सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए कदम आधे-अधूरे मन से उठाए

punjabkesari.in Saturday, Mar 17, 2018 - 03:45 AM (IST)

क्या कारण है कि सत्तातंत्र चाहे भाजपा से संबंध रखते हों या कांग्रेस से, नियमित रूप में केवल तभी नींद से जागते हैं जब परिस्थितियां टकराव  के कगार तक पहुंच जाती हैं? अनेक दशकों से भारत की राजनीति इसी ढर्रे पर चल रही है। 

12 मार्च को मुम्बई में जब आंदोलनरत किसानों का सैलाब आ गया और दबाव बढऩे लगा तो भी इसी प्रकार की संदिग्ध राजनीति के कई रंग देखने को मिले। आखिर भाजपा नीत सरकार ने जंगलात भूमि पर खेती करने एवं 2001 से 2008 के बीच ऋण लेने वाले किसानों को भी कर्जा माफी दिए जाने सहित उनकी लम्बे समय से चली आ रही अधिकतर मांगों को स्वीकार कर लिया। मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस ने नासिक से मुम्बई तक 180 किलोमीटर तक किसान मार्च का नेतृत्व करने वाली एवं वामपंथी झुकाव वाली अखिल भारतीय किसान सभा (ए.आई.के.एस.) के एक दल से मुलाकात की और बाद में विधानसभा को बताया कि सरकार किसानों की मांगों के प्रति ‘‘संवेदनशील है एवं सकारात्मक रवैया रखती है।’’  

आंदोलनरत किसानों में से बहुत से आदिवासी हैं और अत्यंत दयनीय स्थितियों में जीवन यापन करते हैं। मुख्यमंत्री ने गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे आदिवासियों को वित्तीय सहायता, कृषि पैदावार के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का वायदा करने के साथ-साथ प्रदेश के आदिवासी बहुल उत्तरी इलाकों के लिए 31 जल संरक्षण परियोजनाओं की घोषणा की और नार-पार, दमन दंगा एवं गिमार नदी जोड़ परियोजनाओं का भी ऐलान किया। ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ की लोकोक्ति के अनुसार किसानों की मांगें मानने के लिए देवेन्द्र फडऩवीस शाबाश के हकदार हैं तो भी मेरा नुक्ता यह है कि उन्होंने इतने लम्बे समय तक किसानों की बेचैनी की अनदेखी क्यों की, खासतौर पर तब जब किसानों की आत्महत्याओं की खबरें हर रोज नियमित रूप में अखबारों की सुर्खियां बनती थीं? उत्तर प्रदेश हो या महाराष्ट्र, राजस्थान हो या पंजाब, हर जगह राजनीतिक नेतृत्व की त्रासदी एक जैसी है। ये सभी राज्य कर्ज माफी की अपनी-अपनी योजना प्रस्तुत कर रहे हैं लेकिन किसानों को दरपेश आधारभूत समस्याओं की ओर उनमें से किसी का भी ध्यान नहीं। 

जैसा कि अक्सर होता ही है, बैंकों द्वारा अप्रैल 2017 के फरवरी 2018 के बीच दिए गए वास्तविक फसली ऋण एवं सरकारी आंकड़ों  के बीच बहुत गंभीर विसंगतियां हैं। जहां तक इस कर्ज की राशि का सवाल है, यह 2016-17 की इसी अवधि दौरान दिए गए कर्ज से 40.3 प्रतिशत कम है। इसके अलावा महाराष्ट्र में ऋण संकट इस कड़वी हकीकत को रेखांकित करता है कि संस्थागत ऋण प्रणाली व्यावहारिक रूप से ध्वस्त हो चुकी है। इसके फलस्वरूप किसान पहले की तुलना में साहूकारों के चंगुल में अधिक फंसेंगे। यह सचमुच ही कोई खुशी की बात नहीं। 

