वास्तव में आम सिख जनता खालिस्तानियों से दूर रहना चाहती है
punjabkesari.in Tuesday, Aug 08, 2023 - 05:40 AM (IST)

महाभारत में एक यक्ष (देवता) ने युधिष्ठिर से अपने चार भाइयों को वापस जीवन में लाने की शर्त के रूप में उनसे कुछ प्रश्र पूछे। यक्ष द्वारा संरक्षित झील से पानी पीने से पहले उन्हें जवाब देने से इंकार करने के कारण उन्हें मार डाला था। उनका एक प्रश्र था ‘‘किम आश्चर्यम्?’’ (आश्चर्यजनक क्या है।) युधिष्ठिर का उत्तर था कि हम सभी जानते हैं कि मृत्यु अपरिहार्य है फिर भी हम जीवन को हल्के से लेते हैं और ऐसे जीते और व्यवहार करते हैं जैसे कि हम अमर हैं। वह आश्चर्यम् (आश्चर्यजनक) है।
कुछ हजार साल बाद 1675 में एक सम्राट की कट्टरता के हमले को सिखों के 9वें गुरु श्री गुरु तेगबहादुर ने चुनौती दी थी। उत्पीड़ित कश्मीरी पंडितों द्वारा सम्पर्क किए जाने पर गुरु जी ने उनसे यह बताने के लिए कहा था कि वह अपना धर्म तभी छोड़ेंगे जब पहले वह इसके लिए सहमत होंगे। धर्म परिवर्तन से इंकार करने पर उन्हें दिल्ली के चांदनी चौक में शहीद कर दिया गया। वर्षों बाद उनके दो छोटे पोतों को उनके विश्वास को कायम रखने के लिए जिन्दा दीवारों में चिनवा दिया गया और दो बड़े पोते युद्ध के मैदान में शहीद हो गए। इन घटनाओं ने सिख समुदाय की विचारधारा को नया आकार दिया। आस्था की स्वतंत्रता इसके केंद्रीय सिद्धांतों में से एक बन गई जबकि सत्ता का दुरुपयोग करना,भय फैलाना और अन्य धर्मों के अनुयायियों को अपने अधीन करना अभिशाप बन गया।
तीन शताब्दियों से भी कम समय के बाद भारतीय उपमहाद्वीप ने विभाजन की त्रासदी देखी। हमारे पड़ोसी का वर्तमान भाग्य जो उससे उत्पन्न हुआ, एक ऐसा उदाहरण है जो विकास की बजाय असहिष्णुता और घृणा पर पनप रहे एक धार्मिक राज्य का है। इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए क्या यह चर्म ‘आश्चर्यम’ नहीं है कि खालिस्तान समर्थक सिख हित का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं? इनका निर्माण श्री गुरु तेगबहादुर और श्री गुरु गोङ्क्षबद सिंह जी के साहिबजादों की शहादत के जिम्मेवार लोगों के वैचारिक वंशजों द्वारा किया गया था। उनके प्रायोजकों ने उन्हें धार्मिक असहिष्णुता और आतंकी रणनीति का आहार दिया। वह अवधारणाएं जो उस आस्था से भिन्न हैं, जिसका वह प्रतिनिधित्व करने का दिखावा करते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दशकों तक प्रयास करने के बाद भी उन्हें सिख समुदाय के बीच समर्थन की भारी कमी का सामना करना पड़ता है। अपने प्रायोजकों की आंखों पर पट्टी बंधी होने के कारण वह भारत में सिखों को मिलने वाले अधिकारों, सम्मान और प्रगति को देखने में विफल रहते हैं।
त्रुटिपूर्ण तर्क वाले इन आकाओं को वह लोग टक्कर दे रहे हैं जो भारत के प्रति सिख समुदाय की निष्ठा पर सवाल उठा रहे हैं। यह नफरत फैलाने वाले आमतौर पर सोशल मीडिया पर सक्रिय होते हैं। यह एक ऐसा मंच है जिसका दुरुपयोग अत्यधिक होता है। भले ही यह उस तरह की पहुंच को सक्षम बनाता है जो पारम्परिक मीडिया के पास नहीं है। आमतौर पर राष्ट्र के लिए बलिदानों के शानदार रिकार्ड के लिए जाने जाने वाले समुदाय की वफादारी के बारे में संदेह उठाकर, सिर्फ इसलिए कि कुछ असंतुष्ट लोग कहीं शोर मचाते हैं, वह अपने विभाजनकारी एजैंडे की पूर्ण अनुपस्थिति को प्रकट करते हैं। अब सवाल यह है कि यदि खालिस्तानी समर्थकों का समर्थन आधार नगण्य है तो परेशान क्यों हों?
