प्रधानमंत्री बनने के लिए हर ‘तिनके’ का सहारा ढूंढ रहे हैं इमरान खान

punjabkesari.in Tuesday, May 15, 2018 - 04:34 AM (IST)

पाकिस्तान में चुनाव बिल्कुल करीब आ गए हैं और तीनों मुख्य मुद्दई राजनीति में किसी न किसी बहाने सेना की भूमिका का आह्वान कर रहे हैं। फिर भी नवाज शरीफ और उनके द्वारा छांट कर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाए गए शाहिद खाकान अब्बासी इन लोगों से काफी आगे बढ़ गए जब उन्होंने अकल्पनीय भविष्यवाणी कर दी कि आगामी चुनाव करवाने के लिए एलियन धरती पर उतरेंगे। 

अबूझ पहेली जैसे व्यक्तित्व के मालिक पी.टी.आई. प्रमुख इमरान खान ने यह कहते हुए शरीफ के विरुद्ध अपना हल्ला और भी तेज कर दिया है कि 2013 के चुनाव उन्होंने सेना की सहायता से जीते थे। इमरान खान ने तो एम.आई. (सैन्य जासूसी विभाग) के किसी समय ब्रिगेडियर रहे चुके मुजफ्फर अली रांझा के नाम तक का उल्लेख करके कहा है कि उन्होंने ही पंजाब में चुनावी हेरा-फेरी की साजिश तैयार की थी लेकिन ब्रिगेडियर रांझा ने एक बयान जारी करके बहुत जोरदार ढंग से इन आरोपों का खंडन किया है। 

कितनी उपहासजनक बात है कि इमरान खान यह कहते हैं कि इस चुनावी हेरा-फेरी से तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी का कुछ लेना-देना नहीं था। पाकिस्तान में यह निश्चय ही पहली घटना होगी जब सैन्य प्रमुख की जानकारी के बिना चुनाव में हेरा-फेरी हुई होगी क्योंकि इस देश में तो सेना ने कभी भी राजनीति में हस्तक्षेप करने से संकोच नहीं किया। 

वैसे खान के दावे में कोई नई बात नहीं। बिना किसी ठोस प्रमाण के वह हमेशा यह कहते आए हैं कि 2013 के चुनाव एक संगठित जालसाजी थी जिसके फलस्वरूप पी.टी.आई. के वोट लूटे गए थे। उन्होंने तो इस हद तक बेहूदा आरोप लगाया है कि पश्चिम पंजाब के तत्कालीन काम चलाऊ मुख्यमंत्री नजम सेठी की देखरेख में कम से कम 35 चुनावी क्षेत्रों में वोटों में हेरा-फेरी हुई थी। वैसे इमरान खान के ये आरोप कभी भी सिद्ध नहीं हो सकते। यहां तक कि पाकिस्तान के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश नसीर-उल-मुल्क की अध्यक्षता वाले आयोग ने इन आरोपों की जांच करने के बाद इन्हें रद्द कर दिया था। 

दूसरी ओर नवाज शरीफ के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की अंतिम सुनवाई का दिन जैसे-जैसे करीब आ रहा है वह सेना द्वारा व्यवहारिक रूप में नियंत्रित सत्तातंत्र के विरुद्ध अधिक से अधिक मुखर होते जा रहे हैं। उन्होंने एक नया ही सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि परग्रह वासी (यानी एलियन) पाकिस्तान में अपनी मर्जी की संसद बनाना चाहते हैं। पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने शरीफ के इन आरोपों को फटाफट निरस्त करते हुए घोषणा की कि इसके तत्वावधान में चुनाव पूरी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। कुछ ही दिन पूर्व पी.पी.पी. के सह-अध्यक्ष आसिफ अली जरदारी यह कहते हुए शरीफ पर बुरी तरह बरसे थे कि पूर्व प्रधानमंत्री ने 2014 के धरने दौरान उन्हें प्रयुक्त किया लेकिन बाद में 2015 में उन्हें सैन्य नेतृत्व के विरुद्ध खड़ा कर दिया परंतु उसके बाद शरीफ ने उन्हें बिल्कुल भाग्य के सहारे छोड़ दिया। 

