2019 में भाजपा की जीत की भविष्यवाणी करना समझदारी भरी बात नहीं होगी

punjabkesari.in Sunday, Mar 19, 2017 - 10:55 PM (IST)

‘‘भविष्यवाणियां करना बहुत मुश्किल काम है- खास तौर पर भविष्य के बारे में।’’ इस मसालेदार उक्ति का श्रेय अमरीकी बेसबाल खिलाड़ी योगी बेरा को दिया जाता है। उसका असली नाम तो लोरेंजो था लेकिन योगी उपनाम इसलिए पड़ गया कि भारतीय साधुओं की तरह आराम से पदम आसन में बैठ जाया करता था। हम योगी या रहस्यवादी न बनें और 2019 के चुनाव के बारे में आज से भविष्यवाणियां करने से परहेज करें। फिर भी हम 2014 के चुनावी गणित पर तो दृष्टिपात कर ही सकते हैं और इनके विश्लेषण व जोड़तोड़ के आधार पर 2019 की संभावनाओं का आकलन कर सकते हैं। 

उत्तर प्रदेश में भाजपा की ताजा जीत के बारे में ऐसा माना जा रहा है इसने 2019 में नरेन्द्र मोदी की सत्ता में फिर से वापसी को अटल बना दिया है। यदि सचमुच ही ऐसा है तो क्या करने की जरूरत पड़ेगी? गत चुनाव में मतगणना शुरू होने से ऐन पहले मोदी ने भविष्यवाणी की थी। उन्होंने कहा था कि उनकी रैलियों में ऐसी भीड़ जुटती रही है जैसी 1984 के बाद अब तक कभी देखने में नहीं आई, इससे उन्हें विश्वास हो गया है कि वह पूर्ण बहुमत हासिल करेंगे। यह बिल्कुल सही था और उन्हें 543 में से लोकसभा की 282 सीटें हासिल हो गई थीं। 

मोदी को संख्या बल मुख्य तौर पर उत्तर भारतीय राज्यों से हासिल हुआ था। वह खास तौर पर उन स्थानों पर हावी रहे जहां या तो भाजपा सत्तासीन थी या फिर उसकी सशक्त उपस्थिति थी। इन राज्यों में मोदी का गृह राज्य गुजरात (जहां उन्होंने 26 में से 26 सीटें जीतीं), राजस्थान (25 में से 25 जीतीं), मध्य प्रदेश (29 में से 27), झारखंड (14 में से 12), हिमाचल प्रदेश (4 में से 4), हरियाणा (10 में से 7), दिल्ली (7 में से 7), छत्तीसगढ़ (11 में से 10), उत्तराखंड (5 में से 5) और उत्तर प्रदेश (80 में से 71) शामिल थे। 

उत्तरी राज्यों में इस धमाकेदार कारगुजारी के साथ-साथ कुछ पूर्वोत्तर राज्यों की कृपा से मोदी 200 सीटों को पार कर गए जोकि भाजपा के 30 वर्षों के इतिहास में पहली बार हुआ था। जीत हासिल करने के लिए उन्हें शेष राज्यों में केवल औसत कारगुजारी दिखाने की ही जरूरत थी। इसलिए मोदी के सामने सीधा और सरल रास्ता यही है कि जीत के लिए दोबारा यही सूत्र अपनाएं। 

वैसे उत्तरी भारत में ऐसी ही कारगुजारी को दोबारा अंजाम देना मोदी के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगा। राजस्थान और गुजरात एवं संभवत: उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों पर उनकी पार्टी शायद 2019 के चुनावों तक वैसी पकड़ कायम नहीं रख पाएगी जैसी अब उसे हासिल है। सम्पूर्णत: से आगे कोई उपलब्धि नहीं की जा सकती और गुजरात, उत्तराखंड, राजस्थान एवं दिल्ली में भाजपा पहले ही मुकम्मल संसदीय सीटों पर काबिज है। गुजरात में भाजपा को उस पाटीदार समुदाय से विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है जो अब तक इसका सबसे वफादार मतदाता था। राजस्थान में सचिन पायलट के रूप में एक तेजतर्रार स्थानीय नेता है। यही हाल पंजाब में है जहां कुशल स्थानीय नेतृत्व है जो एक-एक सीट पर भाजपा को कड़ी चुनौती देगा। 

