हीन-भावना, तनाव और मानसिक आघात का परिणाम मृत्यु न हो

punjabkesari.in Saturday, Mar 02, 2024 - 05:41 AM (IST)

अक्सर ऐसे व्यक्ति हमारे आसपास मिल जाएंगे जो वैसे तो ठीक-ठाक दिखाई देंगे लेकिन जैसे ही उनसे बात की तो लगता है कि बहकी बातें कर रहे हैं, चेहरे पर मुस्कान का तो नामो-निशान नहीं पर किसी गहरी निराशा और अवसाद में डूबे नजर आते हैं। बातों में उदासी और शरीर में कमजोरी दिखाई देती है। कुछ देर चलने या बात करने में सांस उखडऩे लगती है और बैठने की जगह तलाशने लगते हैं। आम तौर से हम सलाह दे देते हैं कि डाक्टर से दवा ले लीजिए और हां पूरा चैक अप करा लीजिए, कहीं कोई भयंकर बीमारी अंदर ही अंदर न पल रही हो। हमने तो अपनी तरफ से यह कहकर अपना कर्तव्य निभा दिया लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि इसे शरीर की जगह मन का रोग भी हो सकता है।

दवाई से बेहतर काऊंसलिंग : असल में होता यह है कि जब कोई व्यक्ति अपनी ओर से पूरी मेहनत करने के बावजूद अपने काम में सफल नहीं होता, दूसरों को लगातार उन्नति करते देखकर अपने को यह समझने लगता है कि मैं किसी काम का नहीं हूं और मुझसे कुछ नहीं होगा तो वह निराशा के भंवर में डूबने उतरने लगता है। वह हीन-भावना से ग्रस्त होने लगता है और बिना किसी कारण के हर समय तनाव में रहने लगता है।

यह उसकी आदत-सी बन जाती है। उसकी इस अवस्था का किसी अन्य को न तो अंदाजा होता है और न ही इस तरफ ध्यान जाता है कि इस व्यक्ति को शारीरिक नहीं एक तरह की मानसिक बीमारी है जिसका इलाज सामान्य डॉक्टर के पास नहीं बल्कि स्वयं अपने पास है या ऐसे डॉक्टर के पास जो मनोचिकित्सक हो। आज के दौड़ भाग वाले जीवन में और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, विशेषकर युवा वर्ग में, जो अपने लक्ष्य के प्रति जरा सा भी चूक जाने के कारण निराशा और हताशा के समुद्र में गोते खाते रहते हैं और इसके लिए अपने को और अपने परिवार तथा अपनी परिस्थितियों को जिम्मेदार मानकर कुंठाग्रस्त जीवन जीने लगते हैं।

इसके अतिरिक्त एक और कारण होता है जो आम तौर से अनदेखा कर दिया जाता है। यह है बचपन में अर्थात् 8-10 या 12 वर्ष की आयु में कुछ ऐसा हो जाए जो बच्चे की समझ में न आए जैसे कि छेडख़ानी, पिटाई, चोट लगना, अपनी या दूसरे की लापरवाही से घायल हो जाना। अब बालक का मन जो अभी विकसित हो रहा है, इस तरह की घटना का विश्लेषण करने में असमर्थ रहता है तो उस पर एक प्रकार का दबाव बनने लगता है जो हो सकता है कि जीवन भर बना रहे।

डाक्टर अमिताभ घोष : मुंबई के अंधेरी इलाके में लोखंडवाला में अपना क्लिनिक चला रहे डॉक्टर अमिताभ घोष से पिछले दिनों इस बारे में विस्तार से बात हुई। उनका कहना है कि यदि समय रहते इस प्रकार के मनोरोगी की चिकित्सा नहीं की गई तो जीवन में कभी भी बरसों पहले घटी कोई घटना अचानक से मन में जीवित हो सकती है और किसी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती है जो जानलेवा भी हो सकती है। उनका कहना है कि ऐसे व्यक्ति की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए, न ही उस पर दोष लगाना चाहिए बल्कि काऊंसलिंग थैरेपी से उसकी चिकित्सा होनी जरूरी है। इसके लिए किसी दवाई से ज्यादा उसके साथ बातचीत कर उसके मन में जो बरसों पहले की घटना जड़ जमाकर बैठी है, उसे बाहर निकालना होता है।

