ई.वी.एम. पर सवाल उठाते नेता

punjabkesari.in Saturday, Mar 09, 2024 - 05:48 AM (IST)

18वीं लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह समेत 195 उम्मीदवारों के नाम की पहली सूची सांझा करने हेतु रविवार का दिन चुनती है। असम की सूची में दर्ज त्रुटि को दूर करने की जरुरत होगी। कुछ और कमी रह गई है। इन दिनों चुनाव का माहौल शिखर छू रहा है। ऐसा नहीं है कि दलपतियों को अपनी स्थिति का पता नहीं हो। 
भाजपा 370 सीट जीतने का दावा करती और गठबंधन इस बार 400 पार का नारा बुलंद कर रहा है। इस बात पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह जैसे नेता वोटिंग मशीन हैक करने की बात अभी से उठाने लगे। 

बैलेट पेपर पर चुनाव कराने की पैरवी भी होने लगी है। यह कई टन कागज के साथ कई क्विंटल जहरीला इंक खपाने का मामला है। पर्यावरण वादियों को तो इसी वजह से बैलेट खोल देने की पैरवी करने की छूट मिली हुई है। बड़े लोगों ने निर्भयता और भय के बढ़ते हुए साम्राज्यों की ओर भी उंगली उठाई है। चुनाव आयोग पहले बैलेट पेपर पर चुनाव करवाती थी। आज बदली स्थिति के लिए दिनेश गोस्वामी को दोषी ठहराना कितना मुनासिब है? दबंगों के देश में दलितों और पिछड़ों की उंगली तो मतदान का निशान मात्र दर्ज करती थी। सही में मतदान करने वाले लोग दूसरे ही होते थे। इसे रोकने के लिए ई.वी.एम. ईजाद किया गया। बाहुबलियों के बूते मतपेटियों के लूट की इस कहानी को इसके इस्तेमाल ने रोक दिया है। 

ऐसी युक्तियों को अपनाकर विधान भवन तक पहुंचने वाले माननीयों से लोकतंत्र को बचाना जरुरी था। क्या धांधली को रोकने के लिए ही इसका उपयोग नहीं शुरू किया गया है? इस मामले में वी.पी. सिंह सरकार ने जनवरी 1990 में तत्कालीन विधि मंत्री दिनेश गोस्वामी के नेतृत्व में 11 सदस्यों वाली चुनाव सुधार समिति बनाई। इसकी रिपोर्ट को मई 1990 में संसद के पटल पर रखा गया। इसमें ई.वी.एम. के इस्तेमाल की बात कही गई। क्या ई.वी.एम. का इस्तेमाल इसी सिफारिश का नतीजा है? 1988 में राजीव गांधी की सरकार लोक प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 61 में संशोधन कर मतपत्रों के स्थान पर ई.वी.एम. का उपयोग करने का कानून बनाती है। गोस्वामी जी की समिति इसकी भूमिका बाद में ही लिखित तौर पर वीरप्पा मोइली जैसे राजनेता पुराने दिनों की ओर नहीं लौटने की पैरवी करते हुए बैलेट पेपर पर चुनाव की मांग को खारिज करते। 

एक बार मध्य प्रदेश के अटेर विधान सभा क्षेत्र में परीक्षण के दौरान ई.वी.एम. ने सबसे बड़े दल के प्रत्याशी के पक्ष में गलत नतीजा देकर इस चर्चा को गरमाने का काम किया। ऐसी चुनौती के जवाब में सुप्रीम कोर्ट भी वी.वी.पी.ए.टी. वाली ई.वी.एम. से चुनाव कराने को कहने लगी। वोटर वैरीफएबल पेपर ऑडिट ट्रायल (वी.वी.पी.ए.टी.) से सुनिश्चित होता है कि मतदाता ने बटन को दबाकर मतदान किया है। गोवा विधानसभा चुनाव में पहली बार सभी सीटों पर इसे इस्तेमाल में लाया गया। 16वीं लोकसभा चुनाव में 8 प्रदेशों के 8 संसदीय क्षेत्रों में भी इसी से काम लिया गया। चुनाव आयोग को सभी ई.वी.एम. में यह सुविधा जोडऩे के लिए करीब 3600 करोड़ रुपए की जरूरत थी तो मुख्य चुनाव आयुक्त ने कई बार केन्द्र सरकार को पत्र लिखे। आज एक और तकनीक सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर दस्तक दे रही है और पूरी राजनीतिक जमात इसकी पैरवी करने में लग गई है। 

