भारत 2026 : आगे ऊबड़-खाबड़ रास्ता

punjabkesari.in Wednesday, Dec 31, 2025 - 05:35 AM (IST)

जैसे  ही 2025 इतिहास में एक उथल-पुथल भरे साल के रूप में दर्ज होता है, एक मिली-जुली स्थिति वाला भारत सावधानी भरी उम्मीद के साथ 2026 में कदम रखता है, क्योंकि उसके सामने नई चुनौतियां हैं। फिर भी, बीते साल की दहलीज से उम्मीद मुस्कुराती है, फुसफुसाते हुए कि यह ज्यादा खुशहाल होगा। क्या ऐसा होगा? नि:संदेह, प्रधानमंत्री मोदी सही हैं। भारत के पास गर्व करने के लिए बहुत कुछ है- ऑपरेशन सिंदूर, महाकुंभ, अयोध्या राम मंदिर में ध्वजारोहण समारोह, पुरुषों की क्रिकेट आई.सी.सी. चैंपियनशिप, महिला क्रिकेट विश्व कप और महिला ब्लाइंड टी20 विश्व कप जीतना, शुक्ला का इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन में पहले भारतीय बनना आदि।

फिर भी, हम अभूतपूर्व समय में जी रहे हैं क्योंकि 2025 का अंत भयानक लिंचिंग की एक बदसूरत और शर्मनाक घटना के साथ हुआ, जिसमें ‘दूसरों को अलग-थलग करने’ की भावना सामान्य होती जा रही है। देहरादून में उत्तराखंडियों द्वारा 24 साल के त्रिपुरा के एक एम.बी.ए. छात्र को नफरत भरे अपराध में चाकू मार दिया गया, उसे ‘चीनी, चिंकी, मोमोज, नेपाली’ कहकर ताना मारा गया। दक्षिण में, ओडिशा और केरल में 20 साल के एक बंगाली और एक 31 साल के छत्तीसगढ़ी प्रवासी मजदूरों को ‘बंगलादेशी’ कहा गया। उत्तर-पूर्वी लोगों को राजधानी दिल्ली में नस्लवाद का सामना करना पड़ता है। सवाल यह है कि क्या युवा और मजदूर अपने ही देश में बिना किसी डर के और सुरक्षित रूप से घूम नहीं सकते?

दुख की बात है कि किसी भी सरकार ने नफरत भरे अपराध या नस्लवाद को मान्यता नहीं दी, पुलिस हमेशा खतरनाक विचारों और ङ्क्षहसक घटनाओं को ‘छिटपुट घटनाएं’ कहकर टाल देती है लेकिन वे ऐसी नहीं हैं। वे इस जेनोफोबिया और ‘दूसरों को अलग-थलग करने’ के पैटर्न हैं, जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता और जो ‘स्थानीय नहीं’, छात्रों-मजदूरों के लिए अक्सर क्रूर रूप से सामने आते हैं। इसके अलावा, राजनीतिक ध्रुवीकरण और प्रतिस्पर्धा के दौर में, पहचान की बहुलता और ओवरलैपिंग के कारण, हम तेजी से अधिक नस्लवादी, जातिवादी और सांप्रदायिक होते जा रहे हैं, जिससे एक परेशान भारत असहिष्णुता के बढ़ते हमले के तहत अपनी आत्मा की तलाश कर रहा है। इससे भी बढ़कर, काफ्काएस्क जैसी दुनिया में, जहां नस्लीय पहचान एक चिपचिपा बोझ है, जिसे सामाजिक माहौल में हटाना मुश्किल है।

चौंकाने वाली बात यह है कि क्रिसमस को आर.एस.एस. से जुड़े विहिप-बजरंग दल के कार्यकत्र्ताओं के शर्मनाक व्यवहार ने खराब कर दिया, जिन्होंने कैरल गाने वालों और क्रिसमस समारोहों में तोडफ़ोड़ की, चर्चों और स्कूलों पर हमला किया, सांता कैप बेचने वाले विक्रेताओं को परेशान किया, बिना किसी डर के ‘धर्म परिवर्तन’ के आरोप लगाए, केरल, असम, ओडिशा, एम.पी., छत्तीसगढ़, हरियाणा और दिल्ली में दृष्टिबाधित ईसाई महिलाओं पर हमला किया। अफसोस की बात है कि न तो पुलिस ने संज्ञान लिया है और न ही धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए एफ.आई.आर. दर्ज की गई है या गुंडों को गिरफ्तार किया गया है। 

