2019 के चुनावों में ‘कश्मीर’ मोदी के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं होगा

punjabkesari.in Sunday, Jun 24, 2018 - 04:16 AM (IST)

कश्मीर में घूम-फिर कर गधी फिर से बरगद के नीचे पहुंच गई है। बिल्कुल विपरीत विचारधाराओं वाले दलों में ‘पाणिग्रहण’ के साढ़े 3 वर्ष पुराने प्रयोग की परिणति अचानक तलाक में हुई है। 

कनिष्ठ सहयोगी भाजपा ने अचानक प्लग खींच लिया और महबूबा मुफ्ती सरकार की बत्ती गुल हो गई। जिस सरकार के खाते में अफरा-तफरी तथा धरती का स्वर्ग मानी जाने वाली आबादी में खूनखराबे के सिवाय कोई खास उपलब्धि नहीं, उसके गिर जाने पर किसी भी आंख से आंसू नहीं टपका। अब सैन्य सशस्त्र बलों और कश्मीरी जनता के बीच मेल-मिलाप की क्षीण सी संभावना भी समाप्त हो गई है और लगता है कि हमें काफी लंबे समय तक कठिन परिस्थितियों में से गुजरना होगा।

राज्य में जो हिंसक विभाजन रेखा पैदा हो गई है उसके दोनों ओर के मुद्दई एक-दूसरे को नोच लेने को उतावले हैं। अब दोनों ही अपने-अपने रास्ते पर आगे बढऩे को स्वतंत्र हैं और इस काम को वे काफी हिंसात्मक तरीके से अंजाम देंगे। स्थिति सामान्य होने की कल्पना तो कोई भी कर सकता है लेकिन इससे पहले हमें काफी उपद्रव एवं उत्पात का सामना करना पड़ेगा। कुछ भी हो, कश्मीर के मामले में स्थिति सामान्य होने का अर्थ व्यापक रूप में यह है कि एक या दो दिन के लिए हिंसा नहीं होती। 

इस समय पाकिस्तान राष्ट्रीय चुनावों की ओर बढ़ रहा है और इन चुनावों का परिणाम भी निर्णायक होने की कोई संभावना नहीं। इससे पाकिस्तानी सैन्य मुख्यालय की बांछें अवश्य ही खिलेंगी और ऐसी स्थिति में जेहादी हिंसा में तेजी आएगी इसलिए भारतीय सेना को कश्मीर में तैयार-बर-तैयार रहना होगा। मुफ्ती सरकार कश्मीरियों को बंदूक की संस्कृति से दूर हटाने की अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी में विफल रही क्योंकि पी.डी.पी. की दुनिया केवल कश्मीर घाटी तक ही सीमित थी जबकि प्रदेश भाजपा नेतृत्व जम्मू क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित किए हुए था और दोनों ही विपरीत दिशाओं में खींचातनी कर रही थीं। दोनों में अप्राकृतिक या मजबूरी का मिलन कोई बीच का रास्ता तैयार करने में सफल नहीं हो पाया। अब सारी निगाहें राज्यपाल वोहरा पर टिकी हुई हैं कि देखें, वह किस हद तक जुड़ाव पैदा कर सकते हैं। 

वोहरा चूंकि बहुत लंबे समय से श्रीनगर के राज भवन के बाश्ंिादे बने हुए हैं इसलिए कम से कम धारा 34-ए से तो छूट दिए जाने की जरूरत है क्योंकि यही धारा बाहरी लोगों को कश्मीर में जमीन-जायदाद के मालिक बनने से रोकती है। शायद वह तब तक अपने पद पर बने रहेंगे जब तक उनके भौंचक्के स्वामियों को उनका कोई विकल्प नहीं मिल जाता। वैसे तो 16 जून को ही उन्होंने जम्मू-कश्मीर को अंतिम अलविदा कह देनी थी और चंडीगढ़ स्थित अपने घर के लिए रवाना हो जाना था लेकिन केंद्र सरकार ने उन्हें पद पर बने रहने के लिए राजी कर लिया। अब की बार तो उन्हें राज्य प्रशासक के रूप में समस्त शक्तियां हासिल होंगी और उनके रास्ते में रोड़ा अटकाने वाली निर्वाचित सरकार नहीं होगी। अब वह जेहादियों व अन्य राष्ट्र विरोधी तत्वों के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ सकते हैं।