बेशक जरदारी ने बाद में ऐसा कोई बयान जारी करने से इंकार किया था लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप में जानता हूं कि ये शब्द उनकी वास्तविक भावनाओं की ही अभिव्यक्ति हैं। मैंने 2015 में उनका तब साक्षात्कार लिया था जब वह तत्कालीन सेना प्रमुख रहील शरीफ के विरुद्ध अपनी टिप्पणियों के बाद लंदन में स्वनिर्वासन में रह रहे थे। लंदन में मेरे साथ अपनी अनेक मीटिंगों में जरदारी ने मुझे बताया था : ‘‘मियां साहिब (यानी नवाज शरीफ) को वजीर-ए-आजम जैसा व्यवहार करना चाहिए न कि मुगल-ए-आजम जैसा।’’ इसी पृष्ठभूमि में जरदारी के करीबी विश्वासपात्र डा. असीम को कुछ ही दिन बाद लंदन से पाकिस्तान लौटते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। 

गौरतलब है कि सीधे या परोक्ष रूप में सेना द्वारा राजनीति में हस्तक्षेप करने का इतिहास पाकिस्तान के अपने वजूद जितना ही पुराना है। 1958 में आयूब खान, 1977 में जिया-उल-हक और 1999 में परवेज मुशर्रफ द्वारा सत्ता हथियाना इस बात का स्पष्ट प्रतीक है कि सेना राजनीति में घुसपैठ करने के लिए कितने लम्बे समय से अथक प्रयास जारी रखे हुए है। सेना पर सिविलियन नियंत्रण बनाने की बातें हमेशा मृगतृष्णा ही सिद्ध हुई हैं और पाकिस्तान के इस्लामी गणराज्य में शेखचिल्ली का सपना बनकर रह गई हैं। कुछेक अपवादों को छोड़कर पाकिस्तान की सिविलियन सरकारें हमेशा सेना की केतु छाया में ही काम करती रही हैं। वैसे पाकिस्तान का मुश्किल से ऐसा कोई राजनीतिज्ञ होगा जो सही अर्थों में यह दावा कर सके कि उसने सत्ता हथियाने या सत्ता में बने रहने के लिए सेना के साथ कभी सांठगांठ नहीं की। अपनी नाव सफलता सहित ठेेलने के लिए उन्हें इसके बादबानों के लिए हमेशा सैन्य तंत्र की ओर से भेजे गए हवा के झोंकों की जरूरत होती है। 

शरीफ को जिस दिन से पनामा पेपर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराया, उसी दिन से वह खुद को कथित अलोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में  चित्रित कर रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि शरीफ ने जो जोखिम भरा रास्ता अपनाया है उससे उन्हें लाभ ही मिला है। यदि वह सैन्य तंत्र के समक्ष दुम दबा कर बैठ जाते तो पी.एम.एल.एन. तथा नवाज शरीफ दोनों ही इतिहास के पन्नों में से एक राजनीतिक शक्ति के रूप में गायब हो गए होते। यह तो भविष्य ही बताएगा कि पदच्युत प्रधानमंत्री सचमुच में एक संघर्षशील जनतंत्रवादी का रूप अपना चुके हैं या फिर से सत्ता हासिल करने के लिए केवल दाव-पेंच के रूप में टकराव का रास्ता अपना रहे हैं। 

दूसरी ओर इमरान खान और उनके हमसफर बिल्कुल आज्ञाकारी बनकर  व्यवस्थावादी राजनीति कर रहे हैं। किसी भी तरह प्रधानमंत्री बनने की अपनी हताशा में इमरान खान हर तिनके का सहारा ढूंढ रहे हैं। शरीफ बंधुओं और जरदारी के विरुद्ध कटु बयानबाजी के अलावा वह ऐसे हर प्रकार के नेताओं की भीड़ इकट्ठी कर रहे हैं जो निर्वाचित हो सकने की योग्यता रखते हों। अपने इस प्रयास में वह सेना का आज्ञापालन करने वाले सत्तातंत्र से थोड़ी-बहुत सहायता लेना कोई बुराई नहीं मानते। 

एक अन्य जटिल घटनाक्रम यह है कि जिस पाकिस्तानी मीडिया ने परम्परागत रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर सहयोग किया है और स्वेच्छा से खुद को संयम में रखा है, उसके विरुद्ध भी शिकंजा काफी कसता जा रहा है। कोई ‘अदृश्य हाथ’ राजनीतिक विमर्श को अपनी मर्जी के अनुसार ढालना चाहता है। विडम्बना देखिए कि कुछ सम्मानजनक अपवादों को छोड़कर मीडिया ने अपनी स्वतंत्रता के पंख कतरे जाने पर मौन साधे रखा है। पाकिस्तान में जब-जब भी जनतंत्र पर इस तरह का अंकुश लगाने के प्रयास हुए हैं, उसके बहुत विनाशकारी परिणाम होते रहे हैं।-पाकिस्तान की चिट्ठी आरिफ निजामी


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Pardeep

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