जे.एन.यू. कांड पर भाजपा का रवैया ‘पाखंडपूर्ण’

punjabkesari.in Sunday, Feb 21, 2016 - 02:02 AM (IST)

(बी.के. चम): जिस बात का डर था, वही हमारी आंखों के सामने हो रहा है। मोदी नीत सरकार के अन्तर्गत भारत आपातकाल जैसी या इससे भी बदतर स्थिति का सामना कर रहा है। असहमति के स्वरों को दबाया जा रहा है। काले चोगे वाले गुंडे विद्याॢथयों, उनके हमदर्दों एवं महिला रिपोर्टरों सहित पत्रकारों की अदालतों के परिसरों में पिटाई करते हैं, जबकि पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है। 

 
हिटलर के खौफनाक गुप्त पुलिस बल ‘गैस्टापो’ की तरह काम करने से हमारी पुलिस कुछ ही दूर रह गई है। इसे केन्द्र की सत्तारूढ़ सरकार और पंजाब जैसे कुछ राज्यों में अकाली-भाजपा की गठबंधन जैसी सरकारों के राजनीतिक विंग में बदल दिया गया है। हमारे नेताओं को प्रख्यात लेखक सलमान रशदी के ये शब्द स्मरण करने की जरूरत है : ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या चीज है? यदि किसी को आहत करने की आपको आजादी नहीं है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई अस्तित्व नहीं।’’ गत सप्ताह जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जो कुछ हुआ, वह इसी भावना को प्रतिबिम्बित करता है।
 
यह सारा प्रकरण तब शुरू हुआ जब जे.एन.यू. में विद्यार्थियों ने 2001 में संसद पर हुए हमले के दोषी कश्मीरी अलगाववादी अफजल गुरु की बरसी मनाने के लिए रैली आयोजित की। विद्यार्थियों पर इस रैली में भारत विरोधी नारे लगाने और भड़काऊ टिप्पणियां करने के आरोप लगाए गए। जे.एन.यू. छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर ऐसे जलूस का नेतृत्व करने का आरोप लगाया गया जिसमें भारत विरोधी नारे लगाए गए थे। उसे बगावत के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। 
 
व्यक्ति चाहे कैसा भी क्यों न हो, उसके द्वारा राष्ट्र विरोधी नारे लगाए जाना बहुत ही निन्दनीय कृत्य है और कानून के अन्तर्गत इससे हर हालत में कड़ाई से पेश आना चाहिए। लेकिन जे.एन.यू. छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया  कुमार की यूनिवॢसटी परिसर से बगावत के आरोप में गिरफ्तारी क्या तथ्यों पर आधारित तथा कानूनी रूप में न्यायोचित है? उपलब्ध सभी साक्ष्यों के आधार पर ऐसा नहीं है। 
 
18 फरवरी को प्रमुख राष्ट्रीय हिन्दी दैनिकों में से एक ने कन्हैया द्वारा 9 फरवरी को जे.एन.यू. परिसर में दिए गए भाषण के अनुदित अंश प्रकाशित किए। अन्य बातों के अलावा उसे यह भी कहते दिखाया गया : ‘‘जे.एन.यू. छात्र संघ किसी प्रकार की हिंसा, किसी आतंकवादी, किसी आतंकी हमले या किसी प्रकार की राष्ट्र विरोधी गतिविधि का समर्थन नहीं करता। कुछ अज्ञात लोगों ने ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारे लगाए हैं। जे.एन.यू. छात्र संघ कड़े शब्दों में ऐसी कार्रवाइयों की निन्दा करता है।’’
 
अब कृपया अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ए.बी.वी.पी.) के नारों को भी ध्यान से सुनें। वे कहते हैं, ‘कम्युनिस्ट कुत्ते’, वे कहते हैं, ‘अफजल गुरु के पिल्ले’, और वे कहते हैं, ‘जेहादियों के बच्चे’। क्या आप इस बात से सहमत नहीं होंगे कि यदि संविधान ने हम नागरिकों को अधिकार दे रखे हैं तो मेरे पिता को कुत्ता कहा जाना क्या मेरे संवैधानिक अधिकारों को पैरों तले रौंदने के तुल्य नहीं?
 
समाचार पत्र ने यह भी लिखा है कि अगले दिन जाकर ही पुलिस ने एक टी.वी. चैनल पर प्रसारित रिपोर्ट  के आधार पर एफ.आई.आर. दर्ज की थी। (इस टी.वी. चैनल का मालिक कथित रूप में मोदी सरकार से राज्यसभा नामांकन हासिल करने के लिए लाबिंग कर रहा है।) एफ.आई.आर. में कन्हैया पर किसी प्रकार के घृणा भाषण का आरोप नहीं लगाया गया। उस पर केवल ऐसे जलूस का नेतृत्व करने का आरोप है जिसमें भारत विरोधी नारे सुनाई दिए थे। 
 
पूर्व महाधिवक्ता सोली सोराबजी तथा फाली एस. नरीमन सहित भारत के दिग्गज कानूनदानों ने कन्हैया पर लगाए गए बगावत के आरोप पर कड़ी नाराजगी जाहिर की है और इसे निन्दनीय करार दिया है। पूरे प्रकरण का सबसे हताशाजनक पहलू राजनाथ सिंह का बयान है।  हालांकि राजनाथ सिंह से उम्मीद की जाती है कि वह देश में होने वाली सभी सुरक्षा संबंधित घटनाओं के बारे में सब तथ्यों से अवगत होंगे। राजनाथ सिंह ने कहा था, ‘‘जे.एन.यू. में छात्रों द्वारा किए गए रोष प्रदर्शनों को हाफिज मोहम्मद सईद का वरदहस्त प्राप्त है।’’  उन्होंने लाहौर आधारित लश्कर-ए-तोयबा के प्रमुख का स्वांग रचने वाले किसी अज्ञात व्यक्ति का इस संबंध में उल्लेख भी किया था। 
 