लेकिन जेहादियों को कोई छूट न देने की कथित डोभाल नीति के प्रभावशाली न होने के मद्देनजर राज्यपाल शासन के अंतर्गत कड़ाई बरतने की चाहे कितनी भी बातें क्यों न की जाएं, इनसे लोगों का भरोसा बहाल होने वाला नहीं। 2019 में भाजपा द्वारा प्रखर राष्ट्रवादी चुनावी अभियान के परिप्रेक्ष्य में कश्मीर के संबंध में टनों के हिसाब से कागज काले करने वाले विशेषज्ञ खुद नहीं जानते कि वे क्या बात कर रहे हैं। आर.एस.एस. और भाजपा को बहुसंख्यक हिंदू समुदाय का दिल जीतने के लिए राष्ट्रवाद का ढोल पीटने हेतु कश्मीर की जरूरत नहीं। कश्मीर उनके साथ हो या न हो, दोनों ही हालतों में देश में वे ही राष्ट्रवाद के एकमात्र ध्वजवाहक हैं। मुख्य रूप पर नेहरू की अस्पष्ट तथा अनिर्णायक नीतियों के कारण हम बहुत लंबे समय से कश्मीर समस्या के साथ जी रहे हैं। हम वार्ता और गैर-वार्ता के दो छोरों के बीच डावांडोल होते रहते हैं। यू.पी.ए. सरकार ने भी इन्हीं नीतियों को जारी रखा और मेरा मानना है कि गत 4 वर्षों दौरान मोदी सरकार ने भी इसी नीति का अनुसरण किया है। लेकिन इससे उसे न तो पाकिस्तान के साथ सक्रिय वार्तालाप चलाने की दृष्टि से लाभ हुआ है और न ही घाटी में तनाव कम करने में सफलता मिली। 

तो परमाणु सम्पन्न देश जब धरती के इस स्वर्ग पर अपना-अपना दावा ठोंक रहे हों और यहां के लोग दोनों के लिए ही अप्रासंगिक बन कर रह गए हों तो हिंसा के कभी न समाप्त होने वाले दुष्चक्र का कोई समाधान दिखाई देना असंभव है। विडम्बना देखिए कि बदनामी का जीवन जी रहे पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने जब यह कहा कि ‘‘कश्मीरियों को यदि मौका मिले तो वे स्वतंत्र रहने को ही प्राथमिकता देंगे’’, तो घाटी से संबंधित कांग्रेस के दिग्गज नेता सैफुद्दीन सोज ने अपने ही वर्तमान राजनीतिक कुनबे में ततैया का छत्ता छेड़ दिया। राहुल गांधी के लिए यह अपनी प्रतिभा दिखाने तथा अपने पूर्वज नेहरू की गलतियों को सुधारने का सुनहरी मौका हो सकता था और साथ ही सोज भी राहुल गांधी को आगे बढ़ाकर खुद एक दिग्गज नेता के रूप में स्थापित हो सकते थे। 

जहां तक कश्मीर के बारे में चर्चाओं को भाजपा की चुनावी संभावनाओं को सुदृढ़ करने के लिए एक सहारे के रूप में प्रस्तुत करने का संबंध है, मेरा मानना है कि मोदी को दूसरी बार 5 वर्ष के लिए सत्तासीन होने से रोकने वाली कोई भी शक्ति मौजूद नहीं। राहुल गांधी और ममता बनर्जी के नेतृत्व में अकेले मोदी विरुद्ध सभी प्रकार के विरोधियों के प्रस्तावित जमघट के बारे में लोगों को शायद जल्दी ही पता चल जाएगा कि इसमें न तो कोई केंद्रीय धुरी है और न ही आगे बढऩे के लिए कोई पहिया मौजूद है। ऐसे नकारात्मक मोर्चे अपना विशिष्ट रूप ग्रहण करने से पहले ही हवा हो जाते हैं। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रस्तावित महागठबंधन के बहुत से सहयोगी ऐन निर्णायक पलों में सत्ता में भागीदारी की संभावनाएं देखते हुए मोदी के काफिले में शामिल हो सकते हैं। यह भी हो सकता है कि चुनाव में बेशुमार धन बर्बाद करने और भ्रष्ट एवं अवैध ढंगों से कमाई गई अपनी सम्पत्तियों को बचाने के लिए भी वे मोदी का दामन संभाल सकते हैं। यानी कि 2019 के आम चुनाव में कश्मीर मोदी के लिए कोई बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है।-वरिन्द्र कपूर


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