मोदी का सौभाग्य ही कहिए कि अन्य राज्यों में वह कई स्थानों पर कुछ बढिय़ा कारगुजारी दिखा सकते हैं। महाराष्ट्र (भाजपा के पास वर्तमान में 48 में से 23 सीटें), बिहार (40 में से 22), ओडिशा (21 में से 1) तथा पश्चिम बंगाल (42 में से 2) जैसे राज्यों में प्रबल संभावना है कि मोदी अपनी प्रहारक क्षमता में काफी मजबूती हासिल कर लेंगे। महाराष्ट्र में तो भाजपा  शरद पवार की राकांपा, उद्धव ठाकरे की शिवसेना के साथ-साथ कांग्रेस को धूमिल करते हुए प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। 

ओडिशा और  पश्चिम बंगाल में आज तक कभी भी भाजपा की सरकारें नहीं बनीं। फिर भी ताजा स्थानीय निकाय चुनावों ने दिखा दिया है कि ओडिशा में जहां भाजपा ने कांग्रेस को एक ओर धकेलते हुए प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत हासिल कर ली है, वहीं बंगाल में इसे पांव जमाने की जगह मिल गई है। कुछ हद तक तो ऐसा मोदी की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता के कारण हो रहा है और 2019 के चुनावों में उनके उम्मीदवारों को इससे लाभ पहुंचेगा। 

चूंकि इन 4 राज्यों (महाराष्ट्र, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल) में मोदी को सांस भरने की जगह मिल गई है, ऐसे में 5 दक्षिण राज्य अब उनके लिए पहले की तुलना में काफी कम महत्वपूर्ण बन गए हैं। वैसे उन राज्यों में भी मोदी काफी सुखद स्थिति में हैं। कर्नाटक (28 में से 17 सीटें), आंध्र (25 में से 2), केरल (20 में से 0), तमिलनाडु (39 में से 1) एवं तेलंगाना (17 में से 1) में शायद वह अपनी मौजूदा उपलब्धि को बरकरार रखेंगे या इसमें सुधार करेंगे। इनमें से कुछ राज्यों में पराजित होने के बावजूद भाजपा की वोट हिस्सेदारी काफी अच्छी है। (उदाहरण के तौर पर केरल में इसे 10 प्रतिशत वोट मिले थे।) 

अब इन राज्यों में भाजपा की उपस्थिति स्थायी लक्षण बन गई है। ऐसा कुछ हद तक तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकत्र्ताओं की बदौलत हुआ है। (मोदी भी हमेशा स्थानीय स्तर पर चुनावी विजय आकलन करते समय उन्हें बधाई देते हैं और उनका धन्यवाद करते हैं।) कई दशकों के निष्काम स्वयंसेवी कार्य ने आखिर अब अपना रंग दिखाया है। वैसे कुछ हद तक कांग्रेस के सत्यानाश से भी भाजपा की पोजीशन मजबूत हुई है क्योंकि इन दक्षिण भारतीय राज्यों में उसे काफी बड़ी चपत लगी है। 

हम में से बहुत से लोगों ने 2004 में सोचा था कि अटल बिहारी वाजपेयी बहुमत हासिल कर लेंगे। वास्तव में तो वह स्वयं जीत के प्रति बहुत आश्वस्त थे। इसीलिए उन्होंने 6 माह पूर्व ही चुनाव करवा लिए थे लेकिन उनकी झोली में जीत न आ सकी। ऐसे में 2 वर्ष बाद क्या होगा, इस संबंध में भविष्यवाणी करना समझदारी की बात नहीं होगी। सरकारों और जननायकों की लोकप्रियता हवा होते भी देर नहीं लगती। 

वैसे मोदी के पक्ष में संख्या बल काफी बढिय़ा है। हमें यह कहना चाहिए कि 2019 का चुनाव मोदी का होगा न कि विपक्ष का। इसलिए विपक्ष को जीत की उम्मीद नहीं होगी जितना मोदी को पराजय का भय सताएगा।      


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