राष्ट्रीय किसान आयोग (एन.सी.एफ.) की रिपोर्ट के लेखक प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन ने बहुत समय पूर्व अनेक निर्णायक सिफारिशें की थीं लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार ने उनके सुझावों को पूरी तरह ठेंगा दिखा दिया। इसने तो दलहनों और तिलहनों के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की चिंता नहीं की, किसानों को ‘‘सम्पूर्ण एवं बिना शर्त कर्ज माफी’’ की मांग पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करना तो बहुत दूर की बात थी। वैसे प्रो. स्वामीनाथन कृषि ऋण माफी को किसानों को लम्बे समय से दरपेश चुनौतियों का कोई  समाधान नहीं मानते। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इस कृषि वैज्ञानिक का कहना है: ‘‘ऋण माफी की मांग कृषि अर्थव्यवस्था के लाभदायक न होने की अलामत है इसलिए कृषि को आॢथक दृष्टि से लाभप्रद बनाए जाने के लिए हर कदम उठाया जाना चाहिए।’’ 

लेकिन उन्हें अपनी व्यथा इन शब्दों में व्यक्त करनी पड़ी: ‘‘मुझे खेद से कहना पड़ता है कि ऋण माफी जैसी सरल और अल्पकालिक रणनीतियां कृषि क्षेत्र की व्यथाओं से निपटने का उत्कृष्ट तरीका नहीं हैं। वैसे ऋण माफी नया कृषि ऋण लेने का केवल एक आसान तरीका ही है लेकिन ऋण को सरासर माफ कर देना इस बात की गारंटी नहीं कि अगला ऋण निश्चय ही लौटा दिया जाएगा। किसान ऐसा तब तक नहीं कर पाएंगे जब तक कृषि को लाभदायक धंधा नहीं बना दिया जाता।’’ प्रो. स्वामीनाथन की यह बात सोलह आने सच है। वह कर्ज माफी के विरुद्ध नहीं हैं लेकिन चाहते हैं कि यह काम कृषि क्षेत्र की सेहत में सुधार लाने की रणनीति के अंग स्वरूप किया जाना चाहिए। उन्होंने कृषि क्षेत्र में टैक्नोलॉजी, व्यापार एवं प्रशिक्षण से जुड़ी हुई जरूरतों को रेखांकित करते हुए कहा है कि ऐसा करने से किसानों को बुरे दिनों के विरुद्ध एक कवच हासिल हो जाएगा। 

दिलचस्प बात यह है कि बुरी तरह परेशान किसानों की बेचैनी के चुनावी परिणामों से चिंतित मोदी सरकार ने अपने फरवरी बजट में कम से कम दो दर्जन जिंसों के मामले में लागत मूल्यों पर 50 प्रतिशत अतिरिक्त लाभ की गारंटी देने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए कुछ कवायद शुरू की। इसने नीति आयोग को ऐसा चौखटा तैयार करने को कहा है जो  कृषि कीमतों के धराशायी होने की स्थिति में भी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी करे लेकिन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा  माने जाने वाले कृषि क्षेत्र के संबंध में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आधे-अधूरे मन से उठाए गए कदम देख कर मुझे निराशा ही हुई है। 

बेशक स्वामीनाथन आयोग यू.पी.ए. के शासनकाल में गठित किया गया था तो भी उसने इसके महत्वपूर्ण निर्णयों को कार्यान्वित करने में कोई अधिक रुचि नहीं दिखाई। 2014 में अपने चुनावी मैनीफैस्टो में भाजपा ने ऐसा करने का वायदा किया था। वास्तव में इसने स्वामीनाथन रिपोर्ट का बड़ा हिस्सा प्रचार के लिए उठा लिया था लेकिन बाद में यह सत्तासीन पार्टी भी अपने पूर्ववर्ती यू.पी.ए. शासन से खुद को भिन्न सिद्ध नहीं कर पाई। वास्तव में कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश पहले से कम हुआ है और कहीं भी अधिक निवेश होने के कोई साक्ष्य नहीं मिलते। प्रधानमंत्री की फसल बीमा योजना में भी ढेर सारी त्रुटियां हैं।

