‘यदि कश्मीर भारत के हाथों में होगा तो फिर हमारा क्या हाल होगा’

punjabkesari.in Saturday, Oct 24, 2020 - 03:55 AM (IST)

अविभाजित हिन्दुस्तान में कई दहाकों तक इंडियन नैशनल कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी के आंदोलन के लिए संघर्ष किया गया और यह उद्देश्य सामने रखा कि आजाद भारत अविभाजित होगा अर्थात् संयुक्त होगा और इस पर लोकतंत्रीय बहुमत का शासन होगा परन्तु जब देश का बंटवारा हो ही गया तो भय के कारण लाखों व्यक्ति एक से दूसरे देश में स्थानांतरित होने पर मजबूर हो गए थे और इस दौरान अमन और कानून टूट गया,तो निहत्थे लोगों का कत्ल-ए-आम हो चुका था। इसी बारे में मेजर जनरल अकबर खान अपनी पुस्तक ‘कश्मीर के छापामार’ में लिखते हैं : 

‘‘यह विडंबना अभी समाप्त नहीं हुई थी और शायद ही समाप्त होती क्योंकि भारत का कोई भाग ऐसा नहीं था जो प्रभावित न हुआ हो। तब ऐसे वातावरण में कश्मीर की धरती कैसे प्रभावित हुए बिना रह सकती थी। वहां गैर-मुस्लिम अल्पमत वर्ग मुसलमानों के भय में जिंदगी गुजार रहा था और मुस्लिम बहुमत सम्पूर्ण रूप से शस्त्रहीन होने के बावजूद महाराजा की सेना एवं सशस्त्र गैर-मुस्लिमों के भय में जी रहा था। अब तक कोई खून खराबा न होने का कारण लोगों के धैर्य का ही नतीजा था। लेकिन यह सिलसिला तब तक चल सकता था जब तक शासक अनिश्चित रूप से विलय के मामले को टाल-मटोल में रखे, दूसरी रियासतों के हाकमों के उल्ट अपनी जनता को कुछ संवैधानिक अधिकार देने के लिए कोई पग न उठाए और राजनीतिक संकेत करे कि हम ऐसा ही करने के पाबंद हैं, और हुआ भी ऐसे ही।’’ 

‘‘क्योंकि वे स्वयं उस समय की स्थिति को अपनी आंखों से देख रहे थे और साथ ही कश्मीर पर कब्जा करने की योजना के सूत्रधार एवं उसे क्रियान्वित भी करने  वाले थे। वह लिखते हैं, ‘बंटवारे के दो सप्ताह के बाद और सितम्बर के शुरू में मैं कुछ दिन के लिए कश्मीर की सीमा के निकट पर्वतीय सैरगाह मरी गया था। तब तक गर्मी के मौसम में आए अधिकतर सैलानी चले गए थे, फिर भी यह जगह अभी भी भरी हुई थी क्योंकि कश्मीर से बहुत से शरणार्थी आ चुके थे। रियासत में होने वाली परेशानियों के संबंध में जन साधारण में बातचीत इसी जगह पर होती थी। 

कटुता के इस वातावरण में हर प्रकार की बातें बढ़ा-चढ़ा कर करना लाजिमी हो गया था क्योंकि पहले गोलियां चलाई गईं और इस प्रकार की परेशानी कश्मीर में बहुत साधारण है कि किसे दोषी ठहराया जाना है और किसे बरी करना है, अब असल समस्या यह नहीं थी परन्तु फिर भी ऐसा लगता था कि भारत चीजों को वहां पहुंचने से रोक सकता है। शायद मुझे ऐसा महसूस हुआ क्योंकि मैंने हमेशा गांधी और नेहरू जैसे भारतीय नेताओं को बहुत सम्मान से देखा और मैंने उन्हें साम्प्रदायिक भावनाओं से ऊपर समझा। उनकी ओर से पाकिस्तान की मांग के पीछे किया गया विरोध समझ में आता था। लेकिन अब जब कि भारत का विभाजन एक सच्चाई बन चुकी है तो यह आशा करना भी उचित था कि इन सबकी संयुक्त भलाई के लिए वह शीघ्र से शीघ्र पाकिस्तान को अपने पैरों पर खड़ा करेंगे और इस उद्देश्य के लिए वह महाराजा को सलाह देंगे कि कश्मीर का भविष्य पाकिस्तान में होना चाहिए। 

किसी भी नक्शे पर नजर डालना यह सिद्ध करने के लिए काफी था कि अगर भारत की फौजें कश्मीर के पश्चिम के साथ ही तैनात हो गईं तो पाकिस्तान की सुरक्षा को भारी संकट पैदा हो जाएगा। एक बार जब भारत को मौका मिल गया तो वह 180 मील की महत्वपूर्ण जरनैली सड़क एवं लाहौर-पिंडी रेलवे रूट के कुछ मील के फासले पर कहीं भी ऐसे स्टेशन स्थापित कर सकता है। युद्ध की स्थिति में यह स्टेशन संचार की हमारी सबसे महत्वपूर्ण सिविल और फौजी दृष्टि से बहुत ही खतरनाक होगा। यदि हम इस रास्ते की उचित रक्षा करते हैं तो ऐसा करने में हमारी सेना का एक बहुत बड़ा भाग लगेगा, नहीं तो हम इसी प्रकार लाहौर को अपने मोर्चे की खातिर बहुत कमकाोर कर देंगे। परन्तु हम मोर्चे पर अपनी शक्ति पर ध्यान केंद्रित करते तो हम भारत को पिंडी में अपने फौजी अड्डे से लाहौर, सियालकोट, गुजरात और यहां तक कि जेहलम से भी दूर रख सकेंगे। 

आर्थिक रूप से हालत भी इतनी अच्छी नहीं थी। हमारी खेतीबाड़ी पर आधारित आर्थिकता का दारोमदार कश्मीर से निकलने वाली नदियों पर था। मंगला हैड वक्र्स वास्तव में कश्मीर में है और मराला हैड वक्र्स सीमा के एक मील अथवा उससे अधिक के फासले पर है। यदि कश्मीर भारत के हाथों में होगा तो फिर हमारा क्या हाल होगा? इसी प्रकार स्वयं कश्मीर की आर्थिकता भी पाकिस्तान के साथ जुड़ी हुई थी क्योंकि इसका एकमेव व्यापारिक मार्ग सारा साल खुला रहता था और इसकी लगभग सारी व्यापारिक गतिविधि कोहाला और मुजफ्फराबाद में पाकिस्तान आने वाली सड़क थी। कश्मीरियों की अधिकतर गिनती पाकिस्तान में शामिल होना चाहती है। परन्तु न तो हमारे दावों की परवाह की गई और न ही कश्मीरियों की उमंगों का ख्याल रखा गया।-ओम प्रकाश खेमकरणी
 


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