कर्नाटक-तमिलनाडु जल-विवाद एक ‘संवेदनशील मुद्दा’

punjabkesari.in Wednesday, Sep 21, 2016 - 12:39 AM (IST)

मैंने जब टी.वी. पर बेंगलूरू के दंगों और हत्या की तस्वीरें देखीं तो मुझे भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की याद आ गई। जब बंटवारा हुआ तो मैंने ऐसा ही महसूस किया था और हमें, जो नए बने देश पाकिस्तान में रहते थे, को घर और चूल्हा-चक्की छोड़कर भारत पलायन करना पड़ा।

मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि विविध संस्कृतियों को जगह देने वाला बेंगलूरू शहर भाषाई अंधभक्ति का नजारा दिखाएगा जिसमें कन्नड़ तमिलों की हत्या करने की हद तक जाएंगे। कम्प्यूटर उद्योग की अगली कतार की कम्पनियों ने वहां अपनी शाखाएं खोलीं क्योंकि उन्हें यह शहर खुलेपन वाला और शांत लगा। उस समय अगर किसी ने मुझसे पूछा होता कि ऐसे नजारे बेंगलूरू जैसे शहर में दोहराए जा सकते हैं तो मैंने कहा होता-नहीं, कभी नहीं।

फिर भी ऐसा हुआ क्योंकि उदार समझे जाने वाले लोग संकीर्णता के नाम पर की गई अपील के कारण भावना में बह गए। सौभाग्य से तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता के अपने राज्य में ऐसी वारदातें नहीं होने देने के संकल्प ने राज्य में बदले की कोई कार्रवाई नहीं होने दी। वह इसके लिए सही मायने में प्रशंसा की हकदार हैं कि उन्होंने समस्या को उस हद तक जाने के पहले ही संभाल लिया कि यह अंधाधुंध ङ्क्षहसा तक पहुंच जाए।

कावेरी जल के बंटवारे को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच बहुत पुराना विवाद है। यह पहली बार नहीं है कि कर्नाटक ने छोड़े जाने वाले पानी की मात्रा के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से इंकार किया है। पहले भी जब भी ऐसी परिस्थिति हुई है तो दोनों ओर के लोग एक-दूसरे का गला पकड़ बैठे हैं। इसलिए बेंगलूरू में जो हो रहा है वह सिर्फ पहले की घटनाओं की पुनरावृत्ति है।

लेकिन रास्ता क्या है? कोई सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता लेकिन आमने-सामने बैठकर समस्या सुलझाई जा सकती है और हल तक पहुंचा जा सकता है, खासकर उस समय जब लोगों की भावनाएं जुड़ी हों। कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच पानी की समस्या संवेदनशील मुद्दा है और मुझे आम सहमति बनाकर मामले को संभालने के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के विचार की याद आती है।

जानकार क्षेत्रों से यह चेतावनी देश को मिलती रही है कि जल विवाद के देर तक बने रहने के खतरनाक परिणाम हो सकते हैं। नदी जल संबंधी सभी अंतर्राज्यीय समझौते को रद्द करने के कर्नाटक के एक तरफा फैसले ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसका अनुभव राष्ट्र ने कभी नहीं किया था। इसे तेज करने के लिए राज्यों के सभी मुख्यमंत्री गाली-गलौच करते रहे हैं जो भारतीय संविधान में संघीय ढांचे के विचार से मेल नहीं खाता।

कहने की जरूरत नहीं कि बाकी विषयों की तुलना में नदी जल के बंटवारे पर आम सहमति बनाना काफी कठिन है। कावेरी जल के बंटवारे को लेकर दोनों राज्यों के बीच काफी समय से चला आ रहा मनोवैज्ञानिक युद्ध इसका उदाहरण है। आम सहमति तभी बन सकती है जब राजनीतिक पाॢटयां अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठ कर पानी को देश को एक करने का साधन बनाने में अपनी दृष्टि का इस्तेमाल करें। इस नेक लक्ष्य को पाने के लिए उनके पास आवश्यक इच्छा शक्ति होनी चाहिए। कर्नाटक और तमिलनाडु, दोनों के हितों की रक्षा करने वाला फार्मूला निकालना असंभव नहीं है।

