कैसे बढ़े राष्ट्रीय उत्पादकता?

punjabkesari.in Monday, Feb 24, 2025 - 05:45 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार दावा कर चुके हैं कि उनके तीसरे कार्यकाल में भारत दुनिया की तीसरी बड़ी इकोनॉमी बन जाएगा। फिलहाल भारत दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। वहीं अमरीका अभी भी पहले नंबर पर है, जिसकी अर्थव्यवस्था का साइज 26.7 ट्रिलियन डालर है। दूसरे नंबर पर चीन है और इसकी अर्थव्यवस्था का आकार 19.24 ट्रिलियन डालर है। 

तीसरे नंबर पर जापान 4.39 ट्रिलियन डालर के साथ मौजूद है। एक अनुमान के अनुसार भारत साल 2030 तक जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा। यदि भारत 2025 तक 5 ट्रिलियन अमरीकी डालर की अर्थव्यवस्था हासिल करने की क्षमता रखता है तो उसके संकेत तभी मिलने शुरू होंगे जब हमारे देश की उत्पादकता में वृद्धि होगी। राष्ट्रीय उत्पादकता की जब भी बात होती है तो आम आदमी समझता है कि यह मामला उद्योग, कृषि, व्यापार व जनसेवाओं से जुड़ा है। हर व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाने के लिए सरकार और उसकी नीतियों को जिम्मेदार मानता है। दूसरी तरफ  जापान जैसा देश भी है, जिसने अपने इतने छोटे आकार के बावजूद आर्थिक वृद्धि के क्षेत्र में दुनिया को मात दी।

सुनामी के बाद हुई तबाही को देखकर दुनिया को लगता था कि जापान अब कई वर्षों तक खड़ा नहीं हो पाएगा। पर देशभक्त जापानियों ने न सिर्फ  बाहरी मदद लेने से मना कर दिया, बल्कि कुछ महीनों में ही देश फिर उठ खड़ा हो गया। वहां के मजदूर अगर अपने मालिक की नीतियों से नाखुश होते हैं तो काम-चोरी, निकम्मापन या हड़ताल नहीं करते। अपनी नाराजगी का प्रदर्शन, औसत से भी ज्यादा उत्पादन करके करते हैं। मसलन जूता फैक्ट्री के मजदूरों ने तय किया कि वे हड़ताल करेंगे, पर इसके लिए बैनर लगाकर धरने पर नहीं बैठे। पहले की तरह लगन से काम करते रहे। फर्क इतना था कि वे एक जोड़ी जूता बनाने की बजाय एक ही पैर का जूता बनाते चले गए। इससे उत्पादन भी नहीं रुका और मालिक तक उनकी नाराजगी भी पहुंच गई। जबकि हमारे देश में हर नागरिक समझता है कि कामचोरी और निकम्मापन उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। दफ्तर में आए हो तो समय बर्बाद करो। कारखाने में हो तो बात-बात पर काम बंद कर दो। सरकारी विभागों में हो तो तनख्वाह को पैंशन मान लो। मतलब यह कि काम करने के प्रति लगन का सर्वथा अभाव है। इसीलिए हमारे यहां समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है। 

एक छोटा-सा उदाहरण अपने इर्द-गिर्द की सफाई का ही ले लीजिए। अगर नगर पालिका के सफाई कर्मचारी काम पर न आएं तो एक ही दिन में शहर नर्क बन जाता है। हमें शहर की छोड़ अपने घर के सामने की भी सफाई की चिन्ता नहीं होती। बिजली और पानी का अगर पैसा न देना हो तो उसे खुले दिल से बर्बाद किया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तो दूर उसे बर्बाद करने या चुराने में हमें महारत है। इसलिए सार्वजनिक स्थलों पर लगे खम्बे, बैंच, कूड़ेदान, बल्ब आदि लगते ही गायब हो जाते हैं। सीमांत प्रांतों में तस्करी करनी हो या अपने गांव-कस्बे, शहर में कालाबाजारी, अवैध धन कमाने में हमें फख्र महसूस होता है। पर सार्वजनिक जीवन में हम केवल सरकार को भ्रष्ट बताते हैं। अपने गिरेबां में नहीं झांकते। देश की उत्पादकता बढ़ती है उसके हर नागरिक की कार्यकुशलता से। पर अफसोस की बात यह है कि हम भारतीय होने का गर्व तो करते हैं, पर देश के प्रति अपने कत्र्तव्यों से निगाहें चुराते हैं। जितने अधिकार हमें प्रिय हैं, उतने ही कत्र्तव्य भी प्रिय होने चाहिएं।

वैसे उत्पादकता का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवा का उत्पादन ही नहीं, बल्कि उस आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें हर नागरिक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से कर ले और उसके मन में संतोष और हर्ष का भाव हो। पुरानी कहावत है कि इस दुनिया में सबके लिए बहुत कुछ उपलब्ध है। पर लालची व्यक्ति के लिए पूरी दुनिया का साम्राज्य भी उसे संतोष नहीं दे सकता। व्यक्ति की उत्पादकता बढ़े, इसके लिए जरूरी है कि हर इंसान को जीने का तरीका सिखाया जाए। कम भौतिक संसाधनों में भी हमारे नागरिक सुखी और स्वस्थ हो सकते हैं। जबकि अरबों रुपए खर्च करके मिली सुविधाओं के बावजूद हमारे महानगरों के नागरिक हमेशा तनाव, असुरक्षा और अवसाद में डूबे रहते हैं। वे दौड़ते हैं उस दौड़ में, जिसमें कभी जीत नहीं पाएंगे। लुभावने विज्ञापन दिखाकर लोगों को जबरदस्ती बाजार की तरफ  खींचा जा रहा है। कहा यह जाता है कि मांग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेगा तो आॢथक सम्पन्नता आएगी। पर हो रहा है उल्टा।-विनीत नारायण 
 


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