पहले भी बसपा सुप्रीमो मायावती, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव और आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल ने एक साथ मिल कर ई.वी.एम. में गड़बड़ी की ओर इंगित किया था। परिणाम आने के बाद शायद फिर ऐसा ही हो! इनके आरोपों से ईवीएम में हेराफेरी की बात सिद्ध होती है कि नहीं, यह  मौलिक सवाल नहीं है। मतदान की गोपनीयता की असंवैधानिकता पर इनमें से कोई सवाल क्यों नहीं उठाता है? इस सवाल का जवाब सहजता से देने वाले भी मिल ही जाते हैं। 

लंबा समय बीत गया, ई.वी.एम. डैमोक्रेसी की बात पर लोक क्रांति अभियान का सूत्रपात करने वाले गोविन्द यादव ने इसकी चर्चा की थी। संदेह की सुई ई.वी.एम. की ओर घुमाने वालों में उनके अतिरिक्त शायद कोई और नहीं होगा, जिसे हार का भय नहीं हो। परंतु खुले मतदान की बात अब तक उनकी चर्चा की परिधि से बाहर है। इस बीच भय से थर थर कांपने वाले ई.वी.एम. पर हार का ठीकरा फोडऩे की तैयारी करते प्रतीत हो रहे हैं। 

ई.वी.एम. में हेराफेरी की संभावना से तो केवल चुनाव आयोग ही इंकार करता है। इसी संभावना के बूते चुनाव परिणामों को बदलने की आशा करने वाले नेता भविष्य में हार का ही सामना करेंगे। क्या यह विवाद अपनी ही कमियों को छिपाने की असफल कोशिश नहीं है? ई.वी.एम. को दोषी ठहराने वाले क्यों इस बात को नकार रहे कि आज भाजपा बराबर बेहतर रणनीति के साथ चुनाव के मैदान में उतर रही है। जमीन पर राजनीतिक और सामाजिक इंजीनियरिंग का मुकाबला किए बगैर बैलेट पेपर की पैरोकारी करने से क्या ई.वी.एम. पर दोष सिद्ध हो जाएगा? आप जापान और जर्मनी की बात भले कितनी भी कर लीजिए।

इस मामले में कभी भाजपा के नेता भी यही काम कर रहे थे। जी.वी.एल. नरसिम्हा राव भाजपा के ही विद्वान नेता हैं। उन्होंने साल 2010 में ‘डैमोक्रेसी एट रिस्क’ नामक किताब लिखी। इस किताब की विषय-वस्तु यही ई.वी.एम. रही। भारत रत्न लाल कृष्ण अडवानी जी इसकी प्रस्तावना लिखते हैं। इसमें वॢणत बातों का जिक्र कर भाषण ओजपूर्ण बनाने वाले नेता अब दूसरे दलों में ही मिलते हैं। इस पर जारी विमर्श के पक्ष-विपक्ष में खड़े होकर इसे ही मुख्यधारा की बहस के केंद्र में पहुंचा देने वाले भी बाजार में खूब मौजूद हैं। 

इंटरनैट मीडिया के आधुनिक युग में जनता अपनी बात खुल कर जाहिर करने लगी है। क्या आर्टीफिशियल इंटैलीजैंस के इस युग में भी गोपनीय मतदान जैसी कोई बात रह गई है? इस मामले में सक्रिय बहुराष्ट्रीय कंपनियां कई मामलों में ईस्ट इंडिया कंपनी को पीछे छोड़ सकती हैं। वैश्वीकरण के दौर में तकनीक का इस्तेमाल कर मतदान की प्रक्रिया में धांधली रोकने की कोशिश तो हुई। इसके साथ छेड़-छाड़ की चुनौती भी वक्त के साथ खड़ी हुई है। इसमें ई.वी.एम. के प्रामाणिकता की जांच आवश्यक प्रक्रिया छूटती आ रही है।

दरअसल चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट समेत राजनीतिक दलों को भी लोगों में निर्भयता सुनिश्चित करने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। लोकतंत्र को उन्नत बनाने के लिए लोगों की और बेहतर भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल देना ही श्रेयस्कर है। अन्यथा चुनाव आयोग, लोक प्रतिनिधित्व कानून और कोर्ट कचहरी के पेंच में फंस कर संविधान की मूल भावना ही विलीन हो जाएगी। आजादी के अमृत काल और विकसित भारत के लक्ष्यों को साधने के लिए लोकतंत्र के तमाम अवयवों को जरूरी कसौटियों पर परखते भी रहना चाहिए ताकि शासन व्यवस्था में जनता की भागीदारी और दिलचस्पी बनी रहे।-कौशल किशोर
 


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