‘महाभियोग’ का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए

punjabkesari.in Wednesday, May 02, 2018 - 01:37 AM (IST)

यह बिल्कुल उद्दंडता है। सच है कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज नारायण शुक्ला को लखनऊ के प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट, जो एक मैडीकल कालेज चलाता है, पर मुकद्दमा चलाने से रोका था लेकिन यह कानून का वैसा उल्लंघन नहीं है कि इसके लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश को महाभियोग का सामना करना पड़े। 

कांग्रेस पार्टी बंटी हुई थी लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्य न्यायाधीश के विरोध में जाने का फैसला ले लिया था तो संतुलित कपिल सिब्बल को भी इसे मानना पड़ा। दूसरे वरिष्ठ कांग्रेसी और वकील अश्विनी कुमार ने साफ  कर दिया कि महाभियोग के कदम से वह बेचैन महसूस कर रहे हैं। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी. चिदम्बरम और अभिषेक मनु सिंघवी, जो दोनों वकील हैं, ने भी प्रस्ताव पर दस्तखत करने से मना कर दिया। 

राहुल गांधी के आदेश पर राज्य सभा में महाभियोग के प्रस्ताव को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद पढ़ रहे थे और उन्होंने ही इस पर दस्तखत जुटाए। इस तरह के प्रस्ताव को उच्च सदन में लाना अनिवार्य है। यह वास्तविकता भी कांग्रेस और अन्य छ: पाॢटयों के लिए सुविधाजनक रही कि राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं है। जरूरत के मुताबिक दस्तखत मौजूद होने पर भी राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू, जो मूलत: भाजपा के हैं, ने प्रस्ताव को सीधे-सीधे खारिज कर दिया। दस पन्नों की अपनी टिप्पणी में उपराष्ट्रपति नायडू ने फैसला लेने में की गई जल्दी के बारे में बताया है। उन्होंने आरोपों की गंभीरता और गैर-जरूरी अटकलबाजी को इसका कारण बताया है। 

‘‘प्रस्ताव में दिए गए सभी तथ्य ऐसा मामला नहीं बना पाते जो किसी विवेकवान व्यक्ति को इस नतीजे पर पहुंचाए कि मुख्य न्यायाधीश को कभी भी बुरे व्यवहार का दोषी करार दिया जा सकता है,’’ नायडू ने कहा। उन्होंने जाहिरा तौर पर कानूनी, संवैधानिक विशेषज्ञों से सलाह ली थी और मीडिया, जिसने महाभियोग की पहल का जोरदार विरोध किया है, की राय को ध्यान में रखा था। केंद्रीय मंत्री अरुण जेतली ने 6 महीने में रिटायर हो रहे मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ  महाभियोग की याचिका को ‘‘राजनीतिक हथियार’’ के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप कांग्रेस और उसके दोस्तों पर लगाते हुए महाभियोग याचिका को ‘‘बदला लेने की याचिका’’ बताया। संविधान कहता है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को सिर्फ  बुरे व्यवहार या अक्षमता के आधार पर हटाया जा सकता है।

विपक्ष ने अपनी मांग के समर्थन में 5 आधार दिए थे जो कांग्रेस के मुताबिक बुरे व्यवहार के बराबर हैं। इनमें संवेदनशील मुकद्दमे चुने हुए कुछ पसंद के जजों को सौंपना भी शामिल था जिसे 4 वरिष्ठतम जजों ने जनवरी में सार्वजनिक रूप से उठाते हुए मुख्य न्यायाधीश पर ‘‘कार्य सूची में नाम डालने वाले अधिकारी’’ की अपनी हैसियत के दुरुपयोग का आरोप लगाया था। इसके बाद 5 वरिष्ठतम जजों ने अपने विचार रखने के लिए प्रैस कान्फ्रैंस भी की थी जिसकी वजह जज लोया का मुकद्दमा था। 