यह एक खतरनाक संदेश भेजता है कि जब राजनीतिक संरक्षण मान लिया जाता है तो सार्वजनिक व्यवस्था और संवैधानिक सुरक्षा को बिना किसी कीमत के मोड़ा जा सकता है। कोई बात नहीं, मोदी ने नुकसान की भरपाई के लिए दिल्ली के एक चर्च में मास में भाग लिया। एक मौलिक सवाल उठता है-क्या भारत सांप्रदायिक सद्भाव और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के बारे में बात करने का नैतिक अधिकार रखता है? गहरी समस्या यह है कि पिछले एक दशक में, आत्मनिरीक्षण और सामाजिक सुधार की बजाय, युवाओं के एक बड़े वर्ग को नफरत, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, झूठा गौरव और दूसरों के प्रति तिरस्कार सिखाया गया है। ये भावनाएं अब सार्वजनिक स्थानों पर खुलेआम व्यक्त की जा रही हैं। पाखंड तब स्पष्ट होता है, जब बंगलादेश में ङ्क्षहदुओं को भीड़ द्वारा जलाने पर गुस्सा व्यक्त करने वाले वही लोग हैं जो भारत के भीतर हत्याओं को सही ठहराते हैं या भीड़ द्वारा पीट-पीटकर की गई हत्याओं का जश्न मनाते हैं। 

अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े लोगों के खिलाफ ङ्क्षहसा को ‘अंदरूनी मामले’ कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर यही तर्क लगातार लागू किया जाए, तो भारत को दुनिया में कहीं भी मानवाधिकारों के उल्लंघन पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं होगा। इस आक्रोश के बीच, आम आदमी रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि बढ़ती हुई नाराज और बेचैन जनता जवाब मांग रही है।  सामाजिक मोर्चे पर हालात निराशाजनक हैं। आजादी के 78 साल बाद, शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर खरबों खर्च करने के बाद भी, 60 प्रतिशत लोग भूखे, अनपढ़, अकुशल और बुनियादी चिकित्सा देखभाल से वंचित हैं, सरकारी आंकड़ों की तो बात ही छोडि़ए। दुख की बात है कि किसी के पास भी आम आदमी की सिस्टम से बढ़ती निराशा के लिए समय नहीं है, जो गुस्से में फूट पड़ती है। किसी भी मोहल्ले, जिले या राज्य में चले जाएं, कहानी दुखद रूप से वही है। नतीजतन, ज्यादा से ज्यादा लोग कानून अपने हाथ में ले रहे हैं, जिसका सबूत बढ़ते दंगे और लूटपाट हैं। सिस्टम इतना बीमार हो गया है कि आज भीड़भाड़ वाली जगहों, ट्रेनों में महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहा है और जनता मूकदर्शक बनी हुई है। 

अब सरकार को गंभीरता से सोचने की जरूरत है। क्या उनमें शांति और अङ्क्षहसा के लिए बोलने का नैतिक साहस है, जबकि उनकी राजनीतिक यात्रा अक्सर उन्हीं आदर्शों के विरोध में बनी है? क्या शीर्ष नेतृत्व अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाली संगठित ङ्क्षहसा के खिलाफ बोल सकता है और अधिकारियों को जिम्मेदार लोगों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने का निर्देश दे सकता है? जैसे ही भारत 2026 में प्रवेश कर रहा है, हमारे नेताओं को छोटी-मोटी बातों पर परेशान होना बंद करना होगा, खुद को संभालना होगा, जिम्मेदारी लेनी होगी, अपने तरीके बदलने होंगे और शासन के असली गंभीर मुद्दों को संबोधित करना होगा। बेरोजगारी, बढ़ती कीमतें, शिक्षा और स्वास्थ्य में सीखने की कमियों को दूर करना। उन्हें यह समझना होगा कि भारत की लोकतांत्रिक शक्ति का लचीलापन आम आदमी की वजह से है। हमारे पॉलिसी बनाने वालों को जीवन को आसान बनाने के लिए अपने प्रयासों को दोगुना करने की जरूरत है।-पूनम आई. कौशिश
 


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