ऐसा भी होता है कि मनोरोग से पीड़ित व्यक्ति मदिरा या ड्रग्स अथवा कोई अन्य नशीला पदार्थ लेने लगे ताकि अपने साथ हुई घटना को भूल सके। इससे उसकी स्थिति सुधरने के स्थान पर खराब भी हो सकती है। यह एक जबरदस्त आघात या ट्रामा का कारण भी बन सकता है। बचपन में हुआ दुव्र्यवहार या किसी दर्दनाक घटना को अपने सामने होते हुए देखना अथवा बड़े होकर जैसे कि फौज में युद्ध के समय होने वाली मारकाट देखकर विचलित हो जाना या फिर दंगों में फंस जाना और हादसा हो जाना, प्राकृतिक आपदा जैसे भूकंप, भू स्खलन, नदियों, पर्वतीय क्षेत्रों में पहाड़ या शिला खंड टूट कर गिरने जैसे कुछ कारण हैं जो अगर किसी के मन पर गलत छाप छोड़ दें तो व्यक्ति का जीवन बिखर सकता है और जीना अभिशाप बन जाता है।

ऐसा भी होता है कि कुछ घटनाएं तो वास्तविक होती हैं लेकिन कुछ काल्पनिक भी हो सकती हैं और अपने मन से बना ली जाती हैं। अब सोच की तो कोई सीमा नहीं होती इसलिए कुछ भी सोचा जा सकता है। यह सब दिमाग के एक कोने में भंडार की तरह जमा होता रहता है। अब दिमाग को तो पता नहीं कि क्या असली घटना है और क्या केवल काल्पनिक है लेकिन भंडारण होता रहता है। यह एक तरह से हमारी भावनाओं का संकलन है जो कभी जीवन में वैसी ही घटना होने से ट्रिगर यानी आंदोलित हो सकता है।

मान लीजिए कभी लाल रंग की किसी चीज से कोई हादसा हुआ हो तो वह उम्र के किसी भी दौर में दोबारा होने या दिखाई देने पर दिमाग में उभर सकता है और व्यक्ति उसकी चपेट में आ सकता है और किसी गंभीर स्थिति का शिकार बन सकता है। इसमें उसकी मृत्यु भी हो सकती है। जब हम किसी बात को अपने मन में बहुत बढ़ा-चढ़ा कर यानी उसको अपनी कल्पना से कोई भी आकार देने लगते हैं तो वह दिमाग में अंकित होता जाता है और चाहे सामने कुछ न हो लेकिन व्यक्ति को वह दिखाई देने लगता है जो किसी भीषण दुर्घटना का कारण भी बन जाता है।

अब जो चिकित्सक है उसका काम यह हो जाता है कि वह उस व्यक्ति का उपचार करने के लिए जीवन की उन घटनाओं का विवरण लेता है जो मन के भंडार में जमा हैं। वह अपनी थैरेपी से व्यक्ति के दिमाग में एक तरह से जो कचरा या गंदगी जाने-अनजाने जमा हो गई है, उसे निकालकर उसे मानसिक रूप से स्वस्थ बनाने का काम करता है। उसका तनाव या डिप्रैशन, हीन-भावना और कुंठा है, उसे साफ करता है और इस तरह के व्यायाम कराता है जिनसे दोबारा यह सब दिमाग में न भर सके और व्यक्ति अपने को बुरी भावनाओं या कल्पना से मुक्त रख सके।

आवश्यक यह है कि जब भी स्वयं को यह लगे कि मन में कुछ अजीब-सी उथल-पुथल हो रही है, कुछ न होते हुए भी एहसास हो रहा हो कि मेरे साथ गलत होने वाला है तो समझ लें कि यह एक बीमारी के लक्षण हैं जिसकी चिकित्सा होनी चाहिए। इसी प्रकार अपने परिवार या मित्रों के साथ कोई ऐसी बात का अनुभव करें कि कुछ तो है जो सामान्य नहीं है तो उसका निदान कराना जरूरी है। एसे व्यक्ति को उसके हाल पर छोडऩे की बजाय उसकी मदद करनी आवश्यक है ताकि वह अपनी कल्पनाओं से बाहर निकल कर वास्तविकता को समझ सके।

आधुनिक युग में मानसिक समस्याओं से उबरने के लिए अनेक चिकित्सा पद्धतियां हैं जो मनोरोगों से राहत दिला सकती हैं। उन्हें न अपना कर बीमारी को बढ़ावा देना है। उसमें यौगिक इंद्रियां, मन को केंद्रित करने के लिए ध्यान लगाना और अनेक प्रकार के व्यायाम आते हैं जो विशेषज्ञ की निगरानी में होने चाहिएं। टैक्नोलॉजी के युग में और जब रोबोट तथा आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस का दौर हो तो शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मन का भी स्वस्थ रहना आवश्यक है। -पूरन चंद सरीन


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