यह एक ऐसा कदम था जिसकी उम्मीद नहीं की गई थी। इसी तरह, भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ कभी महाभियोग पर विचार नहीं किया गया। सभापति ऐसे नोटिस को 2 तथ्यों की जांच के लिए राज्यसभा सचिवालय भेजता है-याचिका पर सदस्यों के दस्तखत सही हैं या नहीं और नियम तथा प्रक्रियाओं का पालन किया गया है या नहीं। जाहिर है कि नायडू सहमत नहीं थे। संविधान सभा की बहसों से संकेत मिलता है कि संविधान निर्माता, जिनमें सभी पाॢटयां शामिल थीं, महाभियोग की धारा रखते समय बहुत सावधान थे। सदस्य नहीं चाहते थे कि महाभियोग को हल्के में लिया जाए। यह कहते हुए मुझे अफसोस है कि कांग्रेस ने सारी सावधानियां छोड़ दीं जिन्हें लेकर पार्टी खुद ही बहुत सतर्क रही है। राहुल गांधी ने अपने व्यवहार से, कांग्रेस की उस समय की हस्तियों का अनादर किया है। 

लेकिन एक बात साफ  है कि मुख्य न्यायाधीश ने अपने पद और कार्यालय के कद के साथ समझौता किया है। जैसा वरिष्ठतम 5 जजों ने इशारा किया है कि ‘‘नतीजों पर असर डालने के संभावित इरादे से कार्यसूची में नाम डालने के अधिकारी की अपनी हैसियत का दुरुपयोग कर’’ उन्होंने संवेदनशील मामलों को खास बैंचों को भेजा और अधिकारों के अमल में बुरा व्यवहार किया है। इसके अलावा मुख्य न्यायाधीश जब एक वकील थे तो उन्होंने एक जमीन लेने के लिए गलत हलफनामा दिया था। यह जरूर है कि उन्होंने 2012 में जमीन लौटा दी जब वह सुप्रीम कोर्ट के जज बना दिए गए थे लेकिन उन्होंने इसमें बहुत समय लिया जबकि आबंटन को कई साल पहले रद्द कर दिया गया था। 

यह जरूर है कि हाईकोर्ट के कुछ जजों के खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए कदम उठाए गए लेकिन कदम उठाने के पहले ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उदाहरण के तौर पर कलकत्ता हाईकोर्ट के सौमित्र सेन ने संसद की ओर से पद से हटाए जाने वाले पहले जज होने की बदनामी से बचने के लिए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने अपने पद से तब त्यागपत्र दिया जब राज्यसभा ने महाभियोग के प्रस्ताव को पारित कर उन्हें बुरे व्यवहार के लिए उच्च सदन की ओर से हटाए जाने वाला पहला जज बना दिया था। जस्टिस सेन को 1983 के एक मुकद्दमे में वकील के रूप में अदालत के रिसीवर की हैसियत से 33 लाख 23 हजार रुपयों के गबन तथा अदालत में तथ्यों को गलत ढंग से पेश करने का दोषी पाया गया था। 

इसी तरह, सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी.डी. दिनाकरन, जिनके मामले में राज्यसभा के सभापति ने भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए एक न्यायिक समिति बनाई थी, ने जुलाई 2011 को महाभियोग की कार्रवाई शुरू होने से पहले इस्तीफा दे दिया। जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ  भ्रष्टाचार, जमीन हड़पने तथा न्यायिक पद के दुरुपयोग समेत 16 आरोप तय किए गए थे। लेकिन जस्टिस वी. रामास्वामी दोहरी खासियत वाले इकलौते उदाहरण हैं जिनके खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई शुरू की गई। प्रस्ताव को 1993 में लोकसभा में लाया गया लेकिन इसे दो-तिहाई बहुमत नहीं मिला। जस्टिस रामास्वामी 1990 के दौरान पंजाब तथा हरियाणा हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल में अपने सरकारी आवास पर अत्यधिक खर्च करने के विवाद में फंस गए थे। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने महाभियोग की मांग का एक प्रस्ताव भी पारित किया था। 

महाभियोग एक गंभीर मामला है। इसका कभी भी राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। राहुल गांधी ने ऐसा किया है और उस हद तक कि उन्होंने न्यायपालिका को कमजोर कर दिया है। वह एक प्रभावशाली अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी के मुखिया हैं, अपने व्यवहारों में उन्हें अधिक सावधान रहना चाहिए। शायद उनकी मां सोनिया गांधी राजनीति की पेचीदगियों से वाकिफ  नहीं हों लेकिन उन्हें अपने बेटे को संविधान का आदर करने की सलाह देनी चाहिए थी।-कुलदीप नैय्यर


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Pardeep

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