खैर, अच्छी शिक्षा से तर्कसंगत सोच विकसित होती है इससे वंचित आबादी का एक वर्ग भोला-भाला है। नतीजतन खालिस्तान समर्थकों जैसे कुछ हजार शरारती तत्व भी धीरे-धीरे सिख समुदाय की छवि को नुक्सान पहुंचा सकते हैं। वह 1980 के दशक में भी ऐसे कर चुके थे। उस समय की सत्ताधारी व्यवस्था के राजनीतिक लालच ने उस आग में घी डालने का काम किया। पाकिस्तान की आई.एस.आई. खुशी से यह सब देख रही थी क्योंकि हमारे अपने देश के राजनेताओं ने दो समुदायों के बीच कलह के बीज बोए थे, जिनके बीच खून का सबसे मजबूत रिश्ता है। एक की छवि को नुक्सान पहुंचाने वाली घटनाओं की एक शृंखला शुरू की और उसके खिलाफ नरसंहार की योजना बनाई। अंतत: जिन्हें नियति ने अधिक प्रभाव दिया है उन्हें हमारा प्रहरी बनने की जरूरत है। हमारे धार्मिक अधिकारी जानते हैं कि बेईमान राजनेताओं और एक शत्रु पड़ोसी देश की खुफिया एजैंसी ने अतीत में सिख समुदाय की छवि खराब की है। उन्हें उसी पटकथा को सफलतापूर्वक दोबारा चलाने देना शर्म की बात होगी।
उदाहरण के लिए फरवरी 2023 में कनाडा के ओंटारियो गुरुद्वारा कमेटी ने पूरे प्रांत में मंदिरों में तोड़-फोड़ के लिए जिम्मेदार अपराधियों की गिरफ्तारी के लिए जानकारी देने वाले को ईनाम देने की घोषणा की। मार्च 2023 में अकाल तख्त के जत्थेदार ने अमरीका में भारत के वाणिज्य दूतावास पर हमले की निन्दा की और तख्त श्री पटना साहिब गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने यू.के. में हमारे उच्चायोग पर हमले की निन्दा की है। दुर्भाग्य से उनके बयानों को ज्यादा कवरेज नहीं दी गई जितनी कि विदेशों में प्रदर्शन कर रहे अलगाववादियों को मिली। मीडिया को ऐसे प्रयासों को और अधिक प्रचारित करने की जरूरत है। साथ ही धार्मिक नेताओं को भी आवाज उठाने और अपने समझदार बयानों की पहुंच बढ़ाने की जरूरत है। इसके अलावा धार्मिक नेता खालिस्तान समर्थकों को सिख समुदाय से बहिष्कृत करके सबसे मजबूत झटका दे सकते हैं।
यह दावा करके कि सिख एक अलग मातृभूमि चाहते हैं, खालिस्तानी समर्थक उन लाखों सिखों की देशभक्ति का मजाक उड़ाते हैं जो निष्ठापूर्वक भारत की सशस्त्र सेनाओं की सेवा करते हैं। बहिष्कार से पूर्व की आस्था को किसी भी संबंध से वंचित कर दिया जाएगा और साथ ही 1984 के नरसंहार के अपराधियों को हिन्दू समुदाय से बहिष्कृत करने की वैध उम्मीद भी स्थापित की जाएगी। अंतत: भारत सरकार आंदोलन के ताबूत में आखिरी कील ठोक सकती है। नवम्बर 1984 के अधिकांश अपराधी अभी भी पकड़ से बाहर हैं। कुछ वर्षों में न्याय का अवसर हमेशा के लिए समाप्त हो सकता है। 1984 के पीड़ितों को न्याय न देना अलगाववादियों की एक अलग तर्कसंगत शिकायत है। यह न्याय प्रदान करना भारत के लिए प्रवासी सिखों के बीच भारत के खिलाफ गुस्सा भड़काने के लिए खालिस्तान मूवमैंट के प्रायोजकों के सबसे महत्वपूर्ण उपकरण को छीनने का अवसर है। प्रमुख हितधारकों में सामान्य सिख वास्तव में पहले से ही अलगाववादियों के साथ शामिल होने से इंकार करके और सामाजिक-आॢथक प्रगति में योगदान देकर अपना कत्र्तव्य निभा रहे हैं।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)(साभार द स्टेटस मैन)-हरप्रीत सिंह