सरकार किसानों की आय ‘दोगुनी’ कैसे कर सकती है

punjabkesari.in Friday, Jan 26, 2018 - 04:11 AM (IST)

भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्य अंगों को जहां ढांचागत सुधारों के माध्यम से ऊपर उठाया गया, वहीं भारतीय कृषि अपेक्षाकृत ऐसे प्रयासों और सुधारों से अछूती ही रह गई। कृषि क्षेत्र की उत्पादकता न बढ़ पाने के कारण सरकारें मूल्य नीति के माध्यम से ही किसानों की दशा सुधारने के प्रयास करती रहीं। समस्या यह है कि कृषि जिंसों के ऊंचे समर्थन मूल्य के माध्यम से व्यापार की शर्तों में लाए जाने वाले बदलाव के फलस्वरूप आम तौर पर हर क्षेत्र में मुद्रास्फीति बढ़ जाती है। मनमोहन सिंह नीत 2 सरकारों की अवधि में बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। 

नरेन्द्र मोदी सरकार को ऐन वर्तमान में एक दुविधा दरपेश है। खाद्यान्न कीमतों में गिरावट से किसानों की आय को आघात पहुंचा है। नीति आयोग के रमेश चन्द्र ने अनुमान लगाया है कि वास्तविक अर्थों में गत 5 वर्षों से किसानों की आय प्रतिवर्ष 1.36 प्रतिशत की दर से नीचे गिरी है। यदि सरकार कृषि जिंसों के समर्थन मूल्य बढ़ाती है तो इससे अर्थव्यवस्था के मैक्रो यानी विराट स्तरों पर जो आर्थिक स्थायित्व दिखाई दे रहा है वह खतरे में पड़ जाएगा। दूसरी ओर कोई भी लोकतांत्रिक सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में दिखाई दे रही किसानों की प्रत्यक्ष पीड़ा की अनदेखी नहीं कर सकती। यही कारण है कि अब सरकार का फोकस ऐसे सुधारों पर बन रहा है जिनसे कृषि क्षेत्र की उत्पादकता ऊंची उठ सके।

ऐसे में अशोक दलवई समिति द्वारा किसानों की आय दोगुनी करने के संबंध में तैयार की गई रिपोर्ट विशेष ध्यानाकर्षण की हकदार है। इस रिपोर्ट में जो समाधान प्रस्तुत किए गए हैं वे मोटे रूप में 4 वर्गों में बांटे जा सकते हैं, यथा- भूमि, बाजारों तक पहुंच, उत्पादकता में वृद्धि और ऊंचा झाड़ देने वाली फसलों की दिशा में कृषि विभिन्नता लाना व गैर-कृषि गतिविधियों को उत्साहित करना। सबसे पहले भूमि की बात करते हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में कृषि जोत का आकार बहुत छोटा और खंडित है। यहां तक कि 86 प्रतिशत कृषि जोतों का आकार 2 हैक्टेयर से भी कम है। इतनी छोटी जोतों पर आधुनिक उपकरण प्रयुक्त ही नहीं किए जा सकते और किसानों को न केवल अनौपचारिक स्रोतों (यानी सूदखोरों और आढ़तियों से) से ऋण लेना पड़ता है और इसके साथ-साथ मौसम की बेईमानी तथा अपने उत्पादों की कीमतों में जबरदस्त उतार-चढ़ाव का भी कोप झेलना पड़ता है। छोटे किसान तो पहले ही अति गरीब हैं और इसी कारण दूसरों की तुलना में वे अधिक जोखिम का सामना करने को मजबूर होते हैं। 

इस रिपोर्ट के समकक्ष ही अन्य रिपोर्टों ने यह उजागर किया है कि किसी भी मौके पर 5 से 10 प्रतिशत तक खेती योग्य भूमि खाली पड़ी रह जाती है क्योंकि पट्टे से संबंधित कानूनों में ऐसी त्रुटियां हैं जिनके चलते भू स्वामी जानबूझकर जमीन खाली रखते हैं कि कहीं लगातार पट्टे पर देने के फलस्वरूप पट्टेदार ही जमीन का मालिक न बन जाए। यहां तक कि जमीन पट्टे पर दी भी जाती है तो यह काम दस्तावेजी प्रक्रिया के आधार पर नहीं बल्कि मौखिक वायदे के आधार पर होता है। यानी कि पट्टेदार को कोई कानूनी संरक्षण उपलब्ध नहीं होता। इसी कारण वह पट्टे पर ली हुई जमीन के लिए न तो औपचारिक स्रोतों से ऋण ले पाता है और न ही कृषि पर निवेश करने के लिए उत्साहित होता है।

केन्द्र सरकार ने 2016 में आदर्श कृषि भूमि पट्टा कानून तैयार किया है और अनुबंधित खेती आदर्श कानून 2018 का मसौदा तैयार किया है ताकि खुद खेती न करने वाले या अपनी जमीन से दूर रहने वाले भू स्वामी निश्ंिचत होकर जमीन पट्टे पर दे सकें। इसी प्रकार अनुबंधित खेती यानी कांट्रैक्ट फाॄमग भी किसानों के लिए मददगार होनी चाहिए क्योंकि अनुबंध प्रायोजित करने वाली कम्पनियां उन्हें फसल कटाई के बाद मूल्यों में आने वाले उतार-चढ़ाव के विरुद्ध कवच प्रदान करेंगी जबकि किसान उचित दामों पर न केवल कृषि इनपुट की खरीद कर सकेंगे बल्कि प्रायोजक कम्पनी द्वारा उपलब्ध करवाई जाने वाली मशीनरी और ज्ञान तक भी पहुंच हासिल कर सकेंगे। 

कुंजीवत नुक्ता यह है कि मूल्यों के उतार-चढ़ाव का अनुमान लगाने तथा फसलें पैदा करने के लिए किसानों को विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं। उन्हें दोनों में से कोई एक या दोनों ही भूमिकाएं एक साथ अपनाने या न अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। वास्तव में 2017 की वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट (ए.एस.ई.आर.) के अनुसार ग्रामीण युवकों में से केवल 1.2 प्रतिशत ही कृषि कार्य अपनाने की रुचि रखते हैं। एक ओर तो कृषि के बाहर रोजगार के मौके अत्यंत सीमित हैं, दूसरी ओर कृषि भूमि को पट्टे पर देने या बेचने पर इतने प्रतिबंध हैं कि किसानों के लिए कृषि में से बाहर निकल पाना मुश्किल हो जाता है। 

अब बात करते हैं बाजारों तक पहुंच की। कृषि उत्पाद विपणन समितियों (ए.पी.एम.सीज) ने न केवल बिचौलियों की भूमिका पर एकाधिकार बनाया हुआ है बल्कि इस एकाधिकार को शाश्वत ही बना लिया है। अशोक दलवई समिति ने यह संज्ञान लिया है कि बाजार मूल्य में किसान की हिस्सेदारी का स्तर बहुत निम्न है और आम तौर पर यह 15 से 40 प्रतिशत के बीच ही चक्र काटता रहता है। 2003 के आदर्श ए.पी.एम.सी. कानून का जितना विरोध हो रहा है, उसके मद्देनजर केन्द्र सरकार ने आदर्श कृषि उत्पाद एवं मवेशी विपणन (ए.पी.एल.एम.) कानून 2017 पेश किया जिसका उद्देश्य वर्तमान ए.पी.एम.सी. कानून का स्थान लेना है और साथ ही प्रदेश के अंदर एकीकृत मार्कीट की अनुमति देना है ताकि किसान सीधे बड़े खरीदारों को अपनी जिंस बेच सकें। इस कानून के माध्यम से सरकार इलैक्ट्रोनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार में क्रय-विक्रय को भी बढ़ावा देना चाहती है। 

यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नीति को भी खपतकारों के पक्ष में प्रयुक्त किया जा रहा है। समिति की रिपोर्ट एक स्थिर व्यापार व्यवस्था की पक्षधर है जो पूर्व निर्धारित संकेतों के आधार पर तैयार की गई हो और जिसमें अंशधारकों को फसली अनुमानों के साथ-साथ नीतिगत बदलावों का पूर्वानुमान लगाने की अनुमति हो। तीसरे नम्बर पर बात करते हैं भारत में फसलों की उत्पादकता की। वैश्विक मानकों के अनुसार हमारी फसलों की उत्पादकता न केवल बहुत कम है बल्कि विभिन्न राज्यों में उत्पादकता में भारी अंतर भी है। इसके लिए मुख्य तौर पर सिंचाई सुविधाओं तथा अनुकूलित टैक्नोलॉजी तक पहुंच न होना जिम्मेदार है। सिंचित क्षेत्रों में समस्त फसलों की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता 56,510 रुपए है जबकि केवल वर्षा के भरोसे रहने वाले कृषि क्षेत्रों में यह आंकड़ा 35,352 रुपए है।

जहां तक सीमांत किसानों का संबंध है उनकी आय यदि दोगुनी करनी है तो उत्पादकता को बढ़ाना ही एकमात्र और सबसे महत्वपूर्ण कारक है। यह उद्देश्य तभी प्राप्त हो सकता है यदि सिंचाई, बीज उर्वरक तथा अन्य प्रकार की टैक्नोलॉजी में सार्वजनिक निवेश किया जाए लेकिन एक के बाद एक सरकारें ग्रामीण आधारभूत ढांचे में निवेश करने की बजाय सबसिडियां देने को ही प्राथमिकता देती आई हैं। अंत में हम फसली विविधता की बात करते हैं। किसानों की आय बढ़ाने के लिए यह अत्यंत जरूरी है। 

ऐसा इसलिए है क्योंकि सब्जियों और फलों जैसी उच्च कीमत वाली फसलों की औसत उत्पादकता प्रमुख कृषि फसलों की तुलना में बहुत अधिक है जहां गेहूं, धान इत्यादि जैसी मुख्य खाद्यान्न फसलों की औसत उत्पादकता केवल 40,000 रुपए प्रति हैक्टेयर है, वहीं फलों और सब्जियों के मामले में यह आंकड़ा 4 लाख रुपए है। उपरोक्त सुधारों में से अधिकतर राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं लेकिन ये सरकारें अक्सर बड़े किसानों के हितों की ही रक्षा करती हैं। नीति आयोग ने कृषि को समवर्ती सूची में लाने की दलील दी है ताकि केन्द्र सरकार भी कृषि उत्पादों के लिए राष्ट्रीय बाजार सुनिश्चित कर सके। यह परिकल्पना बुरी नहीं है।


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