चुनाव परिणाम भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए ‘सबक’

punjabkesari.in Thursday, Dec 20, 2018 - 12:37 AM (IST)

5 राज्यों के चुनावों को लोकसभा चुनावों के लिए सैमीफाइनल कहा जा रहा है। इस सैमीफाइनल में जीत किस नेता व किस पार्टी की हुई है, यह लोगों को समझ नहीं आ रहा है। स्कोर बोर्ड को देखकर लगता है कि इस चुनाव में कांग्रेस के नेताओं ने राहुल गांधी के नेतृत्व में खूब रन बनाए हैं, इसलिए स्कोर बोर्ड पर जीत कांग्रेस की नजर आती है। 5 विधानसभा चुनावों के परिणामों का अगर विश्लेषण करें, तो लगता है कि इस चुनाव में वोटर ने राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को नकार कर खुद को साबित करते हुए, दोनों को 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले आईना दिखाने का काम किया है।

भारतीय जनता पार्टी द्वारा मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में 15 वर्षों की सत्ता व आने वाले 5 वर्षों के लिए वर्तमान मुख्यमंत्री के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की घोषणा करना, यानी  कुल 20 वर्षों की सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर ही कांग्रेस को ये  परिणाम मिले हैं। अगर कांग्रेस इसे अपनी जीत मान रही है, तो दिल बहलाने के लिए गालिब ख्याल अच्छा है।

वोटर बदलाव के मूड में था
इस बार वोटर बदलाव के मूड में था, इसीलिए कांग्रेस को कुछ सकारात्मक परिणाम मिले हैं। निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी व उसके नेताओं के मनोबल बढ़ाने की दृष्टि से ये परिणाम अच्छे हैं। मध्य प्रदेश व राजस्थान के वोट शेयर के गणित को समझें तो दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को एक जैसे ही वोट मिले हैं। वोटर ने न भाजपा को रिजैक्ट किया है और न ही कांग्रेस को इस चुनावी परीक्षा को पास करने का सर्टीफिकेट दिया है।

बारीकी से चुनाव परिणाम का विश्लेषण करें तो लगता है कि जनता ने मोदी व भाजपा को नकारा नहीं बल्कि चेताया है। लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा को मिली यह नैतिक व मनोवैज्ञानिक हार उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं को झिंझोडऩे व सबक की तरह है। अगर उसके नेता व कार्यकत्र्ता अब भी नहीं संभले तो 5 माह के बाद होने वाले चुनावों में जनता उन्हें भी लोकसभा से बाहर का रास्ता दिखा सकती है। देश के ज्यादातर मतदाता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक और मौका देना चाहते हैं, पर यह भाजपा, उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं के लिए तय करने का समय है कि वे फिर से भाजपा को केन्द्र की सत्ता पर काबिज होते हुए देखना चाहते हैं या नहीं। चुनाव परिणाम देखकर ऐसा लगता है कि इस चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को नहीं हराया बल्कि उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं ने ही भाजपा को हराने का काम किया है।

अगर हम इन राज्यों के नतीजों का निष्पक्ष विश्लेषण करें, तो कांग्रेस की स्पष्ट जीत छत्तीसगढ़ में दिखाई देती है, जहां जीत का अंतर 10 प्रतिशत है। इन 2 राज्यों में भाजपा कांग्रेस से ज्यादा पिछड़ी नहीं लगती, चाहे वह वोट प्रतिशत हो या फिर सीटों की बात हो। यह नहीं माना जाना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी की करारी हार हुई है व मोदी का जादू खत्म हो गया है, बल्कि भाजपा की स्वीकार्यता जनमानस में खीझ के रूप में प्रलक्षित हुई है। बाकी 3 राज्यों में जनता का निर्णय एकदम स्पष्ट है।

