भारत को अमरीका से सबक सीखने की जरूरत

punjabkesari.in Sunday, Jul 18, 2021 - 05:10 AM (IST)

संयुक्त राज्य अमरीका तथा सोवियत संघ नि:संदेह द्वितीय विश्व युद्ध के सुपर विजेता थे। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सी.सी.पी.) चूक से विजेता बनी। 2 प्रमुख यूरोपियन शक्तियों ब्रिटेन तथा फ्रांस ने वैश्विक मामलों में अपनी ध्रुवीय स्थिति गंवा दी क्योंकि उन्होंने अपनी कालोनियों पर शासन खो दिया था। 1945 तथा अब के बीच अमरीका की ताकत बढ़ती गई है। सोवियत संघ 26 दिस बर, 1991 को गायब हो गया। 90 के दशक के शुरू में अमरीका एक वैश्विक ‘हाइपर-पावर’ के तौर पर उभरा। 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका की पहली बड़ी सैन्य दखल कोरिया में 1950 से 1953 तक थी। यह गतिरोध के साथ समाप्त हुई। अमरीका के लिए एकमात्र बड़ा शर्मनाक अवसर 11 अप्रैल 1951 को राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन द्वारा जर्नल डगलस मैकआर्थर को हटाना था। एक अलंकृत युद्धनायक तथा जापान में शीर्ष संयुक्त कमांडर मैकआर्थर कोरियन संघर्ष को बढ़ा कर चीन पर हमला करना चाहते थे। 

अमरीका की दूसरी बड़ी सैन्य दखल वियतनाम में थी। इसकी शुरूआत 28 फरवरी 1961 को हुई तथा लगातार शर्मनाक पराजयों के बाद 7 मई 1975 को अंत हुआ। इसका एक यादगार चित्र 30 अप्रैल 1975 को सैगोन के बाहर यू.एस.एस. ओकीनावा डैक पर अंतिम हैलीकाप्टर के लैंड करने का है। 

1975 के बाद 1990 तक अमरीका विश्व भर में कई छद्म युद्धों में संलग्र रहा। मगर सीधे सैन्य दखल से परहेज किया। इसकी सैन्य ताकत का एक बड़ा अवसर 1990 के पहले खाड़ी युद्ध में उस समय सामने आया जब अचानक तथा हैरानीजनक कार्रवाई के दौरान अमरीका नीत गठबंधन ने कुवैत को आजाद करवाया जिसने सद्दाम हुसैन की सेनाओं को तिनकों की तरह बिखेर दिया।

हैरानी की बात यह है कि अमरीका ने ही 1980-1989 के बीच ईरान के साथ युद्ध में सामग्री तथा सैन्य दोनों तरह से स्रोत स पन्न ईराक का समर्थन किया। ईराक में 2003 में अमरीका के दूसरे सैन्य दखल का अंत फिर अच्छा नहीं हुआ। इसने वास्तव में क्षेत्र में ईरान के प्रभाव को बढ़ाया और शिया प्रभुत्व वाले लेबनान, सीरिया, बहरीन, ईरान, अजरबैजान, यमन और यहां तक कि पश्चिमी अफगानिस्तान का गठन किया। 

अफगानिस्तान में अमरीका का दखल जिमी कार्टर सरकार के अंतिम समय में दिस बर 1979 में शुरू हुआ। इसे उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज्बिग्रियू ब्रजेजिंस्की द्वारा हरी झंडी दिखाई गई। उन्होंने एक साक्षात्कार में खुलासा किया कि ‘जिस दिन सोवियतों ने आधिकारिक रूप से सीमा पार की, मैंने राष्ट्रपति कार्टर को लिखा कि अब हमारे पास अपना वियतनाम युद्ध सोवियत संघ को देने का अवसर है। वास्तव में लगभग 10 वर्षों के लिए मास्को को सरकार के समर्थन के बगैर युद्ध जारी रखना पड़ा, एक ऐसा संघर्ष जिसने उसके मनोबल को तोड़ दिया और अंतत: सोवियत साम्राज्य का विखंडन हो गया।’ उनके शब्द वास्तव में भविष्यवाणी साबित हुए। 

ब्रजेजिंस्की ने उसके बाद पाकिस्तान के माध्यम से अफगानिस्तान में मुजाहिद्दीनों को अमरीकी सैन्य सहायता तथा सऊदी वित्तीय सहायता शुरू की। उन्होंने प्रश्र उठाया था कि ‘विश्व इतिहास के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? तालिबान या सोवियत साम्राज्य का पतन?’ 

इसलिए अफगानिस्तान में 1980 से 1989 तक अमरीकियों का केवल एक ही उद्देश्य था-सोवियतों को अपना वियतनाम सौंपना। उन्हें तब सफलता मिली जब सोवियत 1989 में अमू दरिया से पीछे हट गए। इसके बाद सोवियत संघ का पतन एक अप्रासंगिक बोनस था। क्या 1990 के दशक के शुरू के अफगानिस्तान के लिए अमरीका के दृष्टिकोण को दोष दिया जा सकता है? नहीं। क्योंकि प्रत्येक देश अपने खुद के हितों के मद्देनजर कार्रवाइयां करता है। जिस दिन सोवियत पीछे हट गए अमरीकी राष्ट्रीय हित समाप्त हो गए। 

1989 से 2001 का समय अफगानिस्तान में ऐसी बड़ी ताकतें लाया जो अमरीका के खिलाफ ऐसे खड़ी हो गईं जैसे पहले कभी नहीं हुआ। 9/11 ने अमरीका की अफगानिस्तान में वापसी को जरूरी बना दिया। अब तालिबान से बार-बार यह आश्वासन मिलने के बाद ही अफगान धरती से अमरीकी हितों को निशाना नहीं बनाया जाएगा, वे अफगानिस्तान को मुल्लाओं के हाथ वापस सौंपने को राजी हुए। अमरीका के लिए तालिबान उन बहुत से मुल्लाओं का एक चरम संस्करण है जिनसे वह व्यापक मध्यपूर्व में निपट रहा है। यदि तालिबान अपने वायदे को तोड़ते हैं तो अमरीका कभी भी वापस लौट सकता है। 

यह भारत के लिए एक सबक है। जीवन में कुछ भी मु त नहीं मिलता। चीन में अमरीकियों के अपने हित हैं। जरूरी नहीं कि वे हित भारत पर भी लागू हों। यह संभवत: भारतीय रणनीतिकारों के लिए शिक्षाप्रद होगा कि वे ज्ञान के इन गहरे कुओं से कुछ घूंट पीएं।-मनीष तिवारी
 


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