स्वामीनाथन आयोग की कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशों का यहां स्मरण करना अप्रासंगिक नहीं होगा। इसने फालतू और बंजर जमीनों के वितरण सहित व्यापक भूमि सुधारों के साथ-साथ उपजाऊ जमीन तथा जंगलात भूमि को गैर कृषि उद्देश्यों के लिए कार्पोरेट क्षेत्र के हवाले करने से रोकने हेतु तथा चरागाह अधिकारों एवं सांझे सम्पदा स्रोतों तक पहुंच को सुरक्षित बनाने का भी सुझाव दिया था। इसने खासतौर पर सिंचाई, जल निकासी, भूमि विकास, जल संरक्षण और जैव विविधता को बढ़ावा देने  पर भी बल दिया था। इसने यह भी सुझाव दिया था कि किसानों को संसाधनों तक एक जैसी तथा पायदार  पहुंच सुनिश्चित करने के लिए भूमिगत एवं भूतल जल संसाधनों का व्यापक प्रबंधन होना चाहिए। 

आज के नीति निर्धारकों को यह मानना ही होगा कि किसान वर्ग के असंतोष संबंध में जमीनी स्तर से जो संकेत मिल रहे हैं उनके बारे में इन्हें कोई अधिक ज्ञान नहीं है। इन नौकरशाहों को ठंडे दिमाग से अपनी विफलताओं पर चिंतन-मनन करना चाहिए और एम.एस. स्वामीनाथन जैसे जाने-माने कृषि विशेषज्ञों की बुद्धिमता और अनुभव से लयताल बिठाते हुए सुधारात्मक कदम उठाने चाहिएं। नियामक नीतियों  पर फोकस का एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि किस तरह कृषि उत्पादन की लाभप्रदता में बढ़ौतरी की जा सकती है। ऐसा होगा तो कृषि क्षेत्र में खुद निवेश बढ़ेगा और निवेश बढऩे से उत्पादकता भी बढ़ेगी। 

संस्थागत ऋणों पर ब्याज की दर को घटा कर 4 प्रतिशत करना तथा औपचारिक ऋण (यानी बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों द्वारा दिए जाने वाले ऋण) तक गरीब और जरूरतमंद किसानों की आसान पहुंच होनी चाहिए। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सूखे अथवा अचानक गड़ेमार से प्रभावित होने वाले किसानों को उनके नुक्सान के लिए तत्परता से मुआवजा मिलना चाहिए। मौसम, बिजाई एवं कटाई तथा प्रसार सेवाओं के संबंध में तकनीकी आविष्कार किसानों को मौसमी आपदाओं से बचाने में बहुत सहायता दे सकते हैं। बुरे दिनों में किसानों को बदहाली से बचाने वाले पशुपालन के धंधे की ओर भी ध्यान देना कोई कम महत्वपूर्ण नहीं।

आजकल कथित गौभक्तों से इस धंधे को कड़ी चुनौती मिल रही है। भाजपा शासित राज्यों में इस प्रकार के उत्पातियों पर अंकुश लगाने की जरूरत है। कृषि संकट का सबसे चिंताजनक पहलू है शोध एवं विकास कार्यों में निवेश की दयनीय हद तक अनदेखी। यह निवेश सकल घरेलू उत्पाद के 0.4 प्रतिशत से भी कम है। इन स्थितियों का अंजाम क्या होगा-यह अभी से स्पष्ट दिखाई देने लगा है। यू.पी.ए. और बिहार में उपचुनावों के परिणाम सत्तासीनों के लिए खतरे का अलार्म है। प्रधानमंत्री मोदी को अवश्य ही आज कृषि क्षेत्र की न्यूनतम वृद्धि दर, नाममात्र की कमाई, देश के अंदर व्यापक  पैमाने पर आंतरिक अप्रवास और किसानों की आत्महत्याओं की उच्च दर का संज्ञान लेना होगा ताकि किसानों की व्यथा की ओर युद्ध स्तर पर ध्यान दिया जा सके। ऐसा न हुआ तो केन्द्र और राज्य दोनों में ही यह भाजपा सरकारों के लिए जानलेवा सिद्ध हो सकता है।-हरि जयसिंह


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