भारत की वर्तमान आर्थिक स्थिति ‘2002’ जैसी
punjabkesari.in Friday, Sep 15, 2017 - 12:11 AM (IST)

सामान्यत:सड़क की ओर आगे देखते हुए ड्राइव करना ही बेहतर होता है लेकिन बीच-बीच में रियरव्यू मिरर में से पीछे झांक लेना भी बेहतर होता है। फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसी ही स्थिति में है।
भारत की वर्तमान आर्थिक स्थिति उल्लेखनीय रूप में 2002 जैसी है। अर्थव्यवस्था के ऊपरी तथा बड़े स्तरों पर स्थिरता है। फिर भी गतिशीलता घटती जा रही है और बैलेंसशीट का दबाव बढ़ता जा रहा है। अधिक विवरण से दृष्टिपात किया जाए तो ऐसा आभास होगा कि अर्थव्यवस्था के वर्तमान सितारे 15 वर्ष पूर्व की स्थितियों से कितना मेल खाते हैं।
सबसे पहली तुलना तो यह है कि 2002 में भी एक के बाद एक तिमाही में लगातार आॢथक वृद्धि दर नीचे आती रही थी। बेशक सरकार अपने घाटे को नियंत्रण में रखने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देती थी तो भी घरेलू मांग को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय विस्तार की दुहाई मच रही थी।
दूसरी तुलना यह है कि मुद्रास्फीति हाल ही में अपनी चरम सीमा छूने के बाद नीचे आ गई थी। इस बात को लेकर बहुत जिंदादिली से चर्चा छिड़ी हुई थी कि क्या भारत अपस्फीति से इश्क लड़ा रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों में कटौती करने का दबाव डाला जा रहा था।
वर्तमान स्थिति से तीसरी समरूपता यह थी कि प्राइवेट सैक्टर की बैलेंस शीटों में जो भारी-भरकम निवेश दिखाया जा रहा था जो वह पूरी तरह बैंकों से लिए हुए ऋण पर आधारित था। लेकिन यह ऋण बैंकों के गले की फांस बना हुआ था। अधिकतर ऋण बट्टे खाते में जा रहे थे क्योंकि परियोजनाओं पर आधारित अर्थव्यवस्था दिशाहीन और अनियंत्रित हो गई थी। आखिर एक नया कानून बनने से ऋण दाताओं को ऐसी शक्तियां हासिल हो गईं कि अदायगी न करने वाले कर्जदारों के विरुद्ध वे कानूनी कार्रवाई करने की स्थिति में आ गए थे।
चौथी समरूपता यह थी कि अर्थव्यवस्था बहुत भारी हद तक अपनी वृद्धि के लिए उपभोक्ताओं की मांग पर आधारित थी जबकि कम्पनियों द्वारा नई निवेश गतिविधियों के फलस्वरूप पैदा होने वाली मांग लगभग शून्य हो चुकी थी। ऐसे में सार्वजनिक निवेश ही एकमात्र उम्मीद की किरण थी इसीलिए खास तौर पर सड़क निर्माण में निवेश पर फोकस बन गया था। इसके अलावा कुछ अन्य समरूपताएं भी ढूंढी जा सकती हैं जैसे कि किसानों की बेचैनी, रुपए की बढ़ती कीमत तथा कार्पोरेट पुनर्संरचना।
यह तो थी तब की बात। आज शायद बहुत ही कम लोगों को यह याद होगा कि 2002 में पतन की गहराइयां छूने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था कैसे छलांग लगाकर तेजी से उबर आई थी। क्या तब अर्थव्यवस्था की यह बहाली अनापेक्षित थी?
उस समय बेशक चारों ओर निराशा का वातावरण छाया हुआ था लेकिन फिर भी आशावाद के दो महत्वपूर्ण आधार मौजूद थे। अरविन्द सुब्रमण्यन और डेनी रॉड्रिक ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के लिए तैयार किए गए एक शोध पत्र में कई कारण गिनाए थे जिनके आधार पर भारत 7 प्रतिशत की वाॢषक वृद्धि दर से विकास कर सकता है।
विजय केलकर ने आस्ट्रेलियन नैशनल यूनिवॢसटी में अपने ‘के.आर. नारायणन भाषण’ में कहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है और आगामी एक दशक में यह द्रुत गति से आगे बढ़ेगी। इन तीनों ही अर्थशास्त्रियों की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई जब पूरी दुनिया वैश्विक वित्तीय संकट में फंसी हुई थी तो उससे पहले भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी बेहतरीन कारगुजारी दिखा रही थी।
आज बहुत से अर्थशास्त्री यह डर व्यक्त कर रहे हैं कि भारत अब ऐसी स्थिति में फंस गया है जहां सुस्त रफ्तार विकास ही इसका भाग्य बनकर रह जाएगा लेकिन ऐसे लोगों को 2002 की गहराइयों में से शानदार ढंग से भारतीय अर्थव्यवस्था के उबरने का किस्सा याद रखना चाहिए। ऐसी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती कि निश्चित कर्म फल की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी उस दौर की उपलब्धि को फिर से दोहराएगी तो भी आज के नीति निर्धारकों के लिए कुछ लाभदायक संकेत मौजूद हैं। 2002 के बाद जो ढांचागत बदलाव हुए उनके बारे में आज हमारे पास आंकड़ें मौजूद हैं जिनसे हम यह जान सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था को वर्तमान दलदल में से निकलने के लिए कैसा भागीरथ प्रयास करना होगा?
