राफेल मामले में ‘संसदीय जांच’ से ही सामने आएगा सच

punjabkesari.in Sunday, Dec 23, 2018 - 12:36 AM (IST)

निर्णय देने का अधिकार अदालत का है लेकिन निर्णय के बाद के घटनाक्रमों पर नहीं। यही कानून का स्थापित नियम है। मनोहर लाल शर्मा बनाम नरेन्द्र दामोदर दास मोदी मामले तथा अन्य मामलों (राफेल सौदा मामले) में 14 दिसम्बर 2018 को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय उन प्रश्रों के लिए अधिक याद रखा जाएगा जिन पर अदालत ने निर्णय नहीं लिया बजाय इसके कि जिन पर उसने अपना निर्णय सुनाया।

अदालत का दृष्टिकोण काफी साधारण तथा सीधा था-रक्षा खरीद के मामले की समीक्षा करते समय अदालत के अधिकार क्षेत्र की कुछ कड़ी सीमाएं थीं। अदालत ने अपना निर्णय निम्न शब्दों के साथ समाप्त किया-‘हम यह स्पष्ट करते हैं कि हमारे उपरोक्त विचार मुख्य रूप से संविधान की धारा 32 के अंतर्गत अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए हैं। जो वर्तमान मामलों के समूह में इस्तेमाल किए गए हैं।’

अधिकार क्षेत्र की सीमाएं 
सबक स्पष्ट है-याचिकाकर्ताओं ने संविधान की धारा 32 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट के अधिकार 
क्षेत्र का इस्तेमाल करने में गलती की। व्यावहारिक रूप से किसी विवाद में महत्वपूर्ण मुद्दों की समीक्षा या निर्णय लेने से इंकार करने का निष्कर्ष अदालत के अधिकार क्षेत्र की सीमाओं के संंबंध में निष्कर्ष से निकाला जाता है।

  • * यह भी स्पष्ट किया गया कि कीमतों का मुद्दा अथवा उपकरण की तकनीकी अनुकूलनता के संबंध में मुद्दे अदालत में नहीं जाने चाहिएं। (पैरा 12)
  • * हम संतुष्ट हैं कि कोई ऐसा अवसर नहीं आया कि प्रक्रिया पर वास्तव में कोई संदेह किया जा सके और यहां तक कि यदि कोई मामूली चूकें हुई भी हैं तो वे अनुबंध को रद्द करने अथवा अदालत की व्यापक जांच का कारण नहीं बनतीं। (पैरा 22)
  • * हम यह निर्णय नहीं कर सकते कि 126 की जगह 36 विमानों की खरीद क्यों की गई। (पैरा 22)
  • * यह निश्चित तौर पर अदालत का काम नहीं है कि वर्तमान जैसे मामलों में कीमतों के ब्यौरों की तुलना करे। (पैरा 26)
  • * ...यह न तो उचित है और न ही अदालत के अनुभव में है कि इस कार्यक्षेत्र में उतरे कि तकनीकी तौर पर क्या सम्भव है या नहीं। (पैरा 33) 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए कारणों से शीर्ष अदालत को याचिकाओं पर गौर करने से इंकार करना ही था।
 