पूर्वोत्तर से कांग्रेस का सफाया 
मिजोरम में कांग्रेस का जाना पूरे नार्थ ईस्ट से कांग्रेस का सफाया है। चुनाव में एम.एन.एफ. को 40 में से 26, कांग्रेस को 5 व भाजपा को एक सीट ही मिली है। पिछले चुनाव में कांग्रेस को 34 सीटें व एम.एन.एफ. को 5 सीटें मिली थीं। इस नजरिए से देखें तो कांग्रेस का यहां पूरी तरह सफाया हुआ है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे लालथन हावला दोनों सीटों से हार गए। पूरे पूर्वोत्तर में आमजन में यह भावना बहुत गहरी है कि क्षेत्रीय दल उनकी समस्याओं को बखूबी समझते हैं। पूर्वोत्तर की सरकारें केन्द्र की सरकार से अच्छे संबंध रखती हैं ताकि वहां का आर्थिक विकास हो सके और यह बात व्यापक राष्ट्रहित में भी है।

छत्तीसगढ़ के नतीजे एकदम चौंकाने वाले हैं। ऑपिनियन पोल व राजनीतिक पंडितों ने ऐसे नतीजे की परिकल्पना भी नहीं की थी। मध्य प्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में भी भाजपा का शासन 3 कार्यकाल का रहा और अगले मुख्यमंत्री का चेहरा भी साफ-सुथरी छवि वाले रमन सिंह ही थे। वहां का आमजन उन्हें विकास पुरुष कहता है। विकास का आभास हर क्षेत्र में दिखाई देता है। बिना किसी स्थानीय नेतृत्व के इतना बड़ा (दो-तिहाई) बहुमत प्राप्त करना कांग्रेस के लिए चकित करने जैसी बात हैै। इससे यह पता लगता है कि जनमानस जब बदलने का मन बना लेता है तो वह बदल देता है, नेतृत्व व अन्य मुद्दे भी उसके सामने गौण हो जाते हैं।

जैसे 2004 में वाजपेयी के सामने सोनिया का व्यक्तित्व कहीं भी नहीं ठहरता था, परंतु जनमानस ने अपनी भावनाओं को वोट के माध्यम से व्यक्त कर दिया। तेलंगाना का जनादेश एकदम स्पष्ट है। तेलंगाना में जनमानस का टी.आर.एस. के प्रति अपार समर्थन, दो-तिहाई बहुमत का मिलना दर्शाता है कि के. चंद्रशेखर राव का समय से पहले चुनाव करवाने का दाव चल गया और जनता ने कांग्रेस के तेलगू देशम से गठबंधन को पूर्णत: नकार दिया। जिसका प्रभाव आंध्र प्रदेश के अगले आने वाले चुनावों पर भी पड़ेगा।

राजस्थान में वोटर ने इस बार भाजपा व कांग्रेस दोनों को चुनौती दी है। भाजपा को नकारा नहीं, यहां भाजपा अपनी गलतियों के कारण ही सत्ता से वंचित रही। मुख्यमंत्री व शीर्ष नेतृत्व के बीच जो खींचातानी लंबे समय से चल रही थी, वसुंधरा राजे का राजसी हठ व पिछले 2 साल से यह नारा हर जुबान पर था कि वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी से बैर नहीं। जनमानस का इतना समर्थन कि सत्ता में आने वाले दल व सत्ता से विमुख होने वाले दल को बराबर का वोट मिलना यह दर्शाता है कि कुछ लोगों ने अपना रोष प्रकट करने का जरिया नोटा को बनाया। इसमें यह स्पष्ट होता है कि जनता ने न तो भाजपा को नकारा व न ही कांग्रेस को स्वीकार किया है।

हर 5 साल बाद सत्ता बदलने की परम्परा व मीडिया तथा चुनाव विशेषज्ञों द्वारा सूपड़ा साफ  होने की भविष्यवाणी, 25 सीटों के आने की संभावना के बाद भी बराबर  का प्रदर्शन दिखाता है कि मोदी का जादू बरकरार है। कांग्रेस को मीडिया व चुनाव विशेषज्ञ 150 से 160 सीटों की भविष्यवाणी कर रहे थे। भाजपा संगठित होकर चुनाव लड़ती तो वह 110 सीटें जीतकर पुरानी परम्परा तोड़ सकती थी। राजस्थान विधानसभा में 200 सीटें हैं, जिनमें से कांग्रेस को 99 सीटें मिली हैं। कुल वोट शेयर में भाजपा को 38.8 व कांग्रेस को 39.9 फीसदी वोट मिले हैं।

