गौरी लंकेश की हत्या से भाजपा और ‘संघ’ को जोडऩा कहां तक सही है

punjabkesari.in Sunday, Sep 10, 2017 - 01:46 AM (IST)

केवल पत्रकार ही नहीं, लोकतांत्रिक गणराज्य में आस्था रखने वाले प्रत्येक भारतीय को गौरी लंकेश की जघन्य हत्या पर अफसोस होना चाहिए और साथ ही क्रोधित भी होना चाहिए कि बेंगलूर के ऐन बीचों-बीच उसके हत्यारे ऐसे अपराध को अंजाम देकर बच कर कैसे निकल गए? हत्यारों का मकसद चाहे कुछ भी हो, उन्हें शीघ्रातिशीघ्र कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। 

इस नृशंस हत्या की जांच में इस बात की कोई प्रासंगिकता नहीं होनी चाहिए कि गौरी लंकेश की राजनीतिक या वैचारिक प्रतिबद्धताएं क्या थीं। हमारे सामने चुनौती यह है कि हत्यारों को दबोचा जाए और यदि इस हत्या के पीछे कोई साजिश हो तो उसे बेनकाब किया जाए। इतना कह चुकने के बाद हमें यह कहने में कोई झिझक नहीं कि दिल्ली केन्द्रित मीडिया का एक वर्ग हमेशा ही गला फाड़-फाड़ कर शोर मचाने के रुझान का शिकार रहता है। इस वर्ग द्वारा लंकेश की हत्या पर फटाफट शोर मचाना इसके अपने स्वार्थी एजैंडे की ओर संकेत करता है। इस वर्ग को मोदी सरकार के विरुद्ध हो-हल्ला और गाली-गलौच करने के लिए कोई भी बहाना मिलना चाहिए। 

भाजपा सरकार के प्रति इस वर्ग के मन में नफरत का कोई ताॢकक आधार नहीं बल्कि यह इसकी अनुवांशिक प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है। हालांकि राजधानी के अंग्रेजी भाषी मीडिया का जनता में इतना अधिक प्रभाव नहीं है, फिर भी इसकी शरारत करने की क्षमता काफी अधिक है। यही कारण है कि यह पागलाना ढंग से दुहाई देता है कि वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी संवैधानिक व्यवस्था के लिए खतरा है। संघ परिवार से घनिष्ठता का दावा करने वाले कुछ जुनूनियों द्वारा होने वाली इक्का-दुक्का कार्रवाइयों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है ताकि अंग्रेजी मीडिया यह दलील दे सके कि संघ परिवार द्वारा हिंसा और टकराव का वातावरण बनाया जा रहा है। 

घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखने और आंकने की बजाय कथित उदारपंथी और सैकुलरपंथी संघ परिवार के कुछ जुनूनी तत्वों की व्यक्तिगत उद्दडंता व असहिष्णुता की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं ताकि सत्तारूढ़ नेतृत्व पर कीचड़ उछाला जाए। अब इन्हीं लोगों ने पहले ही यह निष्कर्ष उछालना शुरू कर दिया है कि संघ परिवार लंकेश की हत्या से जुड़ा हुआ है। लंकेश की हत्या पर खून के आंसू बहाने की नौटंकी करने वाले इन कथित उदारपंथियों और सैकुलरों का मानना है कि केवल वहीं जानते है कि हिंदुस्तान के लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा। इनकी मानें तो उन्हें हत्यारों की पहचान पहले से ही मालूम है।

यदि सिद्धरमैया सरकार ने अपने ही कल्पनालोक में जीने वाले इन सैकुलरवादियों की बातें मानी होतीं तो बेंगलूर पुलिस ने अब तक पता नहीं आर.एस.एस. और भाजपा से संबंधित कितने ही छोटे-मोटे कार्यकत्र्ताओं को पकड़कर दुनिया के मीडिया के सामने हत्यारों के रूप में प्रस्तुत कर दिया होता। लंकेश की त्रासद मौत पर आंसू बहाने की बात भूलकर, भाजपा के प्रति अंधी नफरत में डूबा कथित कास्मोपोलिटन (ब्रह्मांडवादी) मीडिया लगातार इस बात को लेकर हताश है कि आम लोगों के दिमाग पर मोदी  का जलवा क्यों छाया हुआ है। यह सच है कि लाचारगी की भावना से पीड़ित लोग काफी हताश हो जाते हैं और चीजों तथा घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाते।

बेशक यह सच है कि अपनी साप्ताहिक कन्नड़ पत्रिका में लंकेश नियमित रूप में संघ परिवार के विरुद्ध जहर उगला करती थीं, फिर भी क्या उनकी हत्या से खुद-ब-खुद यह निष्कर्ष निकल सकता है कि इसके पीछे संघ परिवार का हाथ है? क्या यह भी सच नहीं कि कर्नाटक सरकार में मौजूद जिस प्रमुख धन्ना सेठ के यहां हाल ही के गुजरात राज्यसभा चुनाव के मौके पर आयकर अधिकारियों ने छापामारी की थी वह भी गौरी लंकेश के निशाने पर था? यह भी सच है कि एक एक्टीविस्ट के रूप में गौरी ने नक्सलवादियों के साथ बहुत प्रगाढ़ संबंध स्थापित कर लिए थे। 