संदिग्ध दावे/वक्तव्य
निर्णय का एक अन्य पहलू भी है जो असामान्य है। ऐसा दिखाई देता है कि अदालत ने वह सब कुछ ‘स्वीकार’ कर लिया जो सरकार ने सील्ड लिफाफे में लिखित अथवा मौखिक रूप में कहा। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पर गौर करें-मूल आर.पी.एफ. की शुरूआत मार्च 2015 में की गई थी; कि डसाल्ट तथा हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स (एच.ए.एल.) के बीच अनुबंध को लेकर बातचीत समाधान न किए जा सके मुद्दों को लेकर पूरी नहीं हो पाई; कि भारतीय वार्ताकार दल कीमतों के संबंध में बेहतर शर्तों की स्थिति में था; आपूर्ति तथा रख-रखाव; बाद की प्रक्रिया; कि कैग की रिपोर्ट का एक संशोधित संस्करण संसद के सामने रखा गया और कैग की रिपोर्ट की समीक्षा पी.ए.सी. द्वारा की गई; वायुसेना प्रमुख ने कीमतों के ब्यौरे संंबंधी खुलासे को लेकर अपने संदेह बारे जानकार करवाया; कीमतों बारे ब्यौरे 2 सरकारों के बीच आई.जी.ए. की धारा 10 के अंतर्गत सुरक्षित हैं; 36 राफेल विमानों की खरीद में वाणिज्यिक लाभ है; आई.जी.ए. में रखरखाव तथा हथियार पैकेज की योग्यता को लेकर आई.जी.ए. में कुछ बेहतर नियम थे; एच.ए.एल. की अनुबंध संबंधी बाध्यताओं को लेकर डसाल्ट चौकस थी; डसाल्ट ने कई कम्पनियों के साथ सांझेदारी समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे और 100 से अधिक के साथ उसकी बातचीत चल रही थी; इस बात की सम्भावना है कि मूल रिलायंस कम्पनी तथा डसाल्ट के बीच समझौता 2012 में किया गया; और फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति होलांदे द्वारा एक साक्षात्कार में हर पहलू से स्पष्ट इंकार किया गया।

इनमें से कोई भी वक्तव्य या दावा  पूरे तौर पर सच नहीं है या अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं के मद्देनजर उनकी सच्चाई की जांच नहीं की। इसलिए और कौन कर सकता है? इसका स्वाभाविक उत्तर यह है कि केवल एक संसदीय जांच वक्तव्यों/दावों की असत्यता का पर्दाफाश करेगी और सच को सामने लाएगी।अदालत द्वारा दिखाई गई सहनशीलता के परिणामस्वरूप अदालत ने एक बड़ी गलती की। अभी तक कैग की कोई रिपोर्ट नहीं है, न ही रिपोर्ट का कोई संस्करण, संशोधित या कोई अन्य जिसे संसद के सामने रखा गया है। न ही रिपोर्ट को पी.ए.सी. के साथ सांझा किया गया और न ही उसने इसकी समीक्षा की। अदालत को गुमराह करने के बाद सरकार ने प्रभावपूर्ण तरीके से अदालत पर इसके नोट की ‘गलत व्याख्या’ करने का आरोप जड़ दिया।
 
अनुत्तरित प्रश्र
कम से कम तीन बड़े प्रश्र हैं जिनका उत्तर केवल एक संसदीय जांच से मिल सकता है।

  • * सरकार ने डसाल्ट तथा एच.ए.एल. के बीच तकनीक के हस्तांतरण संबंधी समझौते तथा कार्य सांझीदारी समझौते (13 मार्च, 2014) को रद्द क्यों किया जबकि दोनों के बीच 95 प्रतिशत बातचीत पूरी हो चुकी थी (28 मार्च, 2015 को डसाल्ट के सी.ई.ओ. तथा 8 अप्रैल, 2015 को विदेश सचिव)?
  • * यदि नई कीमत 9 से 20 प्रतिशत तक कम है तो सरकार ने डसाल्ट द्वारा प्रस्तावित 126 विमान क्यों नहीं खरीदे क्योंकि वायुसेना को लड़ाकू विमानों के फ्लीट में वृद्धि करने की अत्यंत जरूरत है?
  • * सरकार ने एच.ए.एल., जो एकमात्र ऐसी कम्पनी है जो भारत में विमान बनाती है, के मामले को आगे क्यों नहीं बढ़ाया, पूरी तौर पर या आफसैट अनुबंध के रूप में?

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की परवाह न करते हुए बिना जांचे कई तरह के दावे किए जा रहे हैं तथा अनुत्तरित प्रश्र हैं। इस निर्णय ने खुद-ब-खुद एक संसदीय जांच को अपरिहार्य बना दिया है। बाकी जनता की अदालत तय करेगी।  - पी. चिदम्बरम


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