चुनाव आयोग को कम वोटिंग के कारणों से सबक लेना चाहिए

punjabkesari.in Thursday, May 09, 2024 - 05:48 AM (IST)

तीसरे चरण के मतदान के अंत में आधे लोकसभा क्षेत्रों में मतदान संपन्न होने के साथ ही सबसे चिंताजनक बात जो सामने आई है, वह है मतदाताओं द्वारा कम मतदान। गत 2019 के चुनावों की तुलना में यह औसतन लगभग 3.5 प्रतिशत कम मतदान है, जिसका मतलब है कि लाखों मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। भारत के चुनाव आयोग द्वारा शुरू किए गए व्यापक जागरूकता अभियान और प्रधानमंत्री द्वारा सभी मतदाताओं और विशेष रूप से पहली बार मतदाताओं से की गई जोरदार अपील के बावजूद संख्या में गिरावट आई है।

गुजरात जैसे राज्यों में भी मतदान प्रतिशतता कम हो गई है, जहां मतदान लगभग 58 प्रतिशत है, जो 2014 और 2019 के चुनावों की तुलना में कम है। पिछले चुनाव में यह 64.11 फीसदी था। उत्तर प्रदेश में भी यही कहानी है। आम धारणा थी कि मतदान प्रतिशत कम होने पर कैडर आधारित राजनीतिक दलों को फायदा होता है, क्योंकि ऐसी पाॢटयों के प्रतिबद्ध कैडर मतदाता चाहे कुछ भी हो, मतदान के लिए जाते हैं। इसका यह भी तात्पर्य है कि गैर-कैडर आधारित राजनीतिक दल, जो फ्लोटिंग मतदाताओं पर निर्भर हैं, हारने वाले हैं। हालांकि यह सिद्धांत कई बार गलत साबित हुआ है। जाहिर तौर पर इसमें अन्य कारक भी शामिल हैं।

इनमें से एक है वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के प्रति मतदाताओं की उदासीनता। एक वर्ग शायद इस निष्कर्ष पर पहुंचा होगा कि यह ‘एक पार्टी की दौड़’ है और मतदान करने का कोई मतलब नहीं। ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मतदाताओं ने एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं की मनमानी के डर से मतदान नहीं करने का फैसला किया। हालांकि इसका एक बड़ा कारण चुनावों का डेढ़ महीने से अधिक समय तक चलने वाला लंबा कार्यक्रम हो सकता है। देश में लोकसभा चुनाव कराने के लिए यह सबसे बड़ी अवधि है। और यह पहली बार है कि आम चुनाव के नतीजे जून महीने में घोषित किए जाएंगे। इससे राजनीतिक थकावट और देश भर में बढ़ते तापमान के कारण मतदान प्रतिशत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता था।

भीषण गर्मी के दौरान चुनावी प्रक्रिया को इतनी लंबी अवधि तक फैलाने के सवाल पर चुनाव आयोग के पास कोई विश्वसनीय जवाब नहीं है। देश के अधिकांश हिस्सों में तापमान पहले ही 40 डिग्री सैल्सियस को पार कर चुका है और मई के महीने में इसके और खराब होने की संभावना है। केवल एक ही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि चुनाव आयोग प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के अन्य स्टार प्रचारकों के अभियान की उपयुक्तता से प्रभावित हुआ होगा। विशिष्ट राज्यों में प्रक्रिया को एक बार में पूरा करने और सुरक्षा बलों को अन्य राज्यों में ले जाने की बजाय बिखरे हुए चरण, चुनाव की तारीखें तय करने में कुछ ‘रणनीति’ का संकेत देते हैं। आयोग यह रुख अपना सकता है कि मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है और इसलिए लंबी अवधि की आवश्यकता है। हालांकि, यह याद रखने योग्य है कि अतीत में आम चुनाव एक सप्ताह के भीतर खत्म हो जाते थे... कभी-कभी 1980 की तरह दो दिनों में भी।

चिंता का एक और मुद्दा ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की चर्चा है, जिसे भाजपा ने सत्ता बरकरार रहने पर लागू करने का वादा किया है। लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने के लिए बहुत बड़े बुनियादी ढांचे और संसाधनों की आवश्यकता होगी। देश के लिए एक राष्ट्र एक चुनाव योजना की सिफारिश करने वाली समिति का नेतृत्व करने वाले पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने सुझाव दिया है कि चुनाव हमेशा मतदाताओं की अधिकतम भागीदारी के लिए अनुकूल मौसम की स्थिति में होने चाहिएं। शायद मतदान के लिए फरवरी-मार्च या अक्तूबर-नवंबर पर विचार किया जाना चाहिए, भले ही इसका मतलब मतदान के लिए मौसम की स्थिति के अनुरूप लोकसभा या विधानसभा की शर्तों को कम करना हो। -विपिन पब्बी


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News