आशा है चुनावों में नफरतपूर्ण व विभाजनकारी ताकतों की जीत नहीं होगी

punjabkesari.in Friday, Jan 28, 2022 - 05:44 AM (IST)

विशाल राज्य उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों में विधानसभा चुनावों ने देश का ध्यान उन्हीं पर केन्द्रित कर दिया है। वर्तमान में मंत्री तथा विधायक अपनी हार का आभास महसूस करते हुए वफादारियां बदलने का अपना पसंदीदा खेल खेल रहे हैं। यह व्यक्तिगत पराजय हो सकती है जिसका आभास किया जा रहा है या फिर पार्टी की पराजय जिससे वर्तमान में विधायक जुड़े हुए हैं। इसके साथ-साथ पार्टी टिकटें वितरित तथा घोषित की जा रही हैं। जो लोग पसंदीदा नहीं रहे, तुरन्त ही किसी अन्य पार्टी में जाने का विचार करते हैं कि वह उनका स्वागत करेगी लेकिन यह इतना आसान नहीं होगा क्योंकि कोई भी पार्टी एक पराजित व्यक्ति पर इतना ध्यान नहीं देगी। 

गोवा में, जो मेरे पूर्वजों की धरती है, जहां मतदाताओं की संख्या प्रति निर्वाचन क्षेत्र लगभग 30,000 है और मतदाताओं के लिए पार्टी की बजाय व्यक्ति अधिक महत्व रखते हैं, आया राम, गया राम कारक काफी पहले शुरू हो गया। स्वाभाविक है कि उत्तर प्रदेश में भी इसी तरह का नाटक चल रहा है। जब तक उम्मीदवारों की सूची जारी नहीं हो जाती वे अपने पत्ते छुपाकर रखते हैं। 

अप्रत्याशित घोषणा करते हुए योगी मंत्रिमंडल में 2 मंत्रियों तथा उनके 6 या 7 विधायक मित्रों ने भाजपा का साथ छोड़ दिया तथा काफी हलचल पैदा कर दी। इस तरह की अचानक गतिविधियां किसी भी राजनीतिक पार्टी को परेशान कर देंगी लेकिन विशेष तौर पर ‘एक अलग तरह की पार्टी’ को जिसने गत कुछ वर्षों के दौरान अन्य पाॢटयों के कितने ही बागी अथवा महत्वाकांक्षी नेताओं का शिकार किया है। इसने जो कुछ खुद किया है उसे देखते हुए बदनामी से भी अधिक यह इसकी सोशल इंजीनियरिंग के लिए एक बड़ी चुनौती है जिसे लेकर पार्टी चिंतित है। 

यदि भाजपा अपने नए जोड़े गए ओ.बी.सी. समर्थकों को प्रभावित नहीं कर सकी, जो प्रस्तावित हिंदू राष्ट्र के केंद्र में इसकी सोशल इंजीनियरिंग परियोजना के लिए महत्वपूर्ण है तो गत 7 वर्षों के दौरान इसके नेताओं ने जो योजनाएं बनाई हैं वे बेकार चली जाएंगी। और वह कुछ मंत्रियों तथा 7 अन्य विधायकों तथा कुछ वोटों को गंवाने से भी कहीं अधिक यातनापूर्ण होगा। 

तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा गोवा में चुनावों के परिणाम बारे कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। कांग्रेस पार्टी, जिसके पास पंजाब तथा गोवा में एक स्पष्ट अवसर था, ने ‘आप’ को जमीन गंवा दी। उदाहरण के लिए, गोवा में ऐसा दिखाई देता है कि टैक्सी ड्राइवरों, इलैक्ट्रिशियनों, प्लम्बरों तथा रेस्तरांओं में काम करने वाले कम धनी लोग ‘आप’ के प्रभाव में हैं, अरविंद केजरीवाल की पार्टी निश्चित तौर पर इस बार इस छोटे राज्य में अपना खाता खोलेगी। स्थानीय लोगों का मानना है कि ‘आप’ बड़े नगरों में लोकप्रिय है। 

अरविंद केजरीवाल ने समीकरणों में जाति का कारक लागू करके अपने प्रयासों को चरम पर पहुंचा दिया है। भंडारी समुदाय, जो हिंदू तथा ईसाइयों दोनों जातियों में सबसे अधिक संख्या में हैं, का जिक्र संभवत: पहली बार गोवा के चुनावों में किया गया है। निश्चित तौर पर ये ईसाइयों में भी मौजूद थे लेकिन इससे पहले इनका उल्लेख कभी नहीं किया गया था और वह इतना खुलकर जितना कि केजरीवाल ने यह घोषणा करके कि उनकी पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार एक भंडारी है। 