मुझे हरदम लगता था कि आबादी हमारी असली समस्या है। मैंने अमरीका के एक नोबेल पुरस्कार विजेता के सामने भी इसका जिक्र किया तो उन्होंने इसका खंडन किया। उन्होंने कहा, ‘‘पानी आपकी समस्या बनने वाली है।’’ हम लोग आने वाले वर्षों में भारत के सामने आने वाली कठिन परीक्षाओं पर बहस कर रहे थे। काफी बहस के बाद भी हमारे विचार एक-दूसरे से मिल नहीं पाए थे। 

लातूर में कुछ समय पहले जो हुआ इसने मुझे दी गई उस अमरीकी की चेतावनी को फिर से नया कर दिया है। उस अमरीकी ने एक आशावादी पक्ष यह भी रखा था कि गंगा-यमुना के मैदान के नीचे पानी का समंदर है जो इस्तेमाल का इंतजार कर रहा है। मुझे नहीं मालूम यह सच है। अगर ऐसा होता तो सरकार ने इस जमा जल की मात्रा जानने के लिए कोई वैज्ञानिक अध्ययन कराया होता। मैंने अभी तक ऐसी किसी योजना के बारे में नहीं सुना है।

भारत की 7 प्रमुख नदियां हैं- गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी और कावेरी व कई अनगिनत सहायक नदियां। नई दिल्ली ने न केवल जल के उपयोग बल्कि बिजली पैदा करने के लिए केन्द्रीय जल और बिजली आयोग बनाया है। यह काफी हद तक कारगर भी रहा है लेकिन भारत के कुछ इलाकों में इसका परिणाम ऐसा हुआ कि गंभीर विवाद पैदा हो गए हैं जो कई दशकों के बाद भी सुलझ नहीं पाए हैं। 

बगल में हरियाणा, जो उस समय पंजाब का हिस्सा था, ने राजस्थान और दिल्ली को पानी देने से मना कर दिया है। यह उस मत के विपरीत है जो नई दिल्ली ने सिंधु जल समझौते के हस्ताक्षर के समय रखा था। हमने दलील दी थी कि हम ज्यादा पानी चाहते हैं क्योंकि हमें राजस्थान में सिंचाई करनी है जिसका बड़ा हिस्सा मरुभूमि है।

दुर्भाग्य से, अंतर्राज्यीय जल विवादों के लिए कई विसंगतियां जिम्मेदार हैं। आजादी के 70 साल बाद भी विवादों का हल नहीं हो पाया है। जब केन्द्र और राज्यों, दोनों में कांग्रेस का शासन था तो समस्या ने कभी भी इस तरह का खराब स्वरूप नहीं लिया था। लोकसभा में कुछ सीटें रखने वाली भारतीय जनतापार्टी की कोई गिनती नहीं थी। आज दृश्य बदला हुआ है। अभी जब संसद में इसका बहुमत है, यह पार्टी इसकाख्याल रख रही है कि इसके शासन वाले राज्यों को सबसे ज्यादा फायदा मिले, चाहे नियम के मुताबिक हो या नहीं।

लेकिन दक्षिण में स्थिति अलग है। कर्नाटक और तमिलनाडु दोनों गैर-भाजपा पाॢटयों के शासन में हैं। नई दिल्ली को बहुत पहले दखल देना चाहिए था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जो यह दावा करते हैं कि देश को एक इकाई में जोड़ दिया है, उस समस्या से दूर दिखाई दे रहे हैं जिसका सामना कर्नाटक और तमिलनाडु कर रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि भाषा, सीमा या पानी की देश की समस्या को काबू में किया जाए।

हिन्दू और मुसलमान जो सैंकड़ों साल से साथ रहते थे, बंटवारे के बाद अजनबी बन गए और औरतों से बलात्कार करने का भी उन्हें कोई मलाल नहीं था। वे उन्हीं स्थितियों का बड़े स्तर पर सामना कर रहे थे जो अभी कर्नाटक और तमिलनाडु छोटे स्तर पर कर रहे हैं। कभी-कभी मुझे कंपकंपी होती है कि राज्यों के बीच विवाद किसी तरह के बंटवारे का रूप न ले ले। जब दोस्त और पड़ोसी अचानक अजनबी बन सकते थे क्योंकि वे अलग धर्मों का पालन करते थे तो बेंगलूरू की सड़कों पर कन्नड़ लोगों ने जो किया है वह बाखूबी बंटवारे के इतिहास का एक पन्ना बन सकता है। 
               


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