सबसे पहली बात तो यह है कि 2002 से 2007 के बीच बचत दर जी.डी.पी. के 24.8 प्रतिशत से 10 अंकों की बढ़ौतरी करती हुई 34.6 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। घरेलू बचत में यह शानदार वृद्धि इसलिए संभव हुई कि कार्पोरेट संस्थानों की वित्तीय स्थिति में सुधार होने के साथ-साथ समूची अर्थव्यवस्था को दृढ़ आधार प्रदान करने की कोशिश की गई थी। ऊंची बचत दर का तात्पर्य यह था कि आगामी वर्षों में तेजी से बढऩे वाले निवेश को काफी हद तक घरेलू स्रोतों से पूरा किया जा सकता था। 2007 के बाद बचत दर में गिरावट आनी शुरू हो गई लेकिन फिर भी प्रसन्नता की बात यह है कि 2002 के स्तर तक नीचे नहीं गई।
दूसरा पहलू यह है कि 2002 में भारतीय अर्थव्यवस्था उस विमान की तरह थी जिसके 2 इंजनों में से केवल एक ही काम कर रहा हो। जितनी भी वृद्धि हो रही थी वह सारी की सारी लगभग उपभोक्ता खपत के कारण ही थी। कुछ हद तक निर्यात का भी योगदान था। लेकिन न तो सरकार का खर्च ही किसी आर्थिक वृद्धि में योगदान दे रहा था और न ही कोई उल्लेखनीय निवेश हो रहा था।
अब 2007 की स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं। तब भारत में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया बहुत अधिक संतुलित थी। वास्तव में आर्थिक वृद्धि में निवेश गतिविधियों की हिस्सेदारी उपभोक्ता खपत की तुलना में कहीं अधिक थी। सरकारी खर्च का आॢथक वृद्धि में योगदान बहुत मामूली था क्योंकि सरकार की वित्तीय उपलब्धियां टैक्स वसूली के कठोर अभियान का नतीजा थीं न कि आधारभूत ढांचे या पब्लिक सैक्टर में किसी निवेश का। विशुद्ध निर्यात का इसमें योगदान बेशक ऋणात्मक था तो भी वैश्विक अर्थव्यवस्था की मजबूती भारतीय निर्यात के बढऩे के लिए पर्याप्त गुंजाइश उपलब्ध करवा रही थी।
वर्तमान आर्थिक परिदृश्य 2007 के बजाय 2002 से अधिक मेल खाता है। एक बार फिर आॢथक वृद्धि उपभोक्ता मांग के कंधों पर सवार होकर आगे बढ़ रही है। हालांकि सरकारी खर्च भी अर्थव्यवस्था को स्वस्थ बनाने में छोटी-सी भूमिका अदा कर रहा है। जहां तक निवेश और निर्यातों के योगदान का सवाल है, वह किसी भी तरह उल्लेखनीय नहीं।
गत 10 महीनों दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहरी कारकों द्वारा 2 बड़े झटके दिए गए। एक कारण तो था नोटबंदी और फिर दूसरा झटका तब लगा जब नए जी.एस.टी. कानून की ओर बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गई। जैसे-जैसे इन दोनों झटकों के प्रभाव क्षीण होते जाएंगे, अर्थव्यवस्था कुछ तेजी पकडऩी शुरू कर देगी।
लेकिन इसी बीच इतिहास से भी कुछ महत्वपूर्ण सबक सीखने होंगे। भारत 3 मुख्य चालक शक्तियों के बिना अपनी वृद्धि दर की संभावनाओं को साकार नहीं कर सकता। वे चालक शक्तियां हैं : प्राइवेट सैक्टर में निवेश की दृष्टि से जोरदार बहाली, निर्यात में धमाकेदार वृद्धि तथा घरेलू बजट की ऊंची दर। पायदार आर्थिक विकास हेतु भारत की वृद्धि दर में कुछ प्रतिशत अंकों की अतिरिक्त बढ़ौतरी दरकार है लेकिन उपरोक्त तीनों चालक शक्तियों में ही इसकी कुंजी छिपी हुई है। (साभार ‘लाइव मिंट’)