज होगा। 

ये स्व-स्फूर्त समितियां, कालांतर में फार्मर्स-प्रोड्यूसर आर्गेनाइजेशन्स (एफ.पी.ओज) के रूप में उभर सकेंगी। स्वामीनाथन रिपोर्ट को आगे बढ़ाते हुए दलवई समिति ने भी देश में इस तरह के कम से कम 10,000 एफ.पी.ओज बनाए जाने की संस्तुति की। 

कम उत्पादकता एक बड़ा गतिरोध : देश में प्रति हैक्टेयर गेहूं उत्पादन 36 क्विंटल  से कम है, जो चीन से ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय औसत से भी 4 क्विंटल  कम है। उत्तर भारत के 2 राज्य पंजाब और मध्य प्रदेश, जिनका क्लाइमैटिक क्षेत्र लगभग समतुल्य है, प्रति हैक्टेयर क्रमश: 55 क्विंटल और 33 किं्वटल (55 प्रतिशत का अंतर) गेहूं पैदा करते हैं। यानी किसानों के लाभ में भी अन्तर। 

वैज्ञानिक खेती के प्रति एक नई चेतना कृषक समाज में जगानी होगी, जिसके लिए सामूहिक प्रयास किसान नेताओं के जरिए संभव है। फसल-वैविध्य, फसल चक्र और सही खाद-बीज से कम लागत में ज्यादा उत्पादन ही कृषि-संकट के खिलाफ मूल मंत्र हो सकता है। हम अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा कर रहे हैं, लिहाजा अब नकदी फसल की ओर रुख करना और खाद्यान्न के लागत मूल्य को कम कर निर्यातोन्मुख बनाना ही एकमात्र उपाय है। केवल एम.एस.पी. पर खरीद को कानूनी हक बनाना भ्रष्टाचार बढ़ाएगा और बाजार के मूल सिद्धांत के प्रतिकूल होने के कारण स्थायी समाधान नहीं दे सकेगा।-एन.के. सिंह 


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