‘नोटा’ का इस्तेमाल
मध्य प्रदेश में 15 वर्षों की सत्ता विरोधी लहर के बाद भी भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया है। मध्य प्रदेश में भाजपा को नैतिक जीत मिली है। लोकतंत्र में संख्याबल के आधार पर ही सरकारें बनती व गिरती हैं। कुल 230 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 114 व भाजपा को 109 सीटें मिली हैं। वोट शेयर में भाजपा को 41 फीसदी व कांग्रेस को 40.9 फीसदी वोट मिले हैं। दोनों के बीच 0.1 प्रतिशत वोट का अंतर रहा है।

इस चुनाव की एक दिलचस्प बात यह भी है कि अकेले मध्य प्रदेश में 5.42 लाख मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया है। इसका अर्थ यह हुआ है कि ये सारे वोट भाजपा के खिलाफ  पड़े हैं। अगर इतनी बड़ी संख्या में वोटर नोटा का प्रयोग न करते तो यहां अगले 5 वर्ष भाजपा की ही सरकार बन सकती थी। मध्यप्रदेश के वोटर ने बड़ी चालाकी से सत्ता की चाबी भाजपा के हाथ में देकर भी उससे छीन ली।

15 साल तक एक व्यक्ति का मुख्यमंत्री रहना व अगले 5 साल के लिए उसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके उसके नेतृत्व में चुनाव लड़वाना, बराबर  का वोट प्रतिशत व लगभग बराबर सीटों का मिलना मुख्यमंत्री के सशक्त नेतृत्व व आमजन में स्वीकार्यता को दर्शाता हैै। इस नजरिए से भाजपा को वहां जीत ही मिली है। व्यापमं घोटाला व किसानों के आंदोलन का प्रभाव भी अपना खास असर नहीं छोड़ सका। 15 वर्षों की सत्ता के कारण भाजपा के प्रति आमजन की खीझ ने ही भाजपा को हराया है।

कांग्रेस की जीत स्वाभाविक नहीं
यह वोटर का स्वभाव है और राजनीति का नियम है कि किसी भी प्रदेश का जनमानस अपनी खीझ व्यक्त करता है, तो वह प्रदेश की नंबर 2 पार्टी को समर्थन देता है। संयोगवश तीनों राज्यों में भाजपा की प्रतियोगी पार्टी कांग्रेस ही रही है। अगर कांग्रेस की बजाय कोई और दल होता तो भी उस दल को लाभ मिलता। अगर इन तीनों राज्यों में अलग-अलग पार्टियां मुख्य विपक्ष की भूमिका में होतीं तो उन्हें ही इसका फायदा पहुंचता। यह कोई अपार समर्थन नहीं है। वास्तव में कांग्रेस की जीत एक परिस्थितिवश जीत है।

काबिलेगौर यह है कि भाजपा जो कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देती रही है, उसे समझना होगा कि कांग्रेस पार्टी ही उसकी प्रतिद्वंद्वी है व उसका राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला कांग्रेस से ही होगा। ये चुनाव भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए एक सबक की तरह हैं। जब कोई हारता है तो वह अपनी असफलताओं से ही कुछ न कुछ सीखता है, भाजपा को भी अपनी इस असफलता से सबक लेने की आवश्यकता है। उसे व उसके नेताओं को अहंकार को छोड़कर आम कार्यकर्ता में जोश भरना होगा, तभी भाजपा 2019 में नरेन्द्र मोदी को एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री बनाने के सपने को पूरा कर पाएगी।

यह स्पष्ट है कि जनता ने भाजपा व उसकी नीतियों को नहीं हराया बल्कि उन्हें चेताया है कि आमजन की समस्याएं विकास, बेरोजगारी व किसानों के प्रति बेरुखी का रवैया न अपनाते हुए एक सकारात्मक रुख अपनाएं तो  भाजपा को सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता था और कांग्रेस इस भ्रम में न रहे कि तीन राज्यों के निर्णय ने केन्द्र की सत्ता का रास्ता खोल दिया है। असल में इस चुनाव से दोनों राजनीतिक पार्टियों को कुछ न कुछ सीख कर सबक लेने की जरूरत है। हार व जीत के इस सैमीफाइनल से जो सीख लेगा वही 2019 के रण को जीत सकेगा।  -अनिल गुप्ता


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