छोटा मुंह बड़ी बातें करने वाले हमारे गृह मंत्री ने इस छद्म ट्वीट के बारे में असलियत जानने का कोई कष्ट नहीं किया। एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने हाफिज सईद को यह कहते हुए उद्धृत किया है, ‘‘मुझे यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ है कि भारतीय गृह मंत्री ने मेरे नाम पर जारी हुए किसी ट्वीट का उल्लेख किया है। न तो मैं विद्यार्थियों के रोष प्रदर्शन को शह दे रहा हूं और न ही मैंने उन्हें भड़काने के लिए कोई ट्वीट किया है।’’ ऐसा लगता है कि राजनाथ सिंह का बयान जे.एन.यू. प्रकरण के नकारात्मक प्रभावों से आहत देश की सबसे कट्टर राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा को उबारने का प्रयास है। 
 
इस सप्ताह केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की अध्यक्षता में केन्द्रीय यूनिवर्सिटियों के उपकुलपतियों द्वारा लिया गया यह निर्णय  कि राष्ट्र ध्वज को ‘गौरवपूर्ण एवं उल्लेखनीय’ ढंग से फहराया जाए, बेशक स्वागत योग्य है। फिर भी यह स्पष्ट तौर पर जे.एन.यू. के घटनाक्रम से पार्टी की छवि को पहुंचे नुक्सान पर लीपापोती करने का ही प्रयास है।  
 
कन्हैया प्रकरण भाजपा के दोगलेपन का मुंह बोलता प्रमाण भी है। एक ओर तो इस पार्टी ने कन्हैया पर बगावत का आरोप लगाया है, वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में सत्ता की सीढिय़ां चढऩे के लिए इसने मुफ्ती मोहम्मद सईद की पी.डी.पी. के साथ गठबंधन बना रखा है। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ घंटे के भीतर ही मुफ्ती ने अलगाववादी हुर्रियत और आतंकी संगठनों को इस बात का श्रेय दिया था कि उन्होंने चुनाव करवाने के लिए साजगार माहौल पैदा किया था। उनकी सरकार ने अलगाववादी नेता मसरत आलम को भी रिहा कर दिया था। 
 
बगावत के मुद्दे पर भाजपा का पाखंडपूर्ण रवैया इस तथ्य से भी प्रतिबिम्बित होता है कि पंजाब में इसने मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल सहित अकाली नेताओं द्वारा 1983 में गुरुद्वारा रकाबगंज दिल्ली के सामने संविधान की धारा 25 की प्रतियां जलाए जाने के ‘बगावती कृत्य’ की अनदेखी करते हुए अकाली दल के साथ सरकार बनाने  के लिए हाथ मिला लिए। क्या संविधान को जलाया जाना कन्हैया के कथित बगावती कृत्य से कहीं अधिक गंभीर आपराधिक मामला नहीं? 
 
ऐसा लगता है कि जे.एन.यू. प्रकरण भाजपा 
के वैचारिक प्रेरणा स्रोत आर.एस.एस. की देश भर में उत्कृष्टता के केन्द्रों, खास तौर पर शिक्षा, पत्रकारिता, फिल्म निर्माण, कला एवं सांस्कृतिक संस्थानों पर नियंत्रण करने की रणनीति का हिस्सा है। इस लक्ष्य को साधने के लिए ही मोदी सरकार ने अपने सैद्धांतिक रूप में प्रतिबद्ध वफादारों को ऐसे संस्थानों का प्रमुख बनाना शुरू कर दिया है, बेशक उनमें से कुछ एक मैरिट के मामले में कहीं नहीं ठहरते।
 
इस प्रकार के दो मामलों ने काफी गर्मागर्मी पैदा की है। एक था फिल्म टैलीविजन संस्थान (एफ.टी.आई.आई.) पुणे जैसे बहुत ही गरिमापूर्ण  संस्थान के अध्यक्ष पद पर गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति। उनकी एकमात्र ‘मैरिट’ केवल यह है कि उन्होंने टी.वी. सीरियल ‘महाभारत’ में युधिष्ठिर की भूमिका अदा की थी। इस नियुक्ति के विरुद्ध रोष व्यक्त करने के लिए एफ.टी.आई.आई. के छात्र अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए थे। 
 
दूसरा मामला था बालीवुड के फिल्म निर्माता पहलाज निहलानी की केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सी.बी.एफ.सी.) के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति तथा भाजपा अथवा आर.एस.एस. की विचारधारा से संबंध रखने वाले लोगों को इस बोर्ड के सदस्य बनाया जाना। निहलानी को लीला सैमसन के स्थान पर अध्यक्ष बनाया गया था क्योंकि उन्होंने इस्तीफा दे दिया था और उनके बाद बोर्ड के अन्य 13 सदस्यों ने भी अपने इस्तीफे पेश कर दिए थे। निहलानी ने हाल ही में मोदी के ‘हर घर मोदी’ कार्यक्रम के लिए  6 मिनट का अभियान वीडियो तैयार किया था। 
 
इस प्रकार के घटनाक्रमों का भाजपा और इसके गठबंधन सहयोगियों के लिए 2016 और 2017 के विधानसभा चुनावों में नकारात्मक प्रभाव होगा। लोगों की याददाश्त बेशक अल्पकालिक हो, परन्तु इतनी भी छोटी नहीं होती कि शासकों की विफलताओं को भूल जाएं।  
 

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