शत्रुता के लम्बे चक्र में फंसे भारत और पाकिस्तान
punjabkesari.in Sunday, Jul 28, 2024 - 05:33 AM (IST)
जम्मू में हाल ही में हुए आतंकी हमलों ने एक बार फिर भारत-पाक संबंधों की भयावह प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया है, जो विभाजन और चार युद्धों अर्थात् 1947, 1965, 1971 और 1999 की विनाशकारी विरासत से प्रभावित है। 1970 के दशक के उत्तरार्ध से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित सीमा पार आतंकवाद पहले पंजाब में, फिर जम्मू और कश्मीर में और बाद में पूरे भारत में संबंधों के लिए एक बोझ बन गया है। दूसरी ओर पाकिस्तान भारत पर बलूचिस्तान में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाता है। एक ऐसा आरोप जिसे वह किसी भी हद तक विश्वसनीयता या दृढ़ विश्वास के साथ साबित करने में विफल रहा है।
राजीव गांधी और बेनजीर भुट्टो (1989)
1980 के दशक के उत्तरार्ध में भारत-पाक संबंधों में एक उल्लेखनीय लेकिन क्षणिक चरण देखा गया, जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के बीच कूटनीतिक जुड़ाव देखा गया। उनके प्रयास, भले ही नेक इरादे वाले थे, लेकिन जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित गहरी अविश्वास और बढ़ती ङ्क्षहसा के कारण वे दब गए। इस अवधि में कश्मीर घाटी में उग्रवाद का पुनरुत्थान देखा गया, जिसमें पाकिस्तान ने अलगाववादियों को समर्थन दिया, जिससे द्विपक्षीय वार्ता में तनाव पैदा हुआ और सियाचिन ग्लेशियर के विसैन्यीकरण और सर क्रीक मुद्दे पर बातचीत को प्रभावी रूप से रोक दिया गया, जिन्हें उस समय समाधान के दायरे में आसानी से हल किया जा सकने वाला मुद्दा माना जाता था।
गुजराल सिद्धांत (1998)
1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल ने गुजराल सिद्धांत के माध्यम से दक्षिण एशिया के लिए एक साहसिक दृष्टिकोण पेश किया, जिसमें क्षेत्रीय सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए गैर-पारस्परिक रियायतों की वकालत की गई। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य पाकिस्तान के साथ भी विश्वास और सहयोग का निर्माण करना था। हालांकि, दक्षिण एशिया का भू-राजनीतिक परिदृश्य बदल गया, जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों ने परमाणु परीक्षण किए।
परमाणु परीक्षण के बाद और कारगिल संघर्ष (1999)
1998 के परमाणु परीक्षणों ने शक्ति के संतुलन को अस्थिर कर दिया, जो जल्द ही 1999 में कारगिल संघर्ष से बाधित हो गया। पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकवादियों ने कारगिल क्षेत्र में भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की, जिससे एक तीव्र संघर्ष हुआ। भारत द्वारा अपने क्षेत्र को पुन: प्राप्त करने के साथ संघर्ष समाप्त हो गया, लेकिन इसने परमाणु खतरे के तहत पारंपरिक युद्ध के निहित जोखिमों को उजागर किया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का कार्यकाल (2001-2002) शांति पहल और बढ़े हुए तनाव के बीच उतार-चढ़ाव से चिह्नित था। 1999 का लाहौर शिखर सम्मेलन, जिसमें वाजपेयी अपने समकक्ष नवाज शरीफ से मिलने के लिए लाहौर बस से गए थे, एक उच्च बिंदू था, जो संवाद के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक था। हालांकि, आशावाद अल्पकालिक था, क्योंकि कारगिल संघर्ष और 2001 में पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों द्वारा भारतीय संसद पर हमले ने ऑपरेशन पराक्रम की शुरूआत की, जो एक विशाल सैन्य लामबंदी थी जिसने दोनों देशों को युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया। इस अवधि ने शांति प्रयासों की नाजुक प्रकृति को उजागर किया, जो आतंकवाद के कृत्यों और अंतर्निहित अविश्वास से आसानी से बिखर जाता है।
डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान जागी आशा की किरण
2003 में नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.) पर औपचारिक युद्धविराम समझौते के साथ आशा की एक किरण फिर से दिखाई दी। दोनों देशों ने शत्रुता में सापेक्ष कमी देखी और दोनों देशों के बीच क्रिकेट संबंधों और बस सेवाओं की बहाली सहित कई विश्वास-निर्माण उपाय किए गए। वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान शुरू हुई सक्रिय बैक चैनल वार्ता इस अवधि के दौरान भी जोश के साथ जारी रही। फिर से, 2008 में 26/11 मुंबई हमलों ने इस नाजुक शांति को हिंसक रूप से बाधित किया, जहां पाकिस्तान के आतंकवादियों ने भारत की वित्तीय राजधानी पर विनाशकारी हमला किया। हमलों ने न केवल एक गहरा घाव छोड़ा, बल्कि आतंकवाद के लगातार खतरे और स्थायी शांति को बढ़ावा देने में अपार चुनौतियों को भी उजागर किया।
मनमोहन सिंह और नवाज शरीफ (2008-2014)
मुंबई हमलों के बाद, द्विपक्षीय संबंध तनावपूर्ण बने रहे, जिसमें विश्वास की कमी भी काफी हद तक देखी गई। 2013 में नवाज शरीफ के चुनाव ने आशावाद का एक संक्षिप्त पुनरुत्थान पेश किया। दोनों नेताओं ने अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलनों के दौरान मुलाकात की और संबंधों को बेहतर बनाने की पारस्परिक इच्छा व्यक्त की। हालांकि, बार-बार संघर्ष विराम उल्लंघन और पाकिस्तान में गहरे राज्य की प्रवृत्ति ने आतंकवाद को राज्य की नीति के साधन के रूप में न अपनाने की प्रवृत्ति को आगे की प्रगति में बाधा उत्पन्न की।
नरेंद्र मोदी और वर्तमान परिदृश्य (2014-वर्तमान)
2014 में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के आगमन ने भारत-पाक संबंधों में एक नए चरण की शुरूआत की। मोदी के दृष्टिकोण में सुरक्षा चुनौतियों के प्रति विषम प्रतिक्रिया के साथ सद्भावना के शुरूआती संकेत शामिल थे। नवाज शरीफ से मिलने के लिए 2015 में लाहौर की उनकी यात्रा एक उल्लेखनीय इशारा थी, लेकिन उसके बाद के आतंकी हमलों, जिनमें 2016 में पठानकोट एयरबेस और उरी सैन्य शिविर पर हुए हमले शामिल हैं, ने भारत के रुख को काफी हद तक सख्त कर दिया। फरवरी 2019 में, जम्मू और कश्मीर के पुलवामा में एक आत्मघाती बम विस्फोट में लगभग 40 भारतीय अर्धसैनिक बल के जवान मारे गए, जिस कारण पाकिस्तान के बालाकोट में एक आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर पर भारतीय हवाई हमले हुए।
निष्कर्ष: आज, भारत-पाक संबंध छिटपुट मुठभेड़ों और शत्रुता की लंबी अवधि के चक्र में फंसे हुए हैं। अंतत:, एक स्थिर और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के मार्ग के लिए भारत और पाकिस्तान दोनों को यह भी समझना होगा कि संस्थागत बंदिशों के बिना परमाणु ऊर्जा वाले वातावरण में तनाव बढऩे का जोखिम एक अशुभ प्रतिमान है।-मनीष तिवारी(वकील, सांसद एवं पूर्व मंत्री)