खुदा के लिए अपने पिता के नाम पर राजनीति न करें

punjabkesari.in Friday, Mar 26, 2021 - 04:30 AM (IST)

शिब्ली भाई जब पाकिस्तानी एयर फोर्स से रिटायर होकर राजनीति में शामिल हुए, हम सबको लगा था कि एक खानदानी शख्स, अहमद फराज के साहबजादे, शिब्ली भाई, बंटवारे का बयानिया बदलने वाला कोई जिम्मेदार व्यक्ति पाकिस्तान में अहम ओहदों को सम्भालेगा। 

शिब्ली भाई से मुझे मिलने का अवसर नहीं मिला, किंतु मशहूर फिल्म अभिनेता ओम प्रकाश जी की बेटी बबली जी के घर पर आयोजित एक गोष्ठी में उनके वालिद, मरहूम अहमद फराज से केवल मिलने का सौभाग्य ही नहीं मिला, बल्कि उनकी मशहूर नज्म, उनके सामने पेश भी कर दी। गजल कुछ इस प्रकार से थी : 

‘ये आलम शौक का देखा न जाए,
 वो बुत है या खुदा,देखा न जाए।
ये मेरे साथ कैसी रोशनी है,
कि मुझसे रास्ता देखा न जाए।
गलत है जो सुना पर आजमा कर 
तुझे ऐ बावफा देखा न जाए
ये महरूमी नहीं पासे-वफा है,
कोई तेरे सिवा देखा न जाए। 

आज भी वह मंजर याद आता है तो चेहरे पर मंद-मंद मुस्कुराहट आ जाती है। और एक शे’र याद आ जाता है :
मोहब्बत,दोस्ती, अख़लाक, हमदर्दी,निकोकारी,
ये चीजें ले के आए हैं हम इंसानों की बस्ती में। 

अहमद फराज साहब 12 जनवरी, 1931 को कोहाट के एक प्रतिष्ठित सादात परिवार में पैदा हुए थे। यह वही पुण्यभूमि है, जो सीमांत गांधी अब्दुल गफ्फार खान की कार्यस्थली रही है। यह पख्तूनवाला का वह इलाका है, जहां इस्लाम नक्शबंदी सूफियों के दर्शन में हिलमिल गया था। यहां रहने वाले बंगश जाति के बहादुर पठानों ने कभी अंग्रेजों की गुलामी बर्दाश्त नहीं की। उनका गुनाह सिर्फ इतना था कि उन्होंने जनरल जिया-उल हक के फौजी जूते के तले घुटने नहीं टेके। 

अहमद फराज में इतनी हिम्मत थी कि वे खुल कर हजारों की सभा में कह सकते थे, कि भले ही फौजी तानाशाह मुशर्रफ को अमरीका का समर्थन हो, किंतु उनको गद्दी छोडऩी पड़ेगी, किंतु आज उन्हीं का बेटा फौज की तारीफ में कसीदे पढ़ रहा है। उनका कहना था कि सेना को शासन नहीं करना चाहिए। यह काम निर्वाचित प्रतिनिधियों का है और नेताओं को सादे लिबास में रहना चाहिए। अपने निधन से कुछ दिनों पूर्व ही उन्होंने जनरल मुशर्रफ की फौजी सरकार के खिलाफ वकीलों के साथ मिलकर आंदोलन किया था। उनका असल नाम सैयद अहमद शाह था। अहमद फराज ने जब शायरी शुरू की तो उस वक्त उनका नाम अहमद शाह कोहाटी होता था। 

अहमद फराज की मातृभाषा पश्तो थी लेकिन आरंभ से ही फराज को उर्दू लिखने और पढऩे का शौक था और वक्त के साथ उर्दू जुबान व अदब में उनकी यह दिलचस्पी बढऩे लगी। उनके पापा उन्हें गणित और विज्ञान की शिक्षा में आगे बढ़ाना चाहते थे लेकिन अहमद फराज का रुझान अदब व शायरी की तरफ था। इसलिए उन्होंने पेशावर के एडवर्ड कालेज से फारसी और उर्दू में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की और विधिवत अदब व शायरी का अध्ययन किया। अहमद फराज ने अपना करियर रेडियो पाकिस्तान पेशावर में स्क्रिप्ट राइटर के रूप में शुरू किया मगर बाद में वह पेशावर यूनिवर्सिटी में उर्दू के उस्ताद नियुक्त हो गए। 1974 में जब पाकिस्तान सरकार ने एकैडमी आफ लेटर्स के नाम से देश की सर्वोच्च साहित्य संस्था स्थापित की तो अहमद फराज उसके पहले डायरैक्टर जनरल बनाए गए। 

फराज अपने युग के सच्चे फनकार थे। सच्चाई और बेबाकी उनकी सृजनात्मक स्वभाव का मूल तत्व था। उन्होंने सरकार और सत्ता के भ्रष्टाचार के विरुद्ध हमेशा आवाज बुलंद की। जनरल जिया-उल-हक के शासन को सख्त निशाना बनाने के नतीजे में उन्हें गिरफ्तार किया गया। वह छ: साल तक कनाडा और यूरोप में निर्वासन की पीड़ा सहते रहे। फराज की शायरी जिन दो मूल भावनाओं, रवैयों और तेवरों से मिल कर तैयार होती है वे प्रतिरोध, हस्तक्षेप और रुझान हैं। उनकी शायरी से एक रुहानी, एक आधुनिक और एक बागी शायर की तस्वीर बनती है। उन्होंने इश्क मोहब्बत और महबूब से जुड़े हुए ऐसे बारीक एहसासात और भावनाओं को शायरी की जुबान दी है जो अर्से पहले तक अनछुए थे। हिंद-पाक के मुशायरों में जितनी मुहब्बत और दिलचस्पी के साथ फराज को सुना गया है उतना शायद ही किसी और शायर को सुना गया हो। उन्हें बहुत से सम्मान व पुरस्कारों से भी नवाजा गया। 

पार्टीशन का दंश हिंदू भाइयों की तरह मुसलमान भाइयों ने भी सहा है। आज भी सह रहे हैं। मैं उन बहनों का नाम लेना लखनऊ की तहजीब के खिलाफ समझती हूं कि उन्होंने विवाह के बाद भी पाकिस्तानी पासपोर्ट लेने से इंकार कर दिया, और अपने बेटे के साथ भारतीय बनी रही, भले ही उनका परिवार टूट गया हो। फराज साहब 2008 में चल बसे, और यह क्रांतिकारी कवि इस्लामाबाद मे सुपुर्दे-खाक कर दिया गया। अहमद फराज ने हम जैसे हजारों लोगों को अपनी प्राचीन सांझा-संस्कृति का पाठ पढ़ाया था। इसीलिए शिब्ली भाई के पाकिस्तान के सूचना प्रसारण मंत्री बनने पर भी खुशी हुई थी, किंतु जिस तरह से वे पाकिस्तानी सेना की राजनीति की वकालत कर रहे हैं, हम सभी को बेहद अफसोस है। 

खुदा न खास्ता अगर कभी मुलाकात हुई तो मैं उनसे यह जरूर कहूंगी कि आपको जो करना हो करें, लेकिन खुदा से खौफ करें और अहमद फराज का नाम अपनी जुबान से न लें कि आप उनके बेटे हैं। अहमद फराज साहब की रूह क्या सोचती होगी, मुझे नहीं मालूम, किंतु हम सभी चाहते हैं कि आप अपनी राजनीति में उनका नाम न घसीटें।-निशी मिश्रा 


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