यहां तक कि उसने यह जिम्मेदारी उठाई थी कि वह उनमें से कुछेक को सरकार के सामने आत्मसमर्पण करने को राजी कर लेगी। उसके इस कदम से सशस्त्र नक्सली गुरिल्ला दस्तों के कट्टर सदस्य काफी गुस्साए हुए थे। यदि वामपंथी व उदारपंथी भीड़ के तौर-तरीकों का अनुसरण किया जाए तो क्या हम इस सम्भावना से इंकार कर सकते हैं कि गौरी के सफाए के पीछे नक्सलवादियों का हाथ है? कम से कम गौरी का भाई तो यही मानता है कि उसकी हत्या नक्सलियों की करतूत महसूस होती है। हम नहीं जानते कि गौरी की हत्या किसने की और न ही हम कोई अटकल लगाने का जोखिम उठा सकते हैं। लेकिन मोदी विरोधी गला-फाड़ किस्म के लोगों ने पहले ही इस अवधारणा के आधार पर रोष प्रदर्शन की एक शैली तैयार कर ली है कि हत्यारे को संघ परिवार द्वारा ही यह काम दिया गया था।

लंकेश की हत्या बालीवुड फिल्मों से कोई अधिक भिन्न कहानी नहीं है। यह भी हो सकता है कि कर्नाटक की कथित सैकुलर जुंडली के किसी सदस्य ने अत्यंत महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव से ऐन पहले सिद्धरमैया सरकार की भारी-भरकम नाकामियों एवं भ्रष्टाचार के मामलों से ध्यान बंटाने के लिए इस कत्ल की साजिश तैयार की हो। आखिर ऐसे साजिशकत्र्ता को निश्चय ही यह विश्वास होगा कि संदेह की उंगली तो संघ परिवार की ओर ही उठेगी। हमें इस प्रकार की व्याख्या केवल इसलिए करनी पड़ रही है कि हमारे सैकुलर दोस्त किसी भी कीमत पर मोदी सरकार को रक्षात्मक स्थिति में धकेलना चाहते हैं। उन्हें शायद यह बोध नहीं कि मोदी बहुत कठोर मिट्टी के बने हुए हैं और ऐसे स्वार्थी तत्वों के अपनी हित साधना के शोर-शराबे से विचलित नहीं होते।

मोदी यह भी जानते हैं कि यही सैकुलर और वामपंथी गिरोह कांग्रेस शासन के दौरान जघन्य से जघन्य ज्यादतियों को चुपचाप समर्थन देते रहे हैं। जो लोग आपातकाल के दौर में इंदिरा गांधी द्वारा प्रत्येक संस्थान से खिलवाड़ किए जाने के बावजूद उनका यशोगान करते नहीं थकते थे  और उन्हें सम्पूर्ण भारत से उपमा देते हुए कहते थे ‘इंदिरा इज इंडिया’, वही लोग आज फासीवाद तथा बढ़ते अधिनायकवाद का हौव्वा दिखा रहे हैं। वैसे सच तो यह है कि इंदिरा के पिता के शासन में भी प्रैस को सही अर्थों में स्वतंत्रता हासिल नहीं थी। सत्ता के एक-एक लीवर पर कांग्रेस का कब्जा था और दूर-दूर कर कहीं विपक्ष की झलक दिखाई नहीं देती थी। पूरा मीडिया नेहरू का बंधक बना हुआ था। उस जमाने में यदि किसी एकाध दिलेर पत्रकार ने अपनी ‘आत्मा की आवाज’ सुनते हुए कुछ दिलेरी दिखाने का प्रयास किया तो मालिकों पर दबाव डालकर उसको बेरोजगार कर दिया गया। 

मेरे दिवंगत कार्टूनिस्ट मित्र राजिंद्र पुरी के साथ बिल्कुल यही हुआ था। जब 1962 में चीन की सेनाएं असम में दूर तक घुस आईं तो हिंदुस्तान टाइम्स ने प्रथम पृष्ठ पर पुरी का बनाया हुआ जो कार्टून छापा था उसमें नेहरू को बहुत तरसयोग्य स्थिति में पेश किया गया था। बेशक राजिंद्र पुरी भारत के अब तक के सबसे अधिक प्रतिभावान राजनीतिक कार्टूनिस्ट हुए हैं लेकिन जल्दी ही उन्हें हिंदुस्तान टाइम्स से बाहर करवा दिया गया था। उसके बाद से लेकर वह 2 वर्ष पूर्व अपनी मृत्यु तक कभी भी कोई ढंग का रोजगार नहीं ढूंढ पाए थे क्योंकि उन्होंने प्रचलित रुझानों से समझौता करने से इंकार कर दिया था। 

संक्षेप में यह कहना चाहता हूं कि एक साथी पत्रकार की हत्या की जोरदार निंदा करते हुए भी मीडिया को पक्षपात से मुक्त रहना चाहिए और पुलिस को अपना काम करने देना चाहिए। लोकतंत्र की रक्षा हम सभी के लिए ङ्क्षचता का विषय है और यह लोकतंत्र स्वयंभू सैकुलरवादियों व उदारपंथियों की ही बपौती नहीं है। इसी बीच सोशल मीडिया पर लगभग 15 अन्य पत्रकारों की सूची भी चक्कर काट रही है जिनकी पूरे देश में गत वर्षों दौरान हत्याएं हुई हैं। वे हत्याएं भी कम जघन्य नहीं हैं। किसी भी सम्पादक या टी.वी. एंकर ने उनके बारे में जुबान नहीं खोली। शायद इसका एक कारण यह है कि ये 15 लोग वामपंथी उदारवादी नहीं थे और न ही उनकी तरह संघ परिवार के प्रति खुली दुश्मनी का रवैया अपनाते थे। 


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