ऐसा दिखाई देता है कि पंजाब में भी ‘आप’ धीरे-धीरे अपनी बढ़त बना रही है। यह सबसे बड़ी एकल पार्टी के रूप में उभर सकती है। यदि भाजपा बड़ी हिंदू जनसंख्या के साथ खिंचाव बना लेती तो इसे कांग्रेस, ‘आप’ तथा अकाली दल के बीच वोटों के विभाजन से लाभ मिल सकता था लेकिन ऐसा दिखाई नहीं देता कि थोक में भाजपा के पक्ष में वफादारियां स्थानांतरित हुई हों और ऐसा दिखाई देता है कि मेरे पुराने मित्र कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने कोई विशेष प्रगति नहीं की है। 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अथवा संघ परिवार ने बड़े ल बे समय से एक ऐसी जमीन का सपना देखा था जो 80:20 के अनुपात में वोट दे। ऐसा नहीं हुआ और मैं सुनिश्चित हूं कि कभी भी नहीं होगा। मेरे हिंदू मित्र जो चुनावी लाभ के लिए वर्तमान सरकार द्वारा समाज में फैलाई जा रही नफरत तथा विभाजनकारी नीतियों को अस्वीकार करते हैं, उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। न केवल सामान्य संदिग्धों, वामपंथ की ओर झुकाव वाले उदारवादी, द्वारा आवाजें उठाई जा रही हैं बल्कि विद्यार्थियों, मध्यमवर्गीयों, सही सोच वाले हिंदू परिवारों आदि द्वारा भी। 

ऐसा दिखाई देता था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा बढ़त में थी। लेकिन अब ओ.बी.सी. नेताओं द्वारा बगावत का झंडा फहराने तथा खुलकर अपने समर्थकों को सच्चाई के प्रति अपनी आंखें खोलने का आह्वान करने से अखिलेश की समाजवादी पार्टी अब आगे बढ़ गई है। भाजपा कांग्रेस, बसपा तथा सपा के बीच विपक्षी वोटों के विभाजन पर निर्भर कर रही है। यह संभव है लेकिन सोशल इंजीनियरिंग, जिस पर संघ परिवार वोटों को 80:20 में विभाजित करने से निर्भर करता है उसे छोडऩा होगा। और यह उसकी बड़ी योजना पर एक कुठाराघात होगा। 

उत्तराखंड में भाजपा ने दाल में कुछ काले का आभास किया है। यदि नहीं तो यह साधुओं तथा संतों को असहाय अल्पसं यक नहीं बताती। यह नफरत  कितना ङ्क्षखचाव पैदा करेगी, परिणाम घोषित होने पर ही पता चलेगा। मेरे विचार में चुनावों के समय धर्म का सहारा लेना काम नहीं आएगा क्योंकि मतदाताओं को अब ऐसी आध्यात्मिक बातों की बजाय असल मुद्दों की अधिक ङ्क्षचता है। ‘आप’, कांग्रेस की ही तरह, जो नर्म हिंदुत्व का अनुसरण करती है, राज्य में अपनी पैठ बनाती दिखाई दे रही है। 

भाजपा संभवत: मणिपुर में सफल हो सकती है। उत्तर-पूर्व का छोटा राज्य अपने राजस्व के लिए मुख्य तौर पर केंद्र सरकार की अनुकंपा पर निर्भर है। स्थानीय अर्थव्यवस्थाएं इतनी भी आय पैदा नहीं करतीं जिनकी जरूरत प्रशासन के वेतन चुकाने के लिए पड़ती है। अत: जो कोई भी स्थानीय पार्टी सत्ता में है, जैसे कि नागालैंड, मेघालय तथा मिजोरम में, जो तीनों ईसाई बहुल राज्य हैं, को अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी करने के लिए केंद्र में सत्तासीन किसी भी सरकार से बनाकर रखनी पड़ेगी। 

मैं कोई चुनावी विश्लेषक नहीं हूं। यहां तक कि मैं अधिक चुनावी अनुभूति होने के दावे नहीं करता। इन विधानसभा चुनावों में मेरी रूचि शुरू में इस तथ्य के कारण पैदा हुई कि गोवा तथा पंजाब में चुनाव होने हैं। गोवा में मेरे पूर्वज कुछ हजार वर्ष पूर्व आकर बसे थे तथा पंजाब वह राज्य है जहां मैंने कुछ यादें छोड़ी हैं कि कैसे आतंकवाद से निपटा जाना चाहिए-सामान्य किसानों के दिलों तथा मनों को जीतना जो जनसंख्या का बड़ा हिस्सा बनाते हैं। मगर ये चुनाव एक अन्य कारण से महत्वपूर्ण हैं इनके परिणाम उस प्रश्र का उत्तर देंगे जो बहुत से नागरिक पूछते हैं : ‘क्या हमारे प्यारे देश में मुसलमानों को नुक्सान पहुंचाना, नफरत तथा विभाजन फैलाना चुनाव जिता पाएगा?’ अपने देश के लिए मैं आशा करता हूं कि नहीं!-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी) 
 


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