क्या मोदी सरकार ने ट्रूडो की जानबूझ कर ‘उपेक्षा’ की

punjabkesari.in Sunday, Feb 25, 2018 - 04:48 AM (IST)

इस बात का सचमुच में कोई महत्व नहीं कि मोदी सरकार जस्टिन ट्रूडो को ठेंगा दिखाना चाहती थी या नहीं, क्योंकि व्यापक रूप में यह प्रभाव सृजित हुआ है कि सरकार ने ट्रूडो की जानबूझ कर अनदेखी की है इसलिए इस प्रभाव को ही तथ्य मानना होगा। यह स्पष्ट रूप में ऐसा अवसर था जब वास्तविकता की बजाय अवधारणा अधिक महत्व रखती थी। इसका अर्थ यह है कि सरकार ने बेशक ट्रूडो को ठेंगा न भी दिखाया हो (और मैं यह मानने को तैयार हूं कि सरकार का ऐसा इरादा नहीं था) तो भी इस पर न केवल ऐसा करने का दोष लगाया जा रहा है बल्कि इसे कटघरे में भी खड़ा किया जा रहा है। 

सबसे बुरी बात तो यह है कि जस्टिन ट्रूडो भी इस तथ्य के प्रति जागरूक थे। बेशक उन्होंने उपेक्षित न भी महसूस किया हो तो भी वह जानते थे कि बहुत से भारतीय उनकी अनदेखी के तथ्य को स्वीकार करते हैं और उनके अपने देश में भी बहुत सशक्त ढंग से इस छवि का संचार हुआ है। ऐसे में सच्चाई कुछ भी हो, ट्रूडो अपमानित-सा महसूस कर सकते थे, बेशक उनके साथ ऐसा नहीं किया गया था। इन सभी बातों का तात्पर्य यह है कि यह एक अफसोसनाक किस्सा है जो दोनों में से किसी भी पक्ष के लिए हितकर नहीं। फिर भी आज मैं कुछ तथ्यों पर दृष्टिपात करना चाहता हूं और देखना चाहता हूं कि वे हमें क्या बताते हैं। क्या तथ्य यह बताते हैं कि ट्रूडो को यह महसूस करवाया गया था कि उनके आने की हमें खुशी नहीं है? ऐसा चाहे इरादतन हुआ हो या किसी अन्य रूप में, युक्तिपूर्ण ढंग से इसका उत्तर केवल ‘हां’ में ही है।

यह बात अप्रासंगिक है कि उनका अभिवादन करने के लिए हमारे प्रधानमंत्री हवाई अड्डे पर उपस्थित नहीं थे लेकिन जिस स्तर पर वहां सरकार का प्रतिनिधित्व हुआ था वह कदापि अप्रासंगिक नहीं है। ट्रूडो के अभिवादन के लिए कोई स्वतंत्र प्रभारी कैबिनेट मंत्री उपस्थित नहीं था। इसकी बजाय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वहां मात्र एक राज्य मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ही मौजूद थे जोकि किसी भी तरह कोई जानी-मानी हस्ती नहीं है। सरकार को निश्चय ही यह पता था कि ट्रूडो एक सप्ताह के लिए भारत आ रहे हैं और हमें कनाडा के साथ संबंध सुधारने की आवश्यकता भी है। ऐसे में क्या यह समझदारी भरी बात न होती यदि उनके स्वागत के लिए विदेश मंत्री स्वयं वहां उपस्थित होतीं? 

यद्यपि ट्रूडो को केवल भारत पहुंचने पर ही ऐसी अनदेखी नहीं झेलनी पड़ी बल्कि उसके बाद भी उन्हें इस तरह की उदासीनता का तब सामना करना पड़ा जब वह आगरा और अहमदाबाद की यात्रा पर गए। इन दोनों स्थानों पर यू.पी. और गुजरात के मुख्यमंत्रियों ने उनसे मिलने का कोई प्रयास नहीं किया। नि:संदेह दोनों ही किन्हीं कारणों से व्यस्त थे लेकिन यह तो सर्वविदित है कि ट्रूडो भारत दौरे पर आए हुए प्रधानमंत्री थे, कोई साधारण कनेडियन पर्यटक नहीं। इस सच्चाई से कोई इन्कारी नहीं हो सकता कि हाल ही में जब इसराईल के बेंजामिन नेतान्याहू भारत दौरे दौरान इन दोनों शहरों में गए थे तो इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री लाव-लश्कर के साथ उनके स्वागत के लिए पहुंचे थे। ट्रूडो और उनकी सरकार भी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं रही होगी और उनका मीडिया तो कदापि नहीं। 

शायद सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जस्टिन ट्रूडो के स्वागत में ट्वीट तक नहीं किया। क्या यह भी अनजाने में हुई कोई चूक थी? निश्चय ही नहीं। ये सब कुछ सोच-समझ कर किया गया था। ऐसी बातें किसी संयोगवश ही नहीं हो जातीं। इनके पीछे निश्चय ही स्पष्ट मंशा होती है। इससे बढ़कर इसके पीछे एक संदेश भी था। बेशक यह संदेश शीशे की तरह साफ न हो तो भी सुझावात्मक रूप में अवश्य ही मौजूद था। यह बात तो अन्य बातों की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली है क्योंकि इसकी व्याख्या अनेक ढंगों से हुई है। लेकिन इसकी एक व्याख्या ऐसी है कि उसे दरकिनार करना कठिन है। हमारे प्रधानमंत्री इतना अधिक ट्वीट करते हैं कि मुश्किल से ही कोई विषय अछूता छोड़ते हैं। वह जितने भी नेताओं से गलबहियां लेते हैं, उनके बारे में बहुत सशक्त ढंग से ट्वीट करते हैं लेकिन कनाडाई प्रधानमंत्री के मामले में उनकी चुप्पी बहुत कुछ बयां कर सकती है और कर रही है। 

इस पूरे प्रकरण का घटिया पहलु तो यह है कि ऐसा करने की बिल्कुल ही कोई जरूरत नहीं थी। कनाडा के साथ हमारे जो भी मतभेद हैं वे औपचारिक चर्चाओं पर छोड़ दिए जाने चाहिए थे। उनके समाधान का सबसे बेहतर मंच भी ऐसी चर्चाएं ही हैं। लेकिन यदि आप ने किसी को अपने घर में आमंत्रित किया हो तो गृह स्वामी को यह सुनिश्चित करना ही होता है कि उसकी आवभगत शानदार तरीके से हो। यदि एक बार भी इसके विपरीत संदेश चला जाता है तो इसको  बार-बार दोहराया जाएगा और इसका विस्तार होता जाएगा जिससे लोग यह मानना शुरू कर देंगे कि आप ने अपने अतिथि के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। जिस देश में ‘अतिथि देवो भव’ की परम्परा हो वहां ऐसे व्यवहार की कल्पना नहीं की जा सकती। मुझे डर है कि ट्रूडो परिवार अपने मन में यही प्रभाव लिए कनाडा वापस जाएगा कि वे इस बहुप्रचारित प्रतिबद्धता के पात्र नहीं बन पाए। 

अंत में मुझे यह भी संदेह है कि हमारे इस तरह के व्यवहार से ट्रूडो अपनी कथित खालिस्तान समर्थक मानसिकता में कुछ सुधार लाने को प्रेरित होंगे लेकिन हमारी मेहमाननवाजी अधिक उदारतापूर्ण और कम औपचारिक होती तो शायद ट्रूडो को हृदय परिवर्तन करने के लिए मनाना कुछ आसान हो गया होता। ऐसा लगता है कि हम एक सरल से सबक की अनदेखी कर गए हैं : जिस व्यक्ति का सोचने का तरीका आप बदलना चाहते हैं उसे कभी भी आहत